दमन अपने आपे का

September 1987

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धर्म लक्षणों की गणना में तीसरा सोपान “दम” का आता है। दम का अर्थ है, दमन। दमन किसका? अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्र में संव्याप्त अवाँछनीयताओं का।

विषय अध्यात्मिक का होने से यहाँ सर्वप्रथम अपने अन्तरंग क्षेत्र को प्रधानता देनी होगी और देखना होगा कि अपने भीतर कितना किस प्रकार का कूड़ा करकट किस-किस दुष्प्रवृत्ति के रूप में वहाँ जम गया है। अनुपयुक्तता अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जिस रूप में भी जम गई हो वहाँ से उसे बुहार बाहर किया जाय। कुछ घटक ऐसे होते हैं जिन्हें बुहारने भर से काम नहीं चलता, वरन् उसे किसी गड्ढे में दबा दिया जाता है, जिससे वहाँ गढ़ा रह कर खाद बनने लगे। यह दबा देना भी दम है। इसके अतिरिक्त दबोच देना भी दम है। घर में रहने वाले, बिच्छू, साँप, कनखजूरे, बर्र, ततैये आदि को निरस्त ही करना पड़ता है। सिर में रहने वाले जुएँ और पलंग के छिद्रों में बैठे खटमलों को दबोचे बिना काम नहीं चलता। न दबोचा जाय तो वे अपने ऊपर हावी होते हैं, और जीना दूभर करते हैं। मक्खी, मच्छरों को पालते तो नहीं रहा जा सकता, गली में शौचालय में उत्पन्न होने वाले कृमि कीटकों को फिनायल, चूना आदि छिड़क कर निरस्त ही करना पड़ता है। अवाँछनीयता को निरस्त करना दबाना भी धर्म का ही एक अंग है। अनुचित बढ़ेगा तो चुप नहीं बैठा रहेगा, जो उचित है उसे प्रसेगा। फसल के कीड़ों से न निपटा जाय तो उगाये अन्न को पक कर घर तक पहुँचने से पहले ही समाप्त कर देंगे। इसलिए अवाँछनीयता के विरुद्ध संघर्ष को उचित माना गया है और उसे कई बार तो सराहा भी गया है।

मनुष्य स्वभाव में विलासिता, चटोरपन, असंयम, आलस्य आदि अनेकों दुर्गुणों की घुस-पैठ हो जाती है। आवेश में आने और कटुवचन बोलते रहने की भी आदत पड़ जाती है। फिजूल खर्च और कुकल्पनाएँ भी कम हानिकारक नहीं है। नशेबाजी स्वभाव का अंग बन जाने से छूटने का नाम नहीं लेती और छुड़ाने पर विद्रोह खड़ा करती है। क्या इन्हें इसी रूप में सहन करते रहा जाय? क्या उनके विरुद्ध कोई कदम न उठाया जाय? कोई संघर्ष न छेड़ा जाय?

कहा गया है मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए पाता है। उसके साथ अनेक निष्कृष्ट योनियों के स्वभाव जुड़े आते हैं और वह जन्म-जात रूप में कुसंस्कारों के भण्डार के रूप में होता है। उस अनगढ़ स्थिति को नर पशु या शूद्र कहा गया है। मानवी गरिमा के अपने उत्तरदायित्व और अनुशासन हैं। वे सीखने और सिखाने पड़ते हैं। बोलना किसी को जन्म से नहीं आता, जो उच्चारण सुनता है, उसका अर्थ और क्रम समझते-समझते स्वयं भी बोलने लगता है। लिखना, पढ़ना माँ के पेट से सीखकर नहीं आता। अक्षर ज्ञान और शब्दकोष स्कूल की रगड़ाई जैसी पढ़ाई से ही सीखी जाती है। कला कौशल भी सीखे सिखाये जाते हैं। यह आशा करना व्यर्थ है कि सत्प्रवृत्तियों की विभूतियाँ अनायास ही उग पड़ेंगी। हेय वातावरण में पले बालक तो प्रायः कुसंस्कारी ही पाये जाते हैं।

अपने नाक, कान, आँख, पीठ, कंठ, तालु, दाँत तक को हम स्वयं नहीं देख सकते तो दुर्गुणों को किस प्रकार देख पायेंगे। इन कमियों को विचारशील गुरुजन बताते हैं और मनुष्य तथा पशु के स्तर का अन्तर समझाते हुए यह बताते हैं कि यह करने योग्य है, यह नहीं। यह छोड़ने योग्य है और यह बढ़ाने योग्य। इस सुधार परिष्कार प्रक्रिया के आधार पर ही व्यक्तित्व निखरता है और व्यक्ति पशु से मनुष्य बनता है। इस प्रक्रिया को न अपनाया जाय तो मनुष्य भी वनमानुष की तरह पुत्री, भगिनी या माता से सन्तानोत्पादन करने लगेंगे। निर्वस्त्र घूमेंगे और मल-मूत्र त्यागने के उपरान्त सफाई करने की आवश्यकता न समझेंगे।

जन्मजात रूप से हर मनुष्य इसी कुसंस्कारी स्थिति में उत्पन्न होता है। उसे शालीनता, शिष्टता अभिभावकों और गुरुजनों से सीखनी पड़ती है। लोक व्यवहार के प्रभावों से भी बहुत कुछ सीखा समझा जाता है। क्या उचित है क्या अनुचित इसे दूसरे बता सकते हैं। स्वाध्याय और सत्परामर्श से भी यह जाना जा सकता है। पर वह सुधार परिवर्तन करना स्वयं ही पड़ेगा। हम आहार निद्रा, शिक्षा, मल-मूत्र त्याग आदि कार्य स्वयं अपने बलबूते ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार सुसंस्कारिता संवर्धन भी स्वयं ही करना पड़ता है। दूसरे रास्ता बता सकते हैं, पर अपने के बदले वे चल नहीं सकते। चलना तो अपने पैरों द्वारा बन पड़ेगा। साथ ही आत्म-परिष्कार भी होगा।

मन और इन्द्रियाँ इतने प्रकार की ललकें इतनी भीतर संजोये हुए हैं, जिनका कोई अन्त नहीं। महत्वाकाँक्षाओं की कोई सीमा नहीं। आवश्यकताएँ तो पूरी की जाती हैं, पर तृष्णायें तो ऐसी आग हैं, जिनमें ईंधन डालते चलने पर वह अधिकाधिक प्रज्वलित ही होती जायेगी। मन न जाने कितना बड़प्पन और वैभव चाहता है। इन्द्रियों की ललक है कि जितने विलासी उपभोग इस दुनिया में हैं वे सभी अपने को उपलब्ध हो जाय। अहंकार इतना उद्धत है कि वह रावण की तरह देवताओं तक को नीचा दिखाना और पाटी से बाँध कर रखना चाहता है। यही तीनों वासना, तृष्णा और अहंता की दुष्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो उन्मादी पर चढ़े भूत की तरह हर घड़ी छाई रहती है और अनुशासन ढीला पड़ते ही वह कर-गुजरती है जो नहीं ही किया जाना चाहिए था।

अन्तरंग में विचारणाएँ जमती हैं और शरीर को आदतें अपना वशवर्ती बनाकर कठपुतली की तरह नचाती है। बेचारा विवेक, न्याय और औचित्य तो किसी कोने में ही पड़ा सड़ता रहता है। उनकी कोई खैर खबर तक नहीं लेता। इस दयनीय दुर्दशा में अपने-अपने को उबारने के लिए जो आक्रोश एवं साहस भरे प्रयत्न किये जाते हैं, उन्हें ही दम कहते हैं। जिस प्रकार हिंस्र जन्तुओं का, आततायी तस्करों का दमन किया जाता है, उसी प्रकार अपनी भीतरी और बाहरी दुष्प्रवृत्तियों से लड़ा जाना चाहिए और उन्हें उल्टी से उलट कर सीधा किया जाना चाहिए।

आत्म परिशोधन सबसे अधिक सरल भी है और सबसे अधिक कठिन भी। सरल इस बात में कि हम जब पशुओं, परिजनों, नौकरों से मनमर्जी का काम करा सकते हैं तो अपने आप को गलत दिशा में मोड़ मरोड़ कर सीधे रास्ते चल पड़ना क्यों दुस्तर होना चाहिए। कठिन इसलिए है कि आदतें विषाणुओं की तरह नस-नस में कण-कण में, चिन्तन-चरित्र और व्यवहार में इस प्रकार जड़ें जमा लेती हैं जिन्हें सहज ही छुड़ा सकना कठिन पड़ता है। चिपकी हुई जोंक पेट भर कर खून पी लेने पर ही छूटती है। भले ही खींचने पर वह टूट क्यों न जाय। दुष्प्रवृत्तियों का बुरी आदतों का स्वरूप भी प्रायः ऐसा ही है। समझाने बुझाने से तो वे मानती भी नहीं उनके लिए तब तितीक्षा स्तर का कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती है और अपने अन्दर वाले भगवान और शैतान के बीच खड़े किये गये इस महाभारत में स्वयं दर्शक मात्र न रहकर अर्जुन की तरह गाण्डीव सधाने की और हस्त की प्रकृष्टता अपनानी पड़ती है जिसे सारा मैदान तीरों से तापे दिया जाय।

सपेरा हर समय साँप को पालते, खिलाते हुए भी उसकी हरकतों पर पूरा ध्यान रखता है अन्यथा उसे जान से हाथ धोना पड़ सकता है। शेरों से सरकस में मनमाने काम कराने वाले रिंग-मास्टर कितने कौशल और साहस का परिचय देते हैं। ठीक ऐसा ही पराक्रम अपने को पशु-स्तर से परिवर्तित करके सुसंस्कारी मनुष्य स्तर का देवोपम बनाना पड़ता है। इस तीखी मीठी सुधार और दुलार की उभय-पक्षीय प्रक्रिया का नाम ‘दम’ है। अन्य किसी को दबाना भले ही विचारणीय हो पर अपना दमन प्रशिक्षण परिवर्तन तो करना ही चाहिए।


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