आन्तरिक और आत्मिक प्रेम

September 1987

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श्रामवस्ती की असाधारण सुन्दरी थी- वासवदत्ता। इसे नगर वधू का पद मिला मध्यकाल में नगर की असाधारण रूप यौवन सम्पन्न महिलाओं को यह पद मिलता था वे आजीवन कुमारी रहती थी नृत्य गायन से वे सर्वसाधारण का विनोद करती थी। उन पर कोई एकाधिपत्य न जमा सके। उसे प्राप्त करने के लिए परस्पर सामन्तों में विग्रह न हो इस हेतु यह नियम निर्धारित किया गया था।

वासवदन्त के सौंदर्य पर अनेकों धनीमानी अपने को निछावर करते थे। उसकी एक मुस्कान के बले कुछ भी प्रस्तुत करने को तैयार रहते थे यह लोकाचार भी निभाती पर किसी के निकट संपर्क में न आती वह जानी थी यह सब त्रसना के कृमि कीटक है। सच्चा प्यार कर सकते हैं जैसी विकसित आत्मा तो इनमें है नहीं इसलिए उसने उन मधु लोभी भ्रमरों की सदा उपेक्षा की।

उन्हीं दिनों कुछ संघ के एक सौम्य तेजस्वी उपगुप्त थे वे भिक्षाटन के लिए उस मार्ग से प्रायः जाया करते जिसमें वासवदत्ता का महत्व पड़ता था उपगुप्त की उठती आयु थी उनका शील देखने योग्य था कभी सिर उठाकर ऊपर न देखते। लक्ष्म में उनकी असीम निष्ठा थी। इसलिए वे जिनके भी संपर्क में आते उन्हें गहरा प्यार करते साथ ही यथासंभव सेवा सहायता भी।

वासवदत्ता ऐसे ही किसी आदर्शवान् से प्यार करना चाहती थी। युवक साधु जब भी उस मार्ग से निकलता वह टकटकी लगाकर देखती रहती दरवाजे पर खड़ी रहती, प्रतीक्षा करती रहती और उनके निकल जाने के बाद उठकर भीतर जाती कुछ स्वाभाविक और गहरा प्रेम हो गया था।

एक दिन वासवदत्ता ने भिक्षु को अपने घर भिक्षा के लिए आमंत्रित किया। उसने भिक्षा ग्रहण की। जब चलने लगे तो उसने आँखों में आँसू भर कर कहा- “देव, क्या मेरा स्वर और शरीर भी स्वीकार कर सकेंगे”?

भिक्षु ने जमीन में गड़े नेत्रों को ऊपर उठाया। वात्सल्य भरी दृष्टि से देखा और कहा- “वासनात्मक स्नेह कर सकना तो मेरे लिए संभव नहीं पर तुम्हें कभी मेरी सेवा की जरूरत होगी तो मैं उपस्थित मिलूँगा।”

वासवदन्त मंत्र मुग्ध सी देखती रही साधु अपने मार्ग पर चले गये। भिक्षु ने उस मार्ग से जाना भी बंद कर दिया। नगरवधु भी निराश हो गई। मन मसोस लिया पर उसका समर्पण भाव क्षेत्र में ज्यों का त्यों बना रहा।

वर्षों बीत गये। वासवदन्त अधेड़ हो गई रूप यौवन भी ढहा गया। निछावर होने वाले समुदाय ने भी मुख मोड़ लिया इसी बीच दुर्भाग्य आ टपका। वासवदन्त को कोढ़ जैसी कोई बीमारी हो गई जिसके कारण कोई उसके पास तक न झांकता। सर्वथा एकाकी और छूत रोग से पीड़ित वासवदन्त के दिन काटने कठिन हो गये। मृत्यु के लिए प्रार्थना करती रहती।

उपगुप्त के मन में भी वासवदन्त की भावनाएं स्मृति पटल पर बनी रही समाचार मिला कि नगरवधू को असाभ्य छूत रोग ने घेर लिया है कोई उसके पास तक नहीं फटकता। असहाय दुखी जीवन जी रही है।?

उपगुप्त सीधे वासवदन्त के निवास पर पहुँचे। उसके अंग गल रहे थे। शरीर सूख कर काँटा हो गया था। उपगुप्त ने जाते ही उनका सेवा कार्य संभाल लिया और इस प्रकार जुट गये मानो उसके सगे संबंधी हों।

वासवदत्ता ने आँखों में आँसू भर कर कहा- देव। आप बहुत विलम्ब से आये। मेरे पास तो आपकी सेवा के लिए कुछ भी बचा नहीं। शरीर भी नहीं।”

उपगुप्त ने बस यही कहा- ‘देवि! आत्मा, आत्मा को प्यार करती और केवल सेवा को छूट देती है। शरीर का उसमें कोई न हस्तक्षेप होता है न योगदान।


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