आत्मिकी का अवलम्बन एवं उसके प्रतिफल

September 1987

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यह विशाल ब्रह्मांड, असीम और अनन्त शक्तियाँ का महान भाण्डागार है। इस विशालता के महासागर में कितने प्रचुर परिमाण में दिव्यता, विचित्रता एवं क्षमता भरी पड़ी है, इसकी मनुष्य को सीमित बुद्धि परिकल्पना तक नहीं कर सकती।

ब्रह्मांड की विशालता को देखते हुए अपनी आकाश गंगा, अपना सौरमण्डल और उसके अत्यंत छोटे भाग को घेरे हुए भू-मंडल का अस्तित्व नगण्य है। धरती पर बसने वाले कोटानुकोटि प्राणियों में मनुष्य जाति मुट्ठी भर है। इसमें भी एक मनुष्य की क्षमता तो इतनी नगण्य है जिसे बाल की नोंक से भी कम माना जा सकता है मनुष्य की सत्ता में उसका शरीर, मस्तिष्क एवं साधन सम्पदा ही गिने जाने योग्य है। इस परिधि में भी इतनी अधिक आश्चर्यजनक रहस्यमयी सामर्थ्य सन्निहित है, उनका एक अत्यंत ही छोटा कार्यान्वित होता है शेष अधिकाँश भाग तो प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ा रहता है। यदि मनुष्य की दृश्यमान कलेवर की शक्तियाँ ही जगाई, काम में लाई जा सकें तो उतने भर से मनुष्य अगणित विभूतियों का स्वामी बनकर अत्यन्त विशिष्ट विकसित सामर्थ्यों का भण्डार बनकर प्रकट हो सकता है। उसकी निजी क्षमता ऋद्धि सिद्धियों से भरी-पूरी दृष्टिगोचर हो सकती है। इसके आगे अनेकों सूत्र ब्रह्मांड के अनेक घटकों के साथ जुड़ते हैं जो अपनी सशक्त मानवी सत्ता पर उड़ेल कर उसे देवोपम बना सकते हैं। उसे कुबेर जैसा सम्पन्न, इंद्र जैसा सशक्त देखा जा सकता है यह असंभव उपलब्धियाँ कैसे हस्तगत हो? उस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है कि अध्यात्मिक विज्ञान के आधार पर जैव चुम्बकत्व को प्रखर, प्रचण्ड बना लिया जाय।

भौतिक विज्ञान के आधार पर कोई कितना ही उपार्जन संग्रह क्यों न कर ले, पर उसके उपयोग उपभोग की एक छोटी परिधि है जिसमें अधिक के लिए हाथ पैर मारना अपने आपको संकट में फंसाना हैं पेट से अधिक खाना शरीर सीमा से बढ़कर पहनना संभव नहीं उपार्जन वैभव कितना ही अधिक क्यों न हो, पर वह अपने स्थल पर ही रखा रहता है। बचत का दूसरे उपयोग करते हैं। किंतु चेतना क्षेत्र इससे सर्वथा भिन्न है उसकी परिधि विवाद है। सूक्ष्म शक्तियों के रूप में सम्पदा का अवस्त्र परिवार उसमें बीज रूप में भरा जा सकता है। उपलब्ध शक्तियों का जागरण और प्रभाव क्षेत्र का परिवार दोनों मिलकर इतने अधिक हो जाते हैं, जिसका मूल्यांकन करने में देव दानवों को ही मापदण्ड बनाया जा सकता है।

देवता मनुष्य शोक में आने के लिए ललचाते रहते हैं। उनकी उत्सुकता उससे कहीं अधिक है जैसा कि मनुष्य स्वर्ग लोक के सम्बन्ध में सोचता और वहाँ के आनन्द का रसास्वादन करने के लिए उत्सुक रहता है। इतिहास साक्षी है कि देवताओं ने मनुष्य से सहायता प्राप्त करने के लिए अनेक बार याचना की है। दशरथ अपना रथ लेकर देवताओं की सहायता करने गये थे। साथ में कैकेयी भी थीं जिनने पति की सहायता करके तीन वरदान प्राप्त किये थे। अर्जुन का इसी प्रयोजन के लिए देवलोक जाना प्रसिद्ध है वहाँ उनके सम्मुख अनिंद्य सुन्दरी उर्वशी प्रस्तुत की गई थी और गांडीव धनुष उपहार में दिया गया था देवताओं में मानुषी नारी के साथ संपर्क साधने में, अप्सराओं की सेवा से अधिक रसास्वादन माना है। इन्द्र और चन्द्र का अहिल्या पर मन डिगाना। कुन्ती से अनुरक्त होकर उसके गर्भ से सन्तानोत्पादन का उपक्रम करना यही बताता है कि धरती का वैभव स्वर्ग से अधिक है, यदि ऐसा न होता तो देव सुन्दरी मेनका विश्वामित्र की सहचरी बनने के लिए क्यों आतुर होती और क्यों इतनी लम्बी छोड़ लगाती?

