आस्तिकता विवेकवानों को ही फलती है!

September 1987

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आस्तिकता मानव जीव में समाहित उत्कृष्टताओं का मापदण्ड है। सर्वव्यापी परमेश्वर हमारे गुप्त प्रकट सभी कृत्यों को जानता है और तद्नुसार भला-बुरा कर्मफल प्रदान करता है। इस मान्यता के आधार पर ही हमारी नीतिमत्ता सुरक्षित रहती है। नास्तिक निरंकुश होता है। उसे उद्दंडता अपनाने में दैवी अनुशासन का भय नहीं रहता। तत्काल फल न मिलने पर वह इतनी दूरदर्शिता नहीं अपना पाता कि यहाँ देर है अन्धेर नहीं। जिसे कर्म-फल पर विश्वास होगा पाप से डरेगा और पुण्य परमार्थ के संचय में निरत रहेगा। यही है सर्वतोमुखी प्रगति और सुनिश्चित सुख शान्ति का मार्ग।

परब्रह्म को सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। दूसरों शब्दों में वह उत्कृष्ट, आदर्शवादी भी है। ईश्वर उपासना का तात्पर्य है- उसी के ढाँचे में अपने गुण, कर्म, स्वभाव को ढालना। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखना। सज्जनोचित सदाशयता से अपने आपे को ओत-प्रोत करना। आस्तिकता की यही अवधारणा वास्तविक है और श्रेयस्कर भी। जहाँ वह रहेगी वहाँ आध्यात्मिकता भी आत्मावलम्बन के रूप में रहेंगी और व्यवहार में धार्मिकता, कर्तव्य परायणता के रूप में दृष्टिगोचर होती रहेंगी।

सच्ची आस्तिकता में साधक परमेश्वर को आत्म समर्पण करता है। उसके अनुशासन में चेतना है, अपनी रीति-नीति ऐसी बनाता है जो ईश्वर भक्त को शोभा देती है। नाला अपने आपको जब नदी में मिलाता है तो उसी के प्रवाह में, उसी के अनुरूप बहता है। ईंधन जब अग्नि को समर्पित होता है तो अपने में आग के सारे गुण समाविष्ट कर लेता है। समर्पण ही ईश्वर भक्ति है। उसमें कामना के लिए याचना के लिए कोई गुँजाइश नहीं रहती। केवल उसी की इच्छा को समझाने, अपनाने के लिए तैयार करना पड़ता है। दृष्टिकोण में ऐसा बदलाव लाना पड़ता है कि कामनाएँ, तृष्णाएँ, महत्वाकाँक्षाएँ शेष न रहें, केवल प्रभु की इच्छा बना लेने कायाकल्प जैसा सर्वतोमुखी परिष्कृत प्रयास चल पड़े। इसकी सीधी परिणति होती है- चिन्तन में, चरित्र में, व्यवहार में आदर्शवादी उत्कृष्टता का समावेश। जीवन-क्रम में जितनी शालीनता भर चले तो समझना चाहिए कि उससे उतनी ही सार्थक भक्ति भावना सध नहीं है।

देखा जाता है कि तथाकथित भक्तजन तथ्यों के सर्वथा विपरीत मानस बनाये रहते हैं और प्रतिकूल आचरण से व्यक्तित्व को भरे रहते हैं। देवताओं को जिन-तिस कर्मकाण्ड के सहारे अपना गुलाम बनाने की चेष्टा करते हैं और उनसे उचित अनुचित मनोरथ पूरे कर लेने की मनौती मनाते रहते हैं। इसी प्रयोजन के लिए छुट-पुट भेंट-पूजाएँ चढ़ाते और स्तवन के रूप में वे प्रशंसा के पुल बाँधते हैं। यह समूचे आडम्बर एक ही प्रयोजन के लिए होते हैं कि मनोकामनाएँ पूरी होने लगें। संकट टलते रहें और प्रतिकूलताओं का अनुकूलता के रूप में परिवर्तन बन पड़े, वातावरण बदले। परिस्थितियाँ अनुरूप अनुकूल ढलें।

