कभी क्षीण न होने वाला यौवन

April 1986

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यौवन यों उठती आयु को भी समझा जाता है। बीस वर्ष पर किशोरावस्था परिपक्व हो जाती है और यौवन आरम्भ हो जाता है। इस अवधि में चेहरे पर सुन्दरता और शरीर में कार्य क्षमता विकसित होती है। 30-35 वर्ष के उपरान्त आदमी प्रौढ़ स्थिर हो जाता है। बढ़ोत्तरी का उभार रुक जाता है पर मजबूती यथावत् बनी रहती है। यह शरीर का आयु सम्बन्धी विभाजन है। बढ़ती उम्र में उमँगों का उभार और उत्साह, साहस स्वयमेव होता है।

किन्तु एक दूसरा वर्गीकरण मन सम्बन्धी भी है। जब तक आशा, उमंग, उत्साह रहे, तब तक यही समझना चाहिए कि यौवन बना हुआ है। शरीर का उठाव और ढलान प्रकृति व्यवस्था पर निर्भर है। पचास से बुढ़ापा शुरू हो जाता है। और शरीर क्रमशः क्षीण होने लगता है। बाल पकने और दाँत हिलने लगते हैं। आँख, कान आदि की क्षमता दुर्बल होने लगती है। आलस्य बढ़ने लगता है, थकान जल्दी आती है।

किन्तु यह व्याख्या शरीर और आयुष्य से सम्बन्धित है। प्रकृति परक है। एक दूसरा पक्ष मानसिक है। मनुष्य यदि मानसिक दृष्टि से मजबूत है तो प्रकृति व्यवस्था में काफी हेर-फेर भी हो सकती है। मानसिक स्तर ऊँचा बनाये रखना बहुत कुछ अपने मन की बात है। मनोबल न गिरने दिया जाय तो यौवन बुढ़ापे में भी मरते समय तक भी बना रह सकता है।

भूत काल यदि शानदार रहा हो तो ही उन स्मृतियों को सँजोये रहा जाय, पर यदि परिस्थितियाँ प्रतिकूल रही हों तो उन्हें भुला दिया जाय और जिन सत्स्वभाव वाले लोगों का स्नेह, सद्भाव मिला हो, उसे ही स्मरण रखा जाय। परिस्थितियों की जटिलता और उनसे जूझने की साहसिकता का स्मरण भी मनोबल स्थिर रखने में सहायक होता है। आनन्द, उल्लास भरी सफलताऐं लिए हुए जो समय बीतता हो, उसकी स्मृति भी उत्साह बढ़ाती है। पराजय, असफलताओं और कटु-प्रसंगों को भूल ही जाना चाहिए।

वर्तमान को व्यस्त रखें और कर्तव्यों को इस प्रकार निबाहें, जैसे सैनिकों को अनुशासन निबाहना पड़ता है। चुस्ती और फुर्ती मानसिक स्थिति से सम्बन्धित है। उन्हें दुर्बल शरीर या भारी काया होते हुए भी बनाये रखा जा सकता है।

कार्य का प्रतिफल क्या मिला? यह सोचने की अपेक्षा अपने क्रिया-कलापों का मूल्याँकन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसे कितनी समझदारी तथा जिम्मेदारी, ईमानदारी के साथ किया गया। इन विशेषताओं के जुटे रहने पर काम का प्रत्यक्ष परिणाम अधिक उत्साहवर्धक न हो तो भी मनोबल बना रहता है। मनोबल का नाम ही वास्तविक यौवन है, जिसे हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में बनाये रखा जा सकता है।

भविष्य को आशाओं के साथ जोड़कर रखना चाहिए सफलता पर विश्वास रखना चाहिए। भले ही उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध होने में विलम्ब लगे, पर हारने-गिरने की बात कभी मन में जमने नहीं देनी चाहिए। शरीरगत क्षीणता का सामना करने का सहज उपाय यह है कि अधिक श्रम वाले कामों की अपेक्षा कम परिश्रम वाले कामों का चयन किया जाय। बीच-बीच में विश्राम लेते रहा जाय और सम्भव हो तो ऐसा किया जाय कि काम का स्वरूप और स्तर बदलते रहा जाय। एक की तरह का काम लम्बे समय तक करते रहने पर अपेक्षाकृत जल्दी थकान आती है। उनका क्रम, स्वरूप और स्तर बदलते रहा जाय तो व्यस्तता भी विनोद जैसी बन जाती है और अपने ऊपर बोझ लदा हुआ प्रतीत नहीं होता। शान्त मनःस्थिति वाले सदा जवान रहने जैसा अनुभव करते हैं।


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