नादयोग के ध्वनि संकेत

April 1986

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नादयोग को शब्द ब्रह्म की साधना कहा गया है। जीवन की ज्ञान चेतना शब्द, रस, रूप, गन्ध, स्पर्श की पाँच तन्मात्राओं पर आधारित हैं। इन्हीं से पाँच ज्ञानेंद्रियां बनी हैं। शब्द की इनमें प्रमुखता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो अन्य इन्द्रियाँ तो काम नहीं करती। दिखाई भी नहीं देती। पर संसार में आते ही सर्वप्रथम उसकी रोने की वाणी ही सुनाई पड़ती है। शब्द ज्ञान होने पर अन्धे भी अपना काम चला लेते हैं, पर कानों के अभाव में तो उसे गूँगा भी रहना पड़ता है और बहरा भी। जीवन विकास में जिस प्रकार शब्द का प्रारम्भ है उसी प्रकार ब्रह्म के प्रकटीकरण में भी शब्द का सर्वोपरि स्थान है। भगवान को प्राप्त करने के लिए उसके किसी नाम का अवलम्बन अपनाना पड़ता है। सृष्टि का आरम्भ भी शब्द तत्व से हुआ। विज्ञान के अनुसार इस संसार में तीन शक्तियाँ ही प्रमुख हैं। शब्द, ताप, और प्रकाश। इन्हीं की तरंगें समस्त सूक्ष्म प्रकृति में संव्याप्त हैं और इन्हीं के मिलने-बिछुड़ने से अनेकानेक वस्तुएँ बनती और अनेकानेक घटनाएँ घटित होती हैं।

प्रकृति के अन्तराल में अगणित ध्वनियों का प्रवाह बहता है। प्रत्येक घटना सर्वप्रथम शब्द रूप से ही प्रकट होती और प्रकाश में आती है। जो कुछ विश्व ब्रह्माण्ड में हो रहा है या होने जा रहा है उसका अदृश्य रूप सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही विनिर्मित होता है। रूप का निर्धारण तो उसके उपरान्त होता है। भूतकाल की घटनाएँ दृश्य रूप में तो मिट जाती हैं पर उनका स्वरूप शब्द रूप में चिरकाल तक बना रहता है।

नादयोग का अभ्यास शब्द तत्व सम्बन्धी अतीन्द्रिय क्षमताओं को जागृत करने के निमित्त ही किया जाता है। सामान्य शरीर में तो समीपवर्ती और स्पष्ट शब्द सुनने की ही क्षमता है। वे न तो बहुत दूर की आवाज को सुन सकते हैं और न घुस-पुस जैसी अस्पष्ट धीमी आवाज को समीप ही होते रहने पर ही समझ पाते हैं। कानों को जितनी सामान्य शक्ति मिली है वह मात्र मनुष्य की सामान्य दैनिक निर्वाह में काम आ सकने जितनी ही है। उनके माध्यम से श्रवण भी सीमित जानकारियां ही देता है। पढ़कर अन्यत्र के समाचार भर जाने जा सकते हैं पर प्रत्यक्ष की तुलना में जो असंख्य गुना अप्रत्यक्ष है उसकी जानकारी प्राप्त होने का मनुष्य को कोई आधार नहीं मिला है। रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन जैसे उपकरण भी मनुष्य के मुख से निकली हुई वाणी के साथ जुड़ी हुई जानकारी ही दे सकते हैं। किन्तु ऐसी सांकेतिक भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते कि विभिन्न क्षेत्रों में जो घटित होने वाला है उसकी जानकारी मिल सके और यह पता चल सके कि कहाँ क्या हो चुका, कहाँ क्या हो रहा है या क्या होने जा रहा है? इस भवितव्यता की जानकारी अनन्त अन्तरिक्ष में विचरती रहती है। हाँडी कच्ची है या पक गई इसकी जानकारी उसके भीतर चल रही हलचलों के अनुरूप निकलते रहने वाले शब्दों के आधार पर जानी जा सकती है। इसके लिए ढक्कन खोलने और उसका निरीक्षण-परीक्षण करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।

