मौलवी साहब के दो बच्चे थे। उन्हें वे बहुत प्यार करते। भोजन उन्हें साथ ही कराते। नित्य कर्म के बाद मौलवी साहब किताब पढ़ाने गये। अकस्मात् दोनों बच्चे बीमार पड़े और तीसरे पहर तक स्वर्ग सिधार गये।
बच्चों की माँ सोचने लगी पिता लौटेंगे, तो वे ऐसा सदमा बर्दाश्त न कर सकेंगे। बाद में उन्हें समझाने की अपेक्षा ऐसा करना चाहिए कि आरम्भ में ही उनका विवेक जग जाय और सदमा हल्का पड़े।
मौलवी साहब के घर लौटने से पहले ही बच्चों की लाश घर में लिटाकर ऊपर से कपड़ा ढक दिया, जब वे लौटे और बच्चे न होने की बाबत पूछा- तो जवाब मिला वे अभी अभी खा पी कर खेलने चले गये हैं देर से लौटेंगे। आप भोजन कर लीजिए।
जब वे खाना खाने लगे तो उनकी पत्नी ने अपनी एक गुत्थी का हल पूछा- बोलीं कुछ दिन हुए पड़ोसिन से दो जेवर माँग लाई थी। बहुत दिन पहने सो अच्छे लग गये। आज वह आई थी और जेवर वापस माँग रही थी। मेरा मन तो देने का नहीं है क्या करूं?
मौलवी साहब ने बदलकर कहा- माँगी वस्तु वापस करनी चाहिए। इतने दिन तक जेवर पहन लिये, इसी पर संतोष करो और दूसरे की अमानत खुशी-खुशी वापस कर दो।
भोजन कर चुके तो मौलवी जी को उनकी पत्नी घर में भीतर ले गई जहाँ बच्चे मरे हुए पड़े थे। वे सन्न रह गये। बच्चों की माता ने कहा- यही थे वे माँगे हुए जेवर जिनके संबंध में आपने कहा था- खुशी-खुशी वापस करो।
मौलवी साहब ने सदमे को विवेक पूर्वक सहा और ईश्वर की इच्छा समझकर मन समझा लिया।