मस्तिष्क को स्वर्ग लोक की संज्ञा दी गई है। स्वर्ग में देवता निवास करते हैं। देवता अर्थात् दिव्य आदर्श। वे अमृत पीते हैं। अपने यश शरीर में अमर रहते हैं और जिन पर अनुग्रह करते हैं, उन्हें सोमरस पिलाते हैं।
सोमरस के बारे में यह मान्यता सही नहीं है कि वह भाँग जैसी मादक जड़ी बूटी है। यह भ्रम पूर्वकाल में भी था और इसी बहाने कई भ्रम-ग्रस्त मादक द्रव्यों का सेवन करने लगे थे और अपने पक्ष में शिवजी को भी नशेबाजों की श्रेणी में गिनने लगे थे।
इस भ्रम का निराकरण करते हुए अथर्ववेद 14/13 में कहा गया है- सोम रस जड़ी बूटी नहीं है। उसका आस्वादन तो ब्रह्मवेत्ता ही करते हैं और वे ही उस तत्व के रहस्य को जानते हैं। इसी वेद के 2/7/2 में कहा गया है कि “सोम मस्तिष्क का अधिष्ठाता है।” 1/4/6 में कहा गया है, ‘सोम से भरा-पूरा दिव्य कलश इस मस्तिष्क में ही अवस्थित है।”
ऋग्वेद के 1/51/2 में कहा गया है- ‘सोम’ इस भूलोक का अमृत है। 1/16/15 में कहा गया है-सोम में प्रज्ञा पवित्र होती है। 9/96/29 में कहा गया है सोम पायी दिव्य भावनाओं से भर जाता है। शतपथ ब्राह्मण में 3/6/3/9 की उक्ति है कि यह सोम ही विष्णु है। उसी के 3/5/3/17 में कहा गया है कि मस्तिष्क ही देवलोक है वही यज्ञ भूमि है।
इस रहस्यमय दिव्य लोक मनः क्षेत्र में अवस्थित अमृत रूपी सोम को व्यावहारिक जीवन में कैसे उतारा जाय? व्यक्तित्व में सम्मिलित कैसे किया जाय? इसका उत्तर दिव्य दर्शियों ने खेचरी साधना के रूप में दिया है।
इस साधना के आधार पर शरीर में उत्साह और मन में उल्लास भरता है। उसकी दिशा धारा उत्कृष्ट आदर्शवादिता की ओर होती है। इसी को उर्ध्व गमन कहते हैं। ब्रह्मलोक की महायात्रा भी यही है।
इस तथ्य का और भी अधिक स्पष्टीकरण करते हुए ऋग्वेद 9/17/7 में कहा गया है। हेम सोम! आत्मरक्षा के इच्छुक, देवत्व की अभिवृद्धि के उत्सुक, नेतृत्व की क्षमता अर्जित करने वाले ब्रह्म परायण लोग तुझे प्रज्ञा द्वारा प्राप्त करते हैं।
ऋतम्भरा प्रज्ञा ही महासरस्वती है उसका निवास परब्रह्म के साथ सहस्रार कमल पुष्प पर ही है। ऋग्वेद 9/7/7 में कहा गया है प्रज्ञा का रस सोम, अज्ञान, अन्धकार को नष्ट कर महाप्रज्ञा को प्रदान करता है। यह कुण्डलिनी साधना का अध्यात्मिक प्रसंग है।
सोम के संबंध में शतपथ, ताण्डव, ऐतरेय ब्राह्मणों में उसे वर्चस तेजस, ओजस का ही यज्ञ बताया है और परम प्रतापी कहा है। प्रज्ञा का आधार बताया है। आत्मदर्शी ऋषि कहा है और इन्द्र की उपमा दी है।
इसे प्राप्त कैसे किया गया, इसका एक उपाय ब्रह्मचर्य कहा गया है और दूसरा अपनी क्षमताओं को सोम में होम देना बताया है। यहाँ सोम का तात्पर्य तालु की उच्च भूमिका में अवस्थित प्राणाग्नि की ओर संकेत है। प्रकारान्तर में यह खेचरी मुद्रा की प्रक्रिया बनती है। यह केवल क्रिया ही नहीं है उसमें आत्म समर्पण की भावना भी है। जिव्हा हवि है और तालु अग्नि। दोनों के संयोग से ब्रह्म यज्ञ बनता है। यह बिना घृत शाकल्य का देव यज्ञ है। इसे तत्ववेत्ता करते और ब्रह्मलीन स्थिति को प्राप्त करते हैं।
ब्रह्मरंध्र सशक्त होते हुए भी ईंधन न मिले के कारण अपनी दिव्य ऊर्जा गँवा बैठता है। उसकी स्थिति गरम भस्म जैसी रह जाती है। यह गर्मी मात्र शरीर यात्रा एवं दैनिक समस्याओं के समाधान में ही खप जाती है। जिस आधार पर ब्रह्मवेत्ता, दिव्य शक्तियों का भाण्डागार बन जाता है। ऋषि या सिद्ध पुरुष बना जाता है, वह स्थिति बन नहीं पाती। इसके लिए योग साधनाओं का आश्रय लेना पड़ता है। ब्रह्म स्थिति प्राप्त करने के लिए मौन, एकाग्र, एकान्त में बन पड़ने वाली ‘खेचरी साधना’ अपने प्रयोजन के लिए अद्वितीय है।