इसे कहते हैं थोड़ा देकर बहुत पाने का व्यवसाय। समझना चाहिए कि चिड़ियों और मछलियों को जरा से चारे का लोभ दिखाकर जाल में फंसाया और उनका मलीदा बनाया जाता है। देवताओं की पूजा पत्री करते समय भी यही रीति-नीति अपनायी जाती है। उनसे मनचाहा माँगने और हठपूर्वक पूरा कराने का आग्रह रहता है। जिसकी पात्रता नहीं है उसके लिए भी अनुग्रह माँगा जाता है जो न्यायोचित नहीं है, उसे भी देने के लिए कहा जाता है। यह विचार नहीं किया जाता कि देवता को भी उचित अनुचित का न्याय अन्याय का विचार करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। वे तनिक-सी पूजा सामग्री के लोभ में औचित्य को तिलाँजलि देते रहें और जो माँगा गया है उसे देते रहें तो फिर पात्रता विकसित करने की किसी को क्या आवश्यकता रहेगी? फिर ‘सब धान बाईस पसेरी’ के भाव बिकेगा। जो भी पूजा का प्रलोभन दिखायेगा। जो भी प्रशंसा के पुल बाँधेगा-वह भक्त कहलायेगा। जो माँगे सो पावे की रीति चल पड़ी तो फिर पात्र कुपात्र का-खोटे खरे का-विचार करने की क्या आवश्यकता रह जायेगी? कर्मफल का सिद्धान्त कहाँ जीवित रहेगा? परिश्रम के प्रयास पात्रता के अनुरूप पाने का सिद्धान्त तो समाप्त हो जायेगा। रिश्वत का ही बोलबाला चल पड़ेगा। लोक व्यवहार में तो लाभाँश का एक बड़ा भाग रिश्वत में देना पड़ता है। पर देवताओं को तो थोड़े से में ही फुसलाया जा सकता है। उनके लिए तो अक्षत, पुष्प जैसी पाई पैसे की रिश्वत ही पर्याप्त समझी जाती है। चापलूस, झूँठी प्रशंसा के पुल बाँधते और भोले लोगों को मूर्ख बनाकर उनकी जेब काटते हैं। देवताओं को ऐसी ही बाल-बुद्धि का समझा जाय और उन्हें झुनझुना, गुब्बारा देकर फुसलाने का जुगाड़ बिठाया जाय तो इसे अनहोनी बनाकर दिखाने का बाजीगर ही समझा जायेगा। तथाकथित भक्त लोग ऐसी ही तिकड़म भिड़ाते हैं और देवताओं को रिश्वती, खुशामदखोर, अविवेकी रूप से बदनाम करते हैं।

विचारणीय है कि क्या ‘अंधेर नगरी बेबूझ राजा’ की लोकोक्ति भक्त और भगवान के प्रसंग में चरितार्थ होती रह सकती है क्या पात्रता का सिद्धान्त सर्वथा उपेक्षित हो सकता है? क्या प्रयास पुरुषार्थ का कर्मफल वाला अनुशासन निरस्त किया जा सकता है? क्या पूजा पाठ का अर्थ योग्यता और प्रयत्नशीलता की आवश्यकता को समाप्त करना है? क्या याचक और दाता दोनों को औचित्य की सीमा लाँघना है? क्या ऐसा करके वे दोनों ही अपनी गरिमा गिराते नहीं है?

ऐसी पूजा−पत्री फलदायक सिद्ध नहीं हो सकती, जिसमें मुफ्त ही मनोकामना पूर्ण करने कराने की रीति-नीति जुड़ी हुई है। चाहने पर भी ऐसा नहीं है। मुफ्तखोरों की झोली मणि-माणिकों से भरती नहीं है। असम्भव को सम्भव बनाने के प्रयासों में कहाँ, कब, कितनी सफलता मिलती है। यदि पूजा मात्र से मनोरथ सिद्ध हुए होते तो पुजारियों के पौ बारह रहते। उनके घर सोने, चाँदी से बने होते। कर्मकाण्डी पंडितों को कुबेर जैसा धनी और इन्द्र जैसा समर्थ देखा जाता। उन्हें तो सभी देवताओं के जंत्र-मंत्र आते हैं। भगवान को रिझाने के लिए विविध-विधि कीर्तन कौतुक करने कराने वालों की एक भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती।

भक्ति का उद्देश्य अपने आपको देवता के प्रति देवत्व के प्रति समर्पित करना है। मनुष्य में देवत्व का उत्पादन, अभिवर्धन प्रत्यक्षीकरण करता है। इसी प्रकार भजन पूजन बन पड़ता है और उसका प्रयोजन पूरा होता है। प्रामाणिकता, पवित्रता, प्रखरता और उदार सेवा भावना के आधार पर देवता प्रसन्न होते, अनुग्रह करते और वरदान देते देखे जाते हैं। यही यथार्थता है। पर जो लोग वास्तविकता में आंखें मूँद लेते हैं और चतुरता भरी तिकड़म भिड़ाकर सस्ते प्रलोभन के बले बहुमूल्य वरदान पाना चाहते हैं उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। पूजा के छद्म में जो समय श्रम लगता है वह बेकार चला जाता है। उपचारों में नियोजित किये गये साधन भी निरर्थक चले जाते हैं।

आस्तिकता कृषि कर्म जैसी, उद्यान आरोपण जैसी प्रत्यक्ष फलदायिनी पुण्य प्रक्रिया है। उस हेतु जो बोया जाता है वह सहस्र गुना होकर फलता है, किन्तु आवश्यकता इस बात की भी है कि उसमें खाद पानी की कमी न पड़ने दी जाय। आध्यात्मिकता, आत्म-परिष्कृति खाद है, धार्मिकता, कर्तव्य परायणता पानी। जो इन दोनों की व्यवस्था नहीं करते और देव अनुग्रह का प्रतिफल पाना चाहते हैं, उन्हें अविवेकी ही कहा जायेगा। बुद्धिहीन भी।


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