विचार ही हमें उठाते हैं और ले डूबते हैं!

September 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

निग्रहित मन की शक्ति असाधारण है। सूर्य किरणें बिखरती रहती हैं, उनकी गर्म रोशनी का ही महत्व है, पर आतिशी शीशे के माध्यम से उस किरण को एक केंद्र पर केन्द्रीभूत कर लिया जा सके तो तुरन्त आग उत्पन्न हो सकती है। सौर किरणों की एक मील की ऊर्जा एक सरोवर को भाप बनाकर उड़ा सकती है। यही बात निग्रहित मन के सम्बन्ध में भी है। उसकी अधिकाँश क्षमता अस्त-व्यस्त प्रयोजनों में नष्ट होती रहती है। उसके बिखराव को बचाया और एक केन्द्र पर केन्द्रित किया जा सके तो उतने भर से अनेकों चमत्कार देखे जा सकते हैं। शक्तियों का एकीकरण ही योगाभ्यास का मूल सिद्धांत है। वहाँ उसके लिए अनेक काम करने पड़ते हैं, पर विचारों के निग्रहित करने की प्रक्रिया ऐसी है जो किसी भी आधार पर आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में उतरने वाले उन लोगों को करनी ही पड़ती है, जो अपनी सामान्य सी दीखने वाली चेतना से असामान्य कार्य लेना चाहते हैं। जो भौतिक दृष्टि से भी असामान्य पुरुषार्थ कर सकते हैं और आध्यात्मिक दृष्टि से भी।

मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड कहते थे कि विचारों में समझने-समझाने भर की शक्ति है। कार्लजुँग का प्रतिपादन था कि उनके द्वारा वस्तुओं को भी प्रभावित किया जा सकता है। विवाद के समाधान के लिए एक कमरा चुना गया और संकल्प शक्ति का प्रयोग किया। फलतः कमरे में सभी वस्तुएं हिलने लगीं और पुस्तकें उड़कर दीवारों से जा चिपकी।

फिनलैंड की एक सुन्दर युवती की कथा है। उसे कैन्सर हो गया था। आपरेशन की टेबल पर जाने से पूर्व उसने डाक्टरों से कहा- वह जीवित रह सकेगी न? अपने प्रेमी के साथ विवाह कर सकने की स्थिति में हो सकेगी न? डाक्टरों ने आश्वासन में ‘हाँ’ कह दिया। यद्यपि वे संदिग्ध थे। प्रेमी भी उस घड़ी दौड़ा आया और कहा- “बीमारी मामूली है। उसके ठीक होते ही हम लोग विवाह बंधन में बंध जायेंगे और सुखपूर्वक जियेंगे।” ऐसा ही हुआ लड़की की आशा प्रबल हुई और उत्साह का असामान्य प्रतिफल यह हुआ कि छोटे से आपरेशन से वह सदा के लिए अच्छी हुई, जब कि उसी के वार्ड की अन्य रोगी महिलाओं में से एक को भी न बचाया जा सका। आरोग्य रक्षा, रोग निवारण के क्षेत्र में मनस्विता संवर्धन के माध्यम से लोग प्रगति पथ पर उतनी दूरी तक चल सके हैं जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रहा जा सके।

निग्रहित मन की शक्ति अपार हो जाती है। संकल्प बल में असीमित वृद्धि हो जाती है। जिसके बल पर कितनी ही बार एक स्थान पर बैठकर दूरवर्ती लोगों को प्रभावित किया जा सकता है। ट्रेड सीरियस द्वारा “थाँटफोटोग्राफी” एवं रूस द्वारा “मेण्टल वार” संभव कर पाना इसी आधार पर सम्भव हुआ है।

सामान्य जीवन में भी संकल्प शक्ति का कम महत्व नहीं है। विचार ही देर तक मस्तिष्क में जड़ जमाये रहने पर सुदृढ़ होते और कर्म स्वरूप में परिणत हो जाते हैं। थोड़े दिन उन कार्यों को करते रहा जाय तो वे ही स्वभाव बन जाते हैं और ऐसी आदत के रूप में परिपक्व होते हैं कि सहज ही छुड़ाए नहीं छूटते। वे अभ्यास कार्य अनायास ही होने लगते हैं, उनके लिए साथ सहयोगी मार्गदर्शक ही जहाँ-तहाँ से साधन भी अनायास ही जुटते रहते हैं। संकल्प बल एक अच्छी खासी सशक्त चुम्बक के समान है जो अपने अनुकूल व्यक्तियों तथा पदार्थों को खींच बुलाता है।

