धर्मतन्त्र की क्षमता प्रगति प्रयासों में लगे

September 1987

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ईसाई धर्म का एक केन्द्रीय संगठन है दान की धन राशि उस केन्द्र में ही जमा होती है। मिशन की गतिविधियों को व्यापक एवं अग्रगामी बनाने के लिए कार्यकर्ता प्रशिक्षित किये जाते हैं और उन्हें योजनाबद्ध ढंग से उन उपयुक्त स्थानों में नियुक्त किया जाता है वहाँ उन्हें अधिक सफलता मिलने की आशा है प्रतिफल भी आश्चर्यजनक रूप से हो रहा है संसार भर में ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या धर्म अब प्रथम पंक्ति में है। भविष्य में उसकी प्रगति और भी तेजी से होने की संभावना है।

बौद्धकाल में ऐसे ही प्रयासों के लिए दो बड़े केन्द्र बनाये गये थे। एक नालन्दा विश्वविद्यालय दूसरा तक्षशिला विश्वविद्यालय कहा जाता है उनमें तीस-तीस हजार छात्रों के अध्यापन निवास निर्वाह की व्यवस्था थी। वे छात्र धर्म प्रचारक बनकर निकलते थे और बौद्ध धर्म को विश्वव्यापी बनाने के लिए निरन्तर कर्तव्यरत रहते थे।

अति प्राचीन समय में यह कार्य तीर्थ स्थानों में बने गुरुकुलों तथा आरण्यकों द्वारा सम्पन्न होता था लोग उनके साथ जुड़ते थे। सद्ज्ञान संवर्धन और सत्प्रवृत्ति संचालन के निमित्त मुक्तहस्त से धन दान करते थे। उन साधनों के सहारे धर्म प्रचारकों, पुरोहितों का प्रशिक्षण होता था और उनके प्रवास में आवश्यक पड़ने वाली सुविधाओं को वही से जुटाया जाता था।

यह कुछ थोड़े से उदाहरण है, जिनके माध्यम से कतिपय धर्म संस्थानों द्वारा अपने-अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्र में सफलतापूर्वक काम करने का परिचय मिलता है यह सब तभी बन पड़. जब वे किसी केन्द्र बिन्दु को बनाने और उस पर एकत्रित होने में सफल हुए।

यदि केन्द्रीय शक्ति एकत्रित न हुई होती। एक व्यापक और सुनिश्चित योजना न बनी होती संगठन स्थानीय ढंग के रहे होते, उनके कार्यकर्ता सर्वत्र स्वतं. रहकर बिखरे भटके रहे होते, आपस में अधिक प्रतिष्ठा पाने और अधिक लाभ उठाने के प्रलोभन में परस्पर टकराते रहे होते तो निश्चित है कि उनके क्रिया कलाप में तनिक भी प्रगति न हुई होती। कोई यशस्वी सफलता हस्तगत न हुई होती। अपनी ढपली अपना राग वाली उक्ति चरितार्थ होती। डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाने “ ढाई ईंट की मस्जिद बनाने वाले व्यंग उपहार इस धर्म केंद्रों तथा धर्म प्रचारकों पर भी चरितार्थ हुए होते। प्रतीति तो होती ही क्या? कोई कारगर सफलता तो मिला ही कैसे सकती थी?

हिन्दू धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि असाधारण रूप से मजबूत है। उसकी जड़ें पाताल तक पहुँचती है। उसकी मान्यताओं, आस्थाओं, प्रथाओं एवं प्रतिपादनों की यदि सही सुधरे हुए रूप में सर्वसाधारण के सामने रखा जा कसे तो सामान्य विवेक बुद्धि वाला भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। किन्तु इस संभावना के मार्ग में कई कठिनाईयाँ भी है। मध्यकालीन अंधकार युग के प्रभाव से उसके प्रचलनों में कितने ही अवांछनीय तत्व सम्मिलित हो गये हैं। समय आ गया है कि उन पर फिर से दृष्टिपात किया जाय और जो अनुपयुक्त लगता है उसे स्वेच्छापूर्वक सुधार लिया जाय। उदाहरण के लिए जाति पाँति पर आधारित ऊंच-नीच को मान्यता, विवाह शादियों के अवसर पर होने वाला सामर्थ्य से बाहर इतना खर्च जो परिवारों को दरिद्र एवं बेईमान बनाये बिना न रहे, आधे जन समुदाय की स्त्रियों को घूँघट पर्दे में कैद रखकर उन्हें अपंग जैसी स्थिति में डाले रखना मृतक भोज के नाम पर लंबी चौड़े प्रीतिभोजों का होना। भिक्षा व्यवसाय आदि -आदि। इन प्रचलनों को असामान्य ठहरा कर समाज को प्रतिगामिता के लाँछन से बचाया जा सकता है। इन्हