ज्ञानेन्द्रियों को विकसित-परिष्कृत किया जाय!

September 1987

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मनुष्य शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। वे सभी मस्तिष्क के साथ जुड़ी हैं। अपनी-अपनी अनुभूति, संवेदनाएँ वे ग्रहण करती हैं। उनकी जानकारी मस्तिष्क तक पहुँचाती है। मस्तिष्क वस्तुस्थिति का परिचय प्राप्त करने के अतिरिक्त उनका निरीक्षण, परीक्षण भी करता है और अगले क्षणों क्या किया जाना चाहिए, इसका निर्धारण करता है। तद्नुसार अन्य अवयव अपना काम करना आरम्भ कर देते हैं। मस्तिष्क की कल्पनाएँ भी अपना काम करती है। उनमें से जो भी उपयोगी समझी जाती हैं वे महत्व पाती हैं। जो निरर्थक मानी जाती है उन्हें उपेक्षित कर दिया जाता है। इसी प्रकार हमारी शारीरिक, मानसिक गतिविधियों का सूत्र संचालन होता रहता है। मस्तिष्क के प्रशासन तंत्र में वरिष्ठ अधिकारी का काम ज्ञानेन्द्रियाँ ही करती हैं उन्हीं से सम्बद्ध तंत्र-जाल समूचे शरीर में फैला है। संचार की सुविस्तृत क्रिया-प्रक्रिया वही सम्भलता है।

पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों में से उन्हीं की सक्रियता बढ़ी-चढ़ी रहती है। जिनका निरन्तर उपयोग होता रहता है। क्रियाशीलता ही विकास का आधार है। निष्क्रिय पड़े रहने वाले पदार्थ अथवा अवयव जितने अधिक गतिशील रहते हैं उनकी दैवी क्षमता उसी अनुपात से उभरती है। यदि वे चिरकाल तक निष्क्रिय पड़े रहें तो उनकी क्षमता क्षीण होती चली जाती है। आकाशस्थ ग्रह-पिण्ड इसीलिए अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं कि उनकी गतिशीलता द्रुतगामी बनी हुई है। यदि वे अपना परिभ्रमण क्रम खो बैठें तो वे परस्पर टकरा जायेंगे। अनन्त अंतरिक्ष के गहन गर्त में गिरकर सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो बैठेंगे।

प्राणियों की काया, शक्तियाँ इसी आधार पर घटती-बढ़ती रही हैं। मुर्ग जाति के प्राणी उड़ने से कतराने लगे। अब उनकी सभी प्रजातियाँ थलचर मात्र बन कर रह गई हैं। शुतुरमुर्ग तो मात्र धावक बनकर ही रह गया है। पालतू मुर्गे भी कहाँ उड़ पाते हैं कि मछलियों की छलाँग लगाने की इच्छा से उनके पर उगा दिये। उड़ने वाले सर्प भी देखे गये हैं। फुदकने वाले टिड्डों के शरीरों में नये पर उगे हैं। यह इच्छा आवश्यकता और चेष्टा का संयोग है।

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों में से नेत्र और कान उनकी आवश्यकताएँ पूरा करने में विशेष रूप से सहायक सक्रिय रहे हैं। इसी कारण उनकी क्षमता स्थिर ही नहीं रही, वरन् बढ़ती भी चली गई है। चील, गिद्ध, गरुड़ जाति के पक्षी और भी अधिक दूरी तक स्पष्ट देख सकते हैं, आकाश में ऊँचे उड़ते हुए भी भूमि पर शिकार को अपनी-अपनी दृष्टि विशेषता के कारण पकड़ पाते हैं। इसी आधार पर कितनी ही नई प्रजातियाँ समय की सुविधा के अनुरूप उत्पन्न होती रहती है, जब कि आदिम काल के महागज, महासरीसृप, इतने विशालकाय होते हुए भी अपना अस्तित्व गँवा बैठे।