ऐसा ही ज्ञान नादयोग के अभ्यासी को हो सकता है। इसके लिए कानों को रुई से, शीशी की कार्क से, या मोम पर चढ़ी हुई कपड़े की पोटली से कानों के छेद इस प्रकार बन्द करने पड़ते हैं कि बाहर की आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। ऐसा एकांत स्थान भी ढूँढ़ा जा सकता है जहाँ बाहरी शब्द सुनाई न पड़ते हों। संगीत को टेप करने के लिए ‘साउण्ड प्रूफ’ कमरे भी बनाये जाते हैं जिसमें होकर भीतर की आवाज बाहर या बाहर की भीतर न पहुँच सके। शारीरिक स्थिति शान्त और चित्त एकाग्र रखने की तो हर साधना में आवश्यकता पड़ती है। उत्तेजित शरीर और अशांत चित्त से तो कोई भी आध्यात्मिक साधना नहीं हो सकती।

इसके उपरान्त ध्यान को सूक्ष्म कर्मेंद्रिय के साथ जोड़ना पड़ता है और गहराई में उतरकर यह देखना पड़ता है कि कोई अनाहत शब्द भीतर से उभर रहा है क्या? आरम्भिक दिनों में कोई विशेष ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी दशा में निराश होने की आवश्यकता नहीं है। लगातार अभ्यास करने से कुछ बहुत ही हलकी-धीमी सूक्ष्म ध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं और आसपास के वातावरण को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि वह किसी समीपवर्ती घटनाक्रम से सम्बन्धित आवाज ही है।

नादयोग में सुनाई पड़ने वाली आवाजों में झींगुर बोलने, चिड़िया चहचहाने, बादल गरजने, झरना झरने के कलख नदी जैसी बाँसुरी या डमरू या सितार बजने जैसी, शंख ध्वनि जैसी, भौंरा गूंजने जैसी आवाजें होती हैं। इससे मिलती-जुलती कोई और भी आवाज हो सकती है। एक ही आवाज लगातार सुनाई देती रह सकती है, और उनमें हेर-फेर भी होता रह सकता है।

आरम्भ क्रम चलाकर इन्हें स्पष्ट होने देना चाहिए। जब आवाजें स्पष्ट हो चलें तब ध्यान को और भी अधिक गहराई में ले जाना चाहिए इनका सूक्ष्म जगत की किसी घटना से सम्बन्ध तो नहीं है। यदि ऐसा कुछ होता है तो उसके दृश्य मानस क्षेत्र में कल्पना पटल पर उतरने लगते हैं और प्रतीत होता है कि यह अपने संपर्क क्षेत्र में घटित होने वाली किसी घटना या किसी मित्र सम्बन्धी की भवितव्यता सम्बन्ध संकेत तो नहीं है। आभास को किसी से कहना नहीं चाहिए वरन् स्वतः ही यह परीक्षण करना चाहिए कि अनुमानित संकेत सही उतरा या नहीं।

कभी-कभी अपने शरीरगत अवयवों की हलचलों से सम्बन्धित यह शब्द होते हैं। आमाशय, आँतें, यकृत, हृदय, फुफ्फुस, गुर्दे आदि की असाधारण हलचलें भी अपने आप इस आधार पर अपना परिचय देती हैं। शरीर का तापमान घटना बढ़ना भी इस ध्वनि प्रवाह के साथ बढ़ी-घटी रोशनी के रूप में या शान्ति उत्तेजना के रूप में अनुभव होती है। इस प्रकार अपने शरीर और मन का निरीक्षण भी नादयोग के आधार पर हो जाता है। मन में उठने वाले उत्तेजना, क्रोध, आवेश, ईर्ष्या, प्रतिशोध, कामुकता जैसे विचारों से उत्तेजना रहती है और भय, सन्देह, निराशा, उदासी आदि का संकेत मन्द, अस्फुट, कानाफूसी जैसी स्थिति से लगने लगता है।

आरम्भ में नादयोग में अपनी निजी कल्पना और प्रकृति प्रवाह का सम्मिश्रित परिचय हो सकता है। पर जैसे-जैसे अन्तःकरण की शान्ति एवं समस्वरता बढ़ती जाती है। सूक्ष्म जगत का परिचय मिलने लगता है। यहाँ तक कि ईश्वर की इच्छा गतिविधियों में सुधार परिवर्तन के निमित्त आदेश रूप में संकेत मिलने लगते हैं। कुछ दिन के अभ्यास से यह स्पष्ट हो जाता है कि नादयोग द्वार जिन ध्वनियों का जैसा तात्पर्य समझा गया था वैसा हुआ या नहीं। तांत्रिकों में इसे कर्ण पिशाचिनी सिद्धि कहते हैं। जो संसार भर की पूछी बिना पूँछी बातों को चुपचाप कान में कहती रहती हैं।


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