आत्म पटल पर अंकित हो, परमतत्व! तेरी ही झाँकी

September 1987

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कुरूपता इस विश्व में किसी को भी प्रिय नहीं है। सुन्दर व्यक्ति की ओर ही नहीं वस्तुओं की ओर भी लोग खिंचे चले जाते हैं। प्रातःकाल बगीचे में जब फूल खिले हुए होते हैं तो वे कितने सुन्दर लगते हैं कि आंखें फेरने का जी भी नहीं करता, प्रकृति जहाँ सुरभित, पुष्पित और पल्लवित होती है, झरने झरते हैं, पक्षी कूकते हैं, वहाँ का दृश्य देखकर आत्म विभोर हो उठते हैं। सौंदर्य आत्मा की चिर-पिपासा है। सौंदर्य में ही जीव को आनन्द मिलता है। सुन्दर बनने की अभिलाषा भी आध्यात्मिक है। इसलिए इसे प्राप्त करना मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव ही है।

सौंदर्य की परिभाषा करते हुए प्रसिद्ध कवि कीट्स ने लिखा है- “सौंदर्य ही सत्य है और सत्य ही सौंदर्य है।” इससे यह स्पष्ट है कि सत्य स्वरूप परमात्मा का प्रकाश ही सौंदर्य के रूप में परिलक्षित होता है। अतः सौंदर्य की कामना मनुष्य की आत्मिक आवश्यकता है। परम सत्ता का अंतः पटल पर अंकित होना ही वास्तविक सौंदर्यवान बनना है। इस सौंदर्य के बिना जीवन का महत्व कुछ नहीं है। सत्य, शिव और सुन्दर ये सब परमात्मा के ही स्वरूप हैं इसलिए इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना परमात्मा को प्राप्त करने का ही तो प्रयास हुआ।

भूल यह है कि मनुष्य ने पदार्थ की संरचना को सौंदर्य मानकर उसका एक काल्पनिक ढाँचा बना कर रक्खा है। परमात्मा अनित्य और सर्वकालिक है इसलिए बदलते रहने वाले स्वरूप को सौंदर्य नहीं मानेंगे। स्वरूप में प्राण की आकर्षक स्थिति का नाम ही सौंदर्य है। सौंदर्य सत्य है इसलिए वह भौतिक नहीं हो सकता, अपवित्र नहीं हो सकता। विचारणीय है कि आज जो सौंदर्य की परिभाषा की जा रही है क्या इसमें भी कुछ सत्यता है?

“आत्मकथा” में महात्मा गाँधी जी ने लिखा है- “वास्तविक सौंदर्य हृदय की पवित्रता में है। बाह्य बनावट और प्रदर्शन से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह जो रूप की सजावट, वेष विन्यास में विचित्रता का प्रसार बढ़ रहा है यह आँतरिक सौंदर्य को छलता है, इससे बचना चाहिए। मनीषी डॉ. वाल्श का भी मत ऐसा ही है। वे लिखते हैं- “सुन्दरता का सद्गुणों के साथ संयोग होना, हृदय का स्वर्ग है। यदि उसके साथ दुर्गुण हैं तो वह नरक के समान है। मूर्ख लोग सौंदर्य के बाह्य स्वरूप की पूजा करते हैं इसलिए वे निन्दा के पात्र बनते हैं।”

मनीषियों का निर्देश है कि आप खुलकर काम कीजिए। बंधे-बंधे से न रहिए, अपने हाथ-पाँवों को थोड़ा इधर-उधर हिलाइये-डुलाइये। आपका रक्त संचालन ठीक रहेगा, नाड़ियाँ ठीक काम करेंगी, शरीर साफ रहेगा तो आपके शरीर में प्राण और ओज रहेगा। प्राणवान व्यक्ति काले-कलूटे होने पर भी बड़े मोहक लगते हैं। बाहरी बनावट से थोड़ी देर के लिए भले ही प्रसन्न हो सकें, अन्ततः कोई लाभ न निकलेगा। उद्विग्नतायें ही परेशान करती रहेंगी। फारसी कहावत है- “ह्जयते मश्शाता नेस्त रुम दिलाराम रा।” अर्थात् सौंदर्य को सजावट की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही सौंदर्य को प्राप्त करने का प्रयास करें तो हम सच्चे सौंदर्य पारखी माने जायेंगे।

स्वस्थ स्वभाव से सौंदर्य मिलता है। मानसिक कमजोरियाँ ही कुरूपता का कारण हैं। भली आदतों का सम्बन्ध मनुष्य की मानसिक शुद्धता से है, मानसिक चेष्टायें सत्कर्मों में आनन्द लेती रहती हैं तो शरीर और मन की शक्तियाँ प्रखर बनी रहती हैं। इससे अपनी सुन्दरता भी अक्षुण्ण रहती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि शक्तियों का संचय ही सौंदर्यवान होने का लक्षण है। दीन-दुर्बल और मानसिक उत्तेजनाओं में घिरे रहने वाले व्यक्तियों की न तो बाहरी सुन्दरता स्थिर रहेगी और न आँतरिक ही।

सुन्दरता, आपकी प्रसन्नता, मुस्कराहट, उत्तम स्वास्थ्य, आशा युक्त निश्चित जीवन, हर्ष और उल्लास में छिपी हुई है। अपने जीवन को मनहूस बनाना, साधनों वस्तुओं के लिए बुरी तरह रोते-झोंकते रहना बड़ा बुरा लगता है, ऐसे लोगों के पास किसी भी मनुष्य का बैठने का जी नहीं करता। हंस-मुख व्यक्तियों को लोग हर वक्त घेरे रहते हैं क्योंकि उनके जीवन में उल्लास होता है। ऐसे भावों की स्थिरता सुन्दर बनने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। तनावपूर्ण मानसिक स्थिति एक प्रकार का विकार है जिससे सौंदर्य-युक्त चेहरों पर भी उदासी छाई रहती है। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, घृणा, चिंता, उत्तेजना आदि से मनुष्य का व्यक्तित्व अनाकर्षक बनता है, इससे मनुष्य का आँतरिक सौंदर्य नष्ट हो जाता है। इनसे दूर ही रहना चाहिए।

सौंदर्य महानता का चिन्ह है। हिन्दुओं के देवी-देवताओं के मुख पर एक प्रकार का प्रकाश दर्शाया जाता है, इसे “तेजोवलय” कहते हैं। दूसरी संस्कृतियों में भी इसी तरह के मुख मंडल चित्रित किये जाते हैं और वह तेज तथा शक्ति के रूप में महापुरुषों में विद्यमान होता है। उसकी ओजस्विता, मृदुता और दया भाव से इस सौंदर्य का आभास होता है। वैसी ही विचारणायें अपना कर हम भी अपनी तेजस्विता जागृत करें तो सौंदर्य का संतोष हम भी प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य की गति सुन्दर वस्तुओं से सुन्दर भावनाओं की ओर, सुन्दर मनोभावों से सुन्दर जीवन की ओर होती है। जीवन की सुन्दरता ही पूर्ण सौंदर्य के दर्शन कराने में समर्थ होती है।

सुन्दर गतिविधियों का तात्पर्य मनुष्य की सरलता से है। उसकी निश्छलता, सरसता, गुण- ग्राहकता और मधुरता पर लोगों का अंतःकरण बरबस ही आकर्षित हो जाता है। खूबसूरत डाकू के मुख पर जो आतंक का भाव छाया रहता है उससे लोग भयभीत हो जाते हैं, इस सौंदर्य की कुटिलता मानकर लोग पास भी नहीं जाते। कामुकता भी इसी तरह सौंदर्य का महान दुर्गुण है। आकर्षक व्यक्तित्व तो शील और सद्गुणों के प्रकाश से बनता है। प्रेम में, दया और ईमानदारी में जो सुन्दरता भरी है लोग उसी से प्रभावित होते हैं। नकली चेहरे सजाकर बच्चों का मनोरंजन करने से अधिक लाभ नहीं हो सकता। शील स्वभाव में वह चुम्बकत्व होता है जो सभी के दिलों को मोह लेता है। भलमनसाहत लोगों को प्रिय लगती है। इन्हें ही सौंदर्य के उपकरण मान सकते हैं।

प्रेम-भावनाओं का सौंदर्य बड़ा आकर्षक है। ऋषियों के आश्रमों में प्रेम और आत्मीयता के प्रबल संकल्प गूँजा करते थे। इसी कारण वन्य पशु भी निर्भय होकर वहाँ विचरण करते थे। ऋषियों के बालक स्वच्छन्दता-पूर्वक हिंसक पशुओं से खेला करते थे और उनसे मैत्री स्थापित कर लेते थे। आँतरिक सौंदर्य की आभा बोलती थी, वहाँ, इसी से आकर्षित होकर जीव-जंतु भी वहाँ रहना अधिक पसन्द किया करते थे।

डॉ. ड्रिसडेन का यह कथन नितान्त सत्य है- “जब सौंदर्य रक्त में उबाल पैदा करता है तब प्रेम मस्तिष्क को बहुत ऊँचा उठा देता है।” सौंदर्य भेदभाव की कटुता का बहिष्कार करता है। इसी एक सार्वभौमिक सत्य पर इस संसार की व्यवस्था अनेक युगों से चलती चली आ रही है और जब तक सौंदर्य का एक भी कण इस धरती पर जीवित रहेगा, यह क्रम निरन्तर इसी तरह चलता रहेगा। सृजन की इस शक्ति को बनाये रखने के लिये प्रेम, दया, सेवा, उदारता, सहयोग, करुणा, स्वच्छता आदि दैवी गुणों का अभ्यास बनाये रखना होगा।

दुष्टता, मलिनता, अस्वच्छता और मानसिक दुर्भावनाओं के कारण जो अपनी शक्तियों का ह्रास करते हैं। वे अपनी कुरूपता बढ़ाते हैं। धन और सम्पत्ति के अभाव में भी यदि अपने सद्गुणों को विकसित रखा जाय तो अपनी मोहक शक्ति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। धनवान होना सौंदर्य का लक्षण नहीं, शरीर की सजावट में भी आकर्षण नहीं है। जो वस्तुएं बलात् अपनी ओर खींच लेती है वह हैं व्यक्ति की सद्भावनायें। आँतरिक निर्मलता पल में दूसरों को मोह लेती है, लोग पीछे- पीछे दौड़े चले आते हैं।

सुन्दर बनने के लिए बाहरी साधन जरूरी नहीं है। यह भ्रान्त धारणा है कि अधिक बनाव, शृंगार करेंगे तो अधिक लोग आकर्षित होंगे। अपने मस्तिष्क से निकालकर अपने अंतःकरण के सौंदर्य को खोजने का प्रयत्न कीजिए। आपकी प्रसन्नता में आपके सुखद विचारों में सुन्दरता भरी हुई है उसे जागृत कीजिए। सच्चा सौंदर्य मनुष्य के सद्गुणों में है। हम गुणवान बनें, तेजस्वी बनें तो सौंदर्य हमारा साथ कभी न छोड़ेगा।


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