इस परिवर्तन क्रम में मानवी काया में भी बहुत कुछ उलट पुलट हुई है। नर को वानरों का वंशधर माना जाता है। उसके वंशजों की पूँछ का उपयोग न हो सका अस्तु वह धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अब मेरुदण्ड के अन्त में उसकी जड़ का एक भाग ही किसी रूप में सुरक्षित रह गया है।

ज्ञानेन्द्रियों में मनुष्य प्रधानतया आँख और कान का ही प्रयोग करता है। नाक और त्वचा का उपयोग तो नगण्य जितना ही हो पाता है। जबकि पशु-पक्षी समुदाय में से कितने ही इन्हीं दो के आधार पर अपनी जीवनचर्या चलाते हैं और उलझनों को सुलझाते हैं।

मात्र एक जिव्हा ही ऐसी है जो विचित्र रीति-नीति से काम में आती है। स्वाद चखना जीभ का काम था ताकि वह भक्ष्य और अभक्ष्य का उपयुक्त अनुपयुक्त का निर्णय मुख रूपी अस्पताल में बैठे हुए जाँच पड़ताल वाले डाक्टर की भूमिका निभाती रहे। पर कुप्रचलन ने उसे भी चटोरपन की नशेबाजी जैसी बुरी आदतों का अभ्यस्त बना लिया है। वह अखाद्यों को खाद्य और खाद्यों को अखाद्य ठहराने की अनीति पर उतर आई है। जो शाक फल जीवन तत्व प्रदान करते थे उन्हें या तो लिया ही नहीं जाता, लिया भी जाता है तो नाक, भौं, सिकोड़ कर मसाले, चीनी, चिकनाई आदि से सराबोर करने के उपरान्त। इस प्रकार आहार मनुष्य नहीं खाता वरन् वह उल्टा उसी को खा रहा है। रुग्णता और अकाल मृत्यु का कारण बन रहा है।

जीभ द्विधा इन्द्रिय है। वह चखती ही नहीं बोलती भी है। बोलना प्रभावशाली होना चाहिए, उसमें प्रामाणिकता और प्रतिभा का ऐसा समावेश होना चाहिए, जिससे जिसमें भी वार्तालाप चले वह आदर्श अपनाने का मन बनाये, अपने चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करे। वाणी को सरस्वती का प्रतीक माना गया है, उसकी गरिमा इसी में है कि भटकाव को रोके और उत्कर्ष मार्ग पर चलने की प्रेरणा भरे। पर देखा जाता है कि यह कर्तव्य भी उससे निभ नहीं पा रहा है। वाचालता अब मिथ्याचार की प्रतिनिधि बन गई है। छल, प्रपंच में फँसाने, दुर्व्यसनों की ओर धकेलने और भ्रान्तियाँ फैलाने का मिथ्याचार ही उससे बन पड़ता है, देखा जाता है जो जितना मुखर है वह उतना ही अधिक लोगों को बरगलाता, फुसलाता है। ऐसी दशा में स्वाद और कथन के दोनों ही क्षेत्रों में असफल रहने के कारण उसकी चपलता भी अनर्थकारी ही सिद्ध हो रही है। इस प्रकार जिव्हा का होना उसके न होने से भी अधिक महँगा पड़ रहा है। जिराफ के जीभ नहीं होती, कई पक्षी कीटक तथा जल जीव भी बिना जीभ के पाये जाते हैं, वे उसके बिना भी काम चला लेते हैं, मनुष्य का मुख उसके व्यक्तित्व का प्रवक्ता है फिर भी उसके द्वारा होने वाले सभी क्रिया-कलाप ऐसे होते हैं, जिन्हें कौतुक कौतूहल तो कहा जा सकता है पर सराहा नहीं जा सकता। न वैसा लाभ मिल पाता है जैसा कि मिलना चाहिए था।