मनःसंस्थान का केवल 7 प्रतिशत भाग ही जाना जा सका है। 93 प्रतिशत अभी भी अविज्ञात है। इसे डार्क एरिया कहते हैं। अतीन्द्रिय क्षमताओं का इसी में निवास है। सूक्ष्म दर्शन, दिव्य दर्शन, भविष्य, प्राण-परिवर्तन जैसी अद्भुत क्षमताएँ इसी क्षेत्र में रहती हैं। उसका स्पर्श करने उभारने का और कोई मार्ग किसी ओर से नहीं है। केवल तालुका पिछला भाग ही ऐसा है जो अतीन्द्रिय क्षमताओं के क्षेत्र को नीचे से सहारा देकर ऊपर उठा सके। मुख में जीभ ही एकमात्र ऐसा उपकरण है, जो तालु तल को स्पर्श करके मस्तिष्क के प्रसुप्त अविज्ञात क्षेत्र को जागृत करने और प्रदीप्त करने में समर्थ है। उसी क्षेत्र से संबंधित, पिट्यूटरी ग्रन्थि है। पीनियल का उसके साथ तारतम्य है, दोनों मिलकर शरीर के अन्यान्य अवयवों को संतुलित समृद्ध रखने वाले “हारमोनों” को नियंत्रित करती हैं। उन्हीं का अनुशासन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर चलता है, यह समूचा सर्किल छोटा होते हुए भी सुविस्तृत शरीर की गतिविधियों, हलचलों और समय-समय पर उभरने वाले ज्वार-भाटों को नियंत्रित करती है।
मस्तिष्क विद्या के विज्ञानी जिव्हाग्र को एक विशेष प्रकार का जीवन्त इलेक्ट्रोड मानते हैं। उसकी क्षमता बढ़ाने के लिए भोंथरापन हटा कर तीक्ष्णता उत्पन्न की जाती है। इस नुकीलेपन को निखारने के लिए तालुका पिछला भाग ही चुम्बक का काम करता है और इस योग्य बना देता है कि उसकी फेंकी हुई ऊर्जा मस्तिष्क गह्वर के किसी भी क्षेत्र तक पहुँच कर अपना काम कर सके। अन्य माध्यमों से यह कार्य बन पड़ना, अत्यधिक कठिन है।
प्रख्यात शरीर शास्त्री डॉ. मैग्राथ ने अपनी ‘ग्रेज एनाटोमी’ पुस्तक में एडिनो हाइपोफिसस सम्बन्धी अध्याय में तालु मूर्धा के ठीक ऊपर एक ऐसी थैली का वर्णन किया है जिसमें सेरिवोर-पायनल नामक द्रव भरा रहता है। यह द्रव न केवल शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक- बुद्धिमता को पोषण प्रदान करता है, वरन् भावना क्षेत्र में भी उत्तेजना प्रदान करता है। निष्ठुरता, सहृदयता जैसी प्रवृत्तियाँ इस क्षेत्र के संतुलन एवं अनगढ़पन से संबंधित रहते हैं। द्रव को सही और सुरुचि संवर्द्धक बनाने में तालु के निचले भाग की विशेष भूमिका रहती है। इस निर्धारण में भी खेचरी मुद्रा से संबंधित क्रिया-कलापों द्वारा समूचे व्यक्तित्व प्रभावित करने की बात सिद्ध होती है।
मालिश का अपना महत्व है। शरीर के विभिन्न अवयव मालिश किये जाने पर ऐसी स्थिति पैदा करते है, जिससे स्नायु संस्थान एवं रक्त संचार में अपने ढंग की हलचल चल पड़े। जिव्हा की नोंक से तालु के निम्न भाग की मालिश किये जाने का प्रभाव सामान्य मालिशों की अपेक्षा अनेक गुना व्यापक होता है। उसका शरीर के अंगों पर तो प्रभाव पड़ता ही है। मानसिक विशेषताओं को उभारने में उसका और भी अधिक योगदान है।
फ्राँसिस ल्यूकेल की “इन्ट्रोडक्शन साइकोलॉजिकल फिजियोलॉजी” में बताया है कि तालु को जिव्हा की नोंक से चूसते रहने पर मनुष्य अनेकों उपयोगी तत्व शरीर को जीवित रखने की आवश्यकताएँ पूर्ण करने के लिए प्राप्त कर सकता है।
मस्तिष्क से भरे हुए भूरे लिबलिबे पदार्थों को तत्व दर्शियों ने मानसरोवर की उपमा दी है और कहा है उसमें अनेकों नदियों का उद्गम है। यह नदियाँ सूक्ष्म विद्युत व्यवस्था के रूप में समूचे शरीर में अपना-अपना काम करती पाई जाती हैं। जिस नदी का उद्गम सूख जाता है या आवश्यकता से अधिक खुल जाता है। अस्तु उस क्षेत्र में संबंधित अवयवों में ज्वार-भाटे आने लगते हैं और स्वास्थ्य संतुलन बिगड़ जाता है। स्थिति को सुधारने के लिए मानसिक उद्गम को ठीक करना पड़ता है। यह कार्य किसी और प्रकार नहीं, खेचरी, मुद्रा में प्रवीणता प्राप्त करके उन क्षेत्रों तक पहुँचा जा सकता है, जो स्वास्थ्य के शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र को गड़बड़ाने के लिए उत्तरदायी हैं। इस प्रकार खेचरी मुद्रा के सम्बन्ध में यदि समुचित ध्यान दिया जा सके तो उसे एक सफल चिकित्सा प्रणाली के रूप में विकसित किया जा सकता है।
भावनाओं को उभारने या दबाने के संबंध में ‘ब्रेन वाशिंग’ की एक बड़ी ऊबड़-खाबड़ परिपाटी प्रचलित है। उससे भी विचार बदलने भर की सफलता मिल पाती है। भावनाएँ तो अंतराल के किसी अविज्ञात क्षेत्र में उमड़ती हैं। उस उद्गम तक भी खेचरी मुद्रा द्वारा पहुँचा जा सकता है और हेय भावनाओं से भरे मानस को उत्कृष्ट संवेदनशील बनाया जा सकता है।