सच्चा मानवोचित पुरुषार्थ

September 1987

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अधिक उपभोग की लालसा में मत बंधो इतना मत चाहो तो सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रयास में घाटा ही घाटा हैं प्रकृति किसी को भी नियत मर्यादा से अधिक न तो संग्रह करने देती है और न उपयोग।

वैभव अर्जित करने और उनका असीम उपयोग करने की लिप्सा किसी को कितना हैरान करती है उसका दृश्य उन लोगों के आरम्भ और अन्त को देखने भर से किया जा सकता है। क्या आवश्यकता है कि उसका प्रयोग अनुभव अपने ही ऊपर किया जाय? कटीले मार्ग पर चलने वालों के पैर किस प्रकार लहू-लुहान होते हैं, यह दूसरों को वैसा करते देखकर या उनसे पूछकर भी जाना जा सकता है। फिर क्या अटकाव कि हर विपन्नता को अपनाया जाय और उनका त्रास सहा जाय।

मनुष्य जनम का बहुमूल्य अवसर उपहासास्पद पृष्ठ-पोषण में गँवाया जाय, इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं। जिनने बहुत कमाया और बहुत उड़ाया उनकी अन्तरात्मा क्या कहती है और लोक भर्त्सना कितनी सहनी पड़ती है? यह अपने इर्द-गिर्द बिखरे हुए अनेकानेक उदाहरणों से भी जाना जा सकता हैं

हम सुयोग के सदुपयोग के लिए अनेक प्रयोजना सामने विद्यमान है। क्यों न उन्हीं की ओर ध्यान दिया जाय? और क्यों न ऐसा मार्ग अपनाया जाय जिसका अनुगमन करके अन्यों को भी श्रेय और प्रकाश मिल सके?


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