इन्द्रियों में महत्वपूर्ण समझी जाने वाली जिव्हा की रसना एवं अभिव्यक्ति क्षमता को यदि परिष्कृत किया जा सके तो मनुष्य का स्तर इतना समुन्नत हो सकता है कि वह सतयुगी देव मानवों में अपनी गणना करा सके। स्वयं सुखी समुन्नत रहे और दूसरों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, सुखी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। आवश्यकता है जिव्हा का परिष्कार करने के लिए नये सिरे से उसी प्रकार के प्रयास किये जाय जैसे कि आँख, कान की व्यथाओं को दूर करने के लिए अस्पताल खोले जाते हैं। जिव्हा को परिष्कृत करने के लिए यदि विचारणा और भावना से भरी पूरी शिक्षण पद्धति चलाई जा सके तो निश्चय ही इसका असाधारण लाभ समूची मनुष्य जाति को मिल सकता है।

कुछ इन्द्रियों से काम न लिए जाने के कारण वह निरर्थक हो गई है। उन्हें फिर से इस योग्य बनाया जा सकता है कि मनुष्य की वर्तमान ज्ञान, क्षमता कई गुनी अधिक बढ़ सके और वह अपने तथा संपर्क क्षेत्र के बारे में कुछ जान सके जिससे कि वह इन दिनों कोसों दूर है।

पशु पक्षियों कीट, पतंगों में इन्द्रिय क्षमता नगण्य होती है। इन्हें नेत्रों और कानों के सहारे इतना ज्ञान नहीं मिल पाता, जिसके सहारे वे अपना जीवन-क्रम सरलता से चला सके। आत्म रक्षा कर सके। खुराक जुटा सके तथा प्रजनन के समय उत्पन्न होने वाले शिशु पालन, अंडा संरक्षण जैसे कार्यों से भली प्रकार निपट सके। एक तो उनकी शरीर संरचना ही मनुष्य की तुलना में अधिक पिछड़ी होने से पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस पर भी यदि ज्ञानेन्द्रियाँ भी गई-गुजरी हों तो निर्वाह की आवश्यकता पूरी कर सकना भी उसके लिए सम्भव न हो सके।

मनुष्य के दो पैर और दो हाथ है। हाथ काम करते और पैर चलते हैं। अन्य प्राणियों के या तो दो पैर होते हैं या चार हुए तो वे चलने भर के काम आते हैं। हाथों की आवश्यकता उन्हें मुँह, चोंच, सूँड़, सींग आदि के सहारे ज्यों-त्यों करके पूरी करनी होती है। फिर उनका पाचन तंत्र भी इतना समर्थ होता है कि शरीर के अनुपात से उन्हें कहीं अधिक खुराक चाहिए वह एक जगह एकत्रित नहीं मिलती। थोड़ा-थोड़ा करके जहाँ-तहाँ से जुटानी पड़ती है। इसके लिए अधिक सक्रियता चाहिए। निवास के लिए बने बनाये घर नहीं मिलते। वे उन्हें ही बनाने पड़ते हैं। जो बार-बार बिगड़ते रहते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें, उनके अण्डे बच्चों को आहार बनाने के लिए कितने ही माँसाहारी प्रकृति के प्राणी घात लगाये रहते हैं। इनसे बचाव करना भी एक समस्या है। यह आत्म रक्षा का उपयुक्त आधार उन्हें न सूझता रहे तो समझना चाहिए कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।

इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए प्रकृति ने उन्हें ऐसी अतिरिक्त क्षमता प्रदान की है जो या तो मनुष्य को मिली ही नहीं या वह उनका प्रयोग न करके गवाँ बैठा। अन्य प्राणियों में गंध इन्द्रिय और त्वचा इन्द्रिय इतनी सूक्ष्मग्राही होती है कि उनके सहारे मस्तिष्क को इतनी जानकारी मिल जाती है जितनी कि मनुष्य को आँख, कान के सहारे मिलती है।