बड़ी-बड़ी खदानें इसी आधार पर बनती हैं, बढ़ती हैं कि जहाँ भी किसी पदार्थ की अधिक मात्रा जमा हुई कि उसका प्रभाव चुम्बकत्व उसी बिरादरी के अन्यान्य कणों को अपनी ओर खींचना आरम्भ कर देता है और खदान का परिमाण अनायास ही बढ़ता चला जाता है।

चेतना की प्रचंड शक्ति की चर्चा सब जगह होती है। शरीर जड़ पदार्थों का बना है। उसमें अपने निज की कोई क्षमता नहीं। यदि रही होती तो मरण के उपरान्त भी उसका अस्तित्व बना रहता। वस्तुतः प्रेरक सत्ता वह चेतना ही है जिसकी गतिविधियाँ विचारों एवं संकल्पों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं।

यही हमारा निर्देशक एवं मार्गदर्शक है। जिस स्तर की आकाँक्षाएँ भीतर उठतीं और लगातार चलते रहने पर परिपक्व होती हैं, वही मनुष्य का अंतराल बन जाता है। कार्यों और आदतों के साथ सम्मिश्रित होकर वही स्वभाव या संस्कार बनता है। इसी आधार पर भले-बुरे या अनगढ़ काम बन पड़ते हैं व परिस्थितियाँ सब ओर से सिमट कर उसी स्तर की जमा होने लगती है। परिस्थितियों के उत्थान पतन का निमित्त कारण माना जाता है, पर वास्तविकता यह है कि परिस्थितियाँ स्वतंत्र रूप से नहीं आ धमकती। उन्हें हमारी मनःस्थिति चुनती और जहाँ तहाँ से बटोरती है।

कहा जाता है कि जो होता है, विधि के विधान या भाग्य रेखा के अनुरूप होता है। यह देखना हो कि भाग्य कहाँ है और भवितव्यता का उल्लेख कहाँ मिलता है, तो उसे जन्म कुण्डलियों में नहीं वरन् मानवी अन्तराल में उठने वाले विचारों को देखकर किसी को अनुमान लगाना चाहिए। विचारों के बीज ही वृक्ष बनकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। यही मनुष्य का भाग्य निर्माण है, जिसे वह स्वयं ही करता है। विचार किस स्तर के अपनाए जाएँ, यह निर्णय मनुष्य अपनी इच्छानुसार ही करता है। किस तरह के अपनाये और किस स्तर के छोड़े जायें, यह भी मनुष्य की अपनी अभिरुचि के ऊपर ही निर्भर है। वह चाहे तो किन्हीं विचारों को अपनाये भी रह सकता है और जीवन भर अपनाये रह सकता है, पर यह भी पूरी तरह अपने हाथ की बात है कि अपनाये हुए कुविचारों को एक ही झटके में साहसपूर्वक परित्याग कर दिया जाय और नये उपयोगी विचारों का महत्व समझे एवं व्यवहार में उतारने का अभ्यास डालकर उन्हें जीवन का अंग बना लिया जाय। आदतों की टहनियों पर ही भलाई और बुराई के फूल या काँटे लगते हैं।

विचार न जाने कहाँ से हमारे मस्तिष्क में घुस पड़ते हैं, यह कथन किसी हद तक ठीक है। उपेक्षा बरतने और निरीक्षण परिशोधन न करने पर बुरी आदतें भी ‘बर्र’ के छत्ते की तरह घर बना लेती हैं और जब भी दाँव लगता है, डंक चुभाती रहती हैं। पर यह बात उन पर लागू नहीं होती जो फैशन-शृंगार को दर्पण में निहारते रहने की तरह अपने अंतराल की भी देखभाल करते रहते हैं और जहाँ कहीं भी जितना कुछ भी कूड़ा-करकट दीख पड़ता है उसे बिना आलस्य बरते तत्काल निकाल फेंकते हैं।

स्मरण रहे आत्मा ही हमारी शत्रु या मित्र है। यहाँ आत्मा से तात्पर्य उस विचार शृंखला से समझा जाना चाहिए जो धीरे-धीरे परिपक्व होती और व्यक्तित्व का स्तर ढालती रहती है। यदि मित्र का सघन साहचर्य हमें मिलता रहा, सतत् सत्संग होता रहा तो कभी कुविचार पनपने नहीं पायेंगे। सद्विचारों की बगिया अन्दर लहलहायेगी एवं इसका सत्परिणाम आकर्षक, प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आएगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118