आसक्ति से मुक्ति

September 1987

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एक दिन की घटना है। सिन्धु सौवीर प्रदेश के राजा रहूगणा महर्षि कपिल का सत्संग करने के लिए शिविका में बैठकर जा रहे थे। रास्ते में एक कहार बीमार पड़ गया, संयोग से उसी स्थान पर जड़ भरत विचरण करते दिखाई दिये। वेश विन्यास देखकर उन्हें महर्षि तो क्या कोई ब्राह्मण भी नहीं समझ सकता था। शरीर से हृष्ट-पुष्ट और मुद्रा से प्रसन्न सरल भारत को भारवाहकों ने कोई चरवाहा समझा और उन्हें पकड़ कर सौवीर नरेश की पालकी उठाने में बीमार साथी के स्थान पर लगा दिया। स्वभाव से ही “न” करना नहीं जानने वाले महर्षि भरत ने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया और रुग्ण व्यक्ति के स्थान पर स्वयं आ गये।

उन्हें इस कार्य का अभ्यास तो था नहीं, इसलिये वे अय भारवाहकों की तरह उनके साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात का ध्यान रहता था कि धरती पर रंगने या चलने वाला कोई जीव पैरों से कुचल कर न मर जाये। इस सतर्कता और अभ्यस्त होने के कारण उनके पैर बार-बार लड़खड़ा जाते।

जब तीन चार बार ऐसा हुआ तो राजा रहूगणा ने बाहर देखा एवं क्रोध से बिफर कर बोल उठे, “क्या बात है मूर्ख? तुम्हें ठीक से चलना नहीं आता या तुम्हें वार्धक्य ने आ घेरा है?”

मौन तोड़कर भरत ने कहा, “राजन! आपकी पिछली बात मैंने सुखी थी और उसका आशय भी समझा था। मुझे ज्ञात है कि बोझा ठीक से ढोने के लिये होता है और उसे ठीक से ढोना चाहिये। पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि आदमी आदमी के ऊपर ही बोझ क्यों बने?”

राजा को इस उत्तर की आशा नहीं थी। पालकी से उतरकर वे बोले “दुष्ट! तेरी यह धृष्टता। किस से किस तरह व्यवहार करना चाहिए वह भी तुझे नहीं आता। ठहर मैं अभी तुझे मार कर किये का मजा चखाता हूँ।”

इस पर भी जड़ भरत अविचलित भव से चुपचाप खड़े राजा की मुद्रा को सदय भाव से देख रहे थे। राजा ने फिर पूछा- “तुझे अपनी भूल का कोई पछतावा नहीं?”

“भूल”! भरत ने कहा- “भूल तो राजन मैंने भी की है और आपने भी। इस भूल के कारण ही हमें इस संसार में पुनः आना पड़ा। पर मेरी भूल बड़ी थी कि मैं जानबूझ कर मोह में पड़ा।”?

राजा ने समझा शायद यह पागल है और ऐसे प्रलाप कर रहा है। अब दण्ड उन्हें मिलेगा यही सोचकर शेष भारवाहक भय से काँपने लगे।

क्रोध के कारण लाल अंगारे हुई आँखों को देखकर भरत और भी सदय हो उठे, “राजन! इन लोगों का कोई दोष नहीं है। आप दंड तो मुझे देने वाले थे। मुझे ही दीजिये न।”

यह कहते-कहते भरत के मुख मण्डल पर सौवीर नरेश को एक तेजस्विता दिखाई देने लगी। जड़ भरत कहे जा रहे थे, “शरीर से आत्मा का क्या वास्ता? भूख, प्यास, क्रोध, अभिमान, क्षीणता, हीनता, उसके लिये है जो इन्द्रियों के स्वाद में लीन है, देहासक्ति में डूबा हुआ था और आसक्ति का देश मुझे एक बार हो चुका है, इसलिये आप निःशंक निःसंकोच दंड दीजिये।”

महर्षि भरत के तत्वज्ञान के पश्चाताप से दग्ध राजन को पूरी तरह पराभूत कर दिया और वे पैरों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। पूर्णतः अविचल भवन से भरत सौवीर नरेश के क्षण-क्षण बदलते रूप को देख रहे थे।

विनम्र भाव से ऋषि बोले- ‘अपराध तो तब होता राजन! जब आप के किये से मुझे वेदना या पीड़ा होती। मुझे तो ऐसा कुछ भी आभास नहीं हुआ, फिर आपको कैसे दोषी मानूँ और प्रायश्चित या क्षमा का विधान करने वाला मैं कौन होता हूँ।”

सौवीर नरेश ने अपनी यात्रा वहीं स्थगित कर दी और महर्षि जड़ भरत के चरणों में बैठ कर ही ब्रह्म विधा का ज्ञान प्राप्त किया। महर्षि भारत ने कहा- “राजन! आसक्ति ही सब दुःखों की जननी है यहाँ तक कि वही पुनः जन्म लेने के लिये बाध्य करती है। आसक्ति वश ही मेरे जैसे योगी को मृगयोनि में जम लेना पड़ा था।

“मनुष्य को चाहिए कि कुल वंश और पद तो क्या इस शरीर से आसक्ति न करे। अनासक्त रहकर कर्तव्य कर्म का आचरण करने से ही मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।”

राजा तत्व ज्ञान का उपदेश सुनकर धन्य हुए और पश्चाताप स्वरूप अपना शेष जीवन लोक मंगल के लिये समर्पित करते हेतु ब्रह्मर्षि भरत के निर्देश पर नियोजित कर दिया।


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