पशु पक्षी अपने-अपने स्वरों में बोलते हैं। उनके साथ उनकी भाव संवेदनाएँ, इच्छाएँ, अभिव्यक्तियाँ भी जुड़ी रहती हैं। जिनसे अन्य सजातीय अवगत हो सकें। इस आधार पर आवश्यक आगाही प्राप्त कर सकें। सहयोग या आत्म रक्षा के लिए कदम बढ़ा सकें। यह सब स्वरों के साथ जुड़ी हुई ऐसी विचित्र तरंगों के माध्यम से होता है जो मनुष्य के लिए तो एक प्रकार से सर्वथा अरिति ही है, पर दूसरे प्राणियों में शब्द कोष का काम देते हैं। वे जीभ और कान से असमर्थ होते हुए भी मात्र त्वचा संपर्क से आने वाली ध्वनि किरणों के माध्यम से आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।

आकाश में अनेक ध्वनि तरंगें मान रहती हैं। परिस्थितियाँ बदलने के साथ-साथ उन में भी उतार चढ़ाव आते रहे हैं, उन्हें समझ सकना यदि सम्भव हो तो मौसम के परिवर्तनों से लेकर वातावरण में होने वाले हेर फेर तक एक को जाना जा सकता है और आवश्यकतानुरूप अपनी गतिविधियों में हेर-फेर किया जा सकता है। यह ज्ञान अधिकाँश उन प्राणियों में बढ़-चढ़ कर पाया जाता है जिन्हें हम पिछड़ा या अज्ञानी मानते हैं। वे भूकम्प बाढ़ बिजली गिरना, वर्षा होना आदि भवितव्यताओं के सम्बन्ध में समय से पहले ही आवश्यक जानकारियाँ प्राप्त करके अपना बचाव कर लेते हैं।

गंध के आधार पर वे परिचित अपरिति का भेद करते हैं। शिकार तलाशते और आक्रमणकर्ता की उपस्थिति को समझते हुए अपनी प्राण रक्षा का उपाय समय रहते करने लगते हैं। प्रणय सम्बन्ध मिलाने के साथ उत्साही साथी ढूँढ़ने में उन्हें गंध शक्ति ही काम देती है। इसी आधार पर अपने मालिकों से बिछुड़े कुत्ता, बिल्ली, लम्बी मंजिलें पार करते हुए नदी नाले लाँघते हुए लम्बी दूरी पार कर लेते हैं। प्रशिक्षित कुत्ते तो अब पुलिस के लिए जासूसी का काम भी करने लगे हैं। वे गंध के आधार पर ही अपराधियों का पल्ला जा पकड़ते हैं और चुराये हुए माल का अता−पता बता देते हैं, इस गंध शक्ति के आधार पर ही मधु-मक्खियाँ, खिलते हुए फूलों का पता मीलों दूर से लगा लेती हैं। उनकी छोटी आँखें इतना कर सकने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं हो सकतीं। दिशा ज्ञान लम्बी दूरी पार करके अपने निवास स्थान तक जा पहुँचना उनके लिए इस गंध चेतना के सहारे ही सम्भव होता है।

प्रकृति के विशाल महासागर में तो हलचलें चलती हैं वे सभी के लिए खुली हुई हैं। अन्तर इतना ही है कि जिनकी ग्रहण शक्ति बढ़ी-चढ़ी है वे अपने काम की जानकारियाँ मात्र गंध और त्वचा के सहारे उपलब्ध कर लेते हैं, जबकि मनुष्य इन दोनों को उपेक्षित करता रहा है और आवश्यक ज्ञान संचय के लिए बहुमूल्य यंत्रों का सहारा लेता है। यदि वह नये सिरे से त्वचा और घ्राण इन्द्रिय को जागृत करने का प्रयत्न करे तो आँख और कान से भी अधिक सक्षम इन दोनों अतिरिक्त इन्द्रियों का भी भरपूर लाभ उठा सकता है।


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