भगवान को ब्रह्मांड के असंख्य लोगों की व्यवस्था का दायित्व संभलना पड़ता है, पर वे धरित्री का विशेष ध्यान रखते हैं। जब भी यहाँ असंतुलन पैदा होता है तभी प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए अधर्म के उन्मूलन और धर्म के अभिवर्धन के लिए इसी धरातल पर विशेषतया भारत क्षेत्र में अवतार धारण करते हैं दस या चौबीस अवतार इसी मनुष्य लोक में विशेषतया भारत देश में हुए हैं। इस भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया है। पुरातन काल के सतयुगी मनुष्य देव मानव कहे जाते थे। मनुष्य जनम को सुरदुर्लभ कहा गया हैं पुरातन काल के सतयुगी मनुष्य देव मानव कहे जाते थे। मनुष्य जन्म को सुरदुर्लभ कहा गया है। देवता यज्ञादि उपासनात्मक कर्मकाण्डों द्वारा अपना पोषण प्राप्त करने के लिए आशा, अपेक्षा करते रहते हैं। जब वैसा कुछ मिल जाता है तो प्रसन्न होकर मनोवाँछित वरदान प्रदान करते हैं। मनुष्यों की संकल्प शक्ति देवताओं के स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए विवश करती रही है। भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से उतार कर पृथ्वी पर बहने के लिए विवश किया था वृत्रासुर से संत्रस्त होकर देवगण महर्षि दधीचि से अस्थियाँ लेकर वज्र बनाने और संकट से त्राण पाने में सफल हुए थे। हरिश्चंद्र की आदर्शवादिता पर पुलकित होकर देवता स्वर्ग से पुष्प वर्षा करने के लिए छोड़ पड़े थे। सूर्य पुत्र कर्ण का पराक्रम और आदर्शवाद प्रख्यात हैं।

मानवी सत्ता देव वर्ग से कहीं अधिक है। पर यह आम तौर से प्रसुप्त स्थिति में मूर्छित पड़ी रहती हैं जग पड़े तो कुण्डलिनी बनकर अपनी ज्वाल-माल से क्षेत्र विशेष को प्रचण्डता से ओत-प्रोत करती देखी गई है यदि वैसा न बन पड़े तो मात्र हाड़ माँस के पिटारे जैसा दोष दुर्गुण से लिपटा हुआ मनुष्य दीन, दुर्बल, दरिद्र, अनगढ़, उपेक्षित, तिरस्कृत बनकर रहता है। आत्म प्रताड़नाएँ और लोक भर्त्सनाएँ उसे शूलती हुलाती रहती ही हैं। भव बंध में जकड़ा हुआ, कोल्हू के बैल की तरह घिसता, पीसता हुआ किसी प्रकार मौत के दिन पूरे भर कर पाता है।

काया स्वस्थ, समर्थ हो तो मात्र युवावस्था की थोड़ी-सी अवधि में बलिष्ठ, सुन्दर, प्रबुद्ध, सम्पन्न, स्वतंत्र, स्वच्छन्द रहा जा सकता है। बचपन और बुढ़ापे का अधिकाँश समय तो अपंग, असमर्थ, परावलम्बी जैसी स्थिति में किसी प्रकार गुजर करता है। जरा-जीर्ण स्थिति और रोग शोक में कलपते कराहते दिन बीतते हैं। उस स्थिति में मौत के दिन गिनने पड़ते हैं उसी के अंचल में मुँह छिपा लेने के लिए विवशता भरी उत्सुकता चढ़ी रहती है किन्तु आत्मिक प्रगतिशीलता इससे सर्वथा भिन्न है। यदि उस दिशा में प्रगति कर सकना बन पड़े तो लोक परलोक में समान रूप से सन्तोष छाया, ओजस उभरा और उल्लास आनन्द का रसास्वादन करते रहने की परिस्थिति निरन्तर बनी रहती है। आत्मिक प्रगति अकेली ही ऐसी है जिस पर अनेकानेक भौतिक सफलताओं को निछावर किया जा सकता है। बुद्ध, गाँधी सरीखे आत्मवान् अस्सी वर्ष से अधिक समय तक सन्तोष सम्मान भरा जीवन जीते रहे और सदा-सर्वदा के लिए अजर अमर हो गये। अपनी अनुकरणीय अभिनन्दनीय स्तर की उपस्थिति इतिहास के पृष्ठों पर युग युगान्तरों के लिए छोड़ गये। आत्मिक प्रगति की महिमा जितनी बखानी जा सके उतनी ही कम है। आत्मवान् स्वयं तो विभूतिवान होकर जीता ही है अपने अनुदानों से अपने समय और परिकर को हर दृष्टि से कृतकृत्य करता है। भौतिक क्षेत्र में केवल स्वल्प कालीन उन्नति ही की जा सकती है। चिरस्थायी प्रगति का अर्थ तो आध्यात्मिक उपलब्धियाँ उपार्जित करने के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। उसी के साथ प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष श्रेय जुड़ा हुआ हैं अस्तु दूरदर्शिता इसी में है कि आत्मोत्कर्ष का ताना-बाना बुना जाय। भले ही वह कष्ट साध्य ही क्यों न हो? भले ही उसके लिए सामयिक सुख-सुविधाओं में, तृष्णा महत्वाकाँक्षाओं में कटौती ही क्यों? करनी पड़े? आत्मा को ऊँचा उठाना आरम्भ कर दिया जाय तो वह विकसित होते-होते देवात्मा, परमात्मा का स्तर प्राप्त कर लेती है।

शरीर सर्वाधिक उपलब्धियों की एक सीमा हैं तृष्णा बढ़ी-चढ़ी कितनी ही क्यों न हो, पर प्रकृति अंकुश के कारण उसका संग्रह एवं उपभोग एक सीमा तक ही हो सकता है सीमित समय तक ही वह वैभव पास में रह सकता है। मृत्यु का ग्रास बनना हर किसी के लिए अन्तिम ही है। ऐसी दशा में यदि असीम और अनन्त की स्थिरता सम्बन्ध में सोचा जाय तो फिर आत्मिक प्रगति और आध्यात्मिक सिद्धि सम्पदा पर ही विचार करना पड़े उसी दिशा में कदम बढ़ाना पड़ेगा।

साँसारिक क्षेत्र के सुसम्पन्नों के साथ संपर्क साधना और उनकी अनुकम्पा अर्जित करना सरल नहीं है। पर अदृश्य क्षेत्र में जिन सूक्ष्म सत्ताओं का स्वच्छन्द निवास है अनेक साथ आत्मिक मार्ग पर चलते हुए सरलता के साथ जुड़ सकते हैं। उनका परामर्श, सहयोग विपुल परिमाण में प्राप्त किया जा सकता है, जिस प्रकार याचक को सम्पन्न दानशीलों की तलाश रहती है उसी प्रकार हर क्षेत्र के सुसम्पन्न अपने मित्र साथी तलाशते रहते हैं। उत्तराधिकारी की खोज सभी को रहती हैं पाने की तरह देने का भी आनन्द होता है। इसे माता संतान के पति-पत्नी के सम्बन्धों का विश्लेषण करते हुए सहज ही जाना जा सकता है। सूक्ष्म जगत की महान शक्तियाँ अपनी अनुकम्पा बरसाने के लिए बादलों की तरह आतुर रहती हैं वे उपयुक्त भूमि पर बरसती भी है। रेगिस्तानों पर से तो मेघ मालाएं बिना सके पलायन कर जाती हैं।

साधना से सिद्धि शत प्रतिशत सही है। श्रम-शीलता के सहारे मात्र सम्पदा अर्जित की जा सकती है सो भी येन केन प्रकारेण आगे चलाने के लिए अपना रास्ता बना लेती है। किंतु अध्यात्मिक सम्पदा के सम्बन्ध में यह बात नहीं हैं वह स्थिर ही नहीं रहती है, बैंक ब्याज की तरह बढ़ती भी रहती हैं। पल्लवित वृक्षों की टहनियों की तरह फलती फूलती भी रहती है। बाँटने पर विद्या की तरह उसकी अभिवृद्धि होती, परिपक्वता बढ़ती देखी जाती है।

भौतिक क्षेत्र में सफलता, असफलता के सम्पन्नता, विपन्नता के ज्वार भाटे आते रहते हैं। दिन-रात की तरह अनुकूलता-प्रतिकूलता का उलट के परिवर्तन होता रहता है किन्तु अध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसा कुछ है नहीं। उस दिशा में बढ़ता हुआ हर कदम आगे की मंजिल ही पार करता है उसमें पीछे लौटने जैसी आशंका है नहीं। जब कभी इस राजमार्ग के पथिक को असफलता मिले तो समझना चाहिए कि दिशा भूल के भटकाव में उसे कहीं उलझना पड़ गया हैं सही मार्ग पर सही गति से सही तैयारी के साथ जो भी इस क्षेत्र में बढ़ता है उसे क्रमिक प्रगति का समुचित लाभ मिलता रहा है। उसे निराश का, पछताने का कुयोग कभी भी मिला नहीं है। उसे भाग्य को कभी कोसना नहीं पड़ा है।

स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का त्रिविधि संयोग हर साधक को अपने साथ संजोये रखना चाहिए। परमात्मा सत्ता के साथ अपने आपको समर्पित, विसर्जित कर देना ही ईश्वरावलम्बन है। ईश्वर जिसकी उपासना की जाती है वह है सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय। उत्कृष्टता एवं भाग्यवादिता का समन्वय। मात्र पूजा करने से नहीं आत्मा को परमात्मा के साँचे में डाल लेना ही योगाभ्यास हैं

चिन्तन और चरित्र के शालीनता से समन्वित करना, आत्मा परिशोधन में निरत रहना आध्यात्मिकता और कर्तव्यों के परिपालन में कटिबद्ध रहना, धार्मिकता इन तीनों को अपनाये रहने वाला ही सच्चा आध्यात्मवादी और सफल साधक होता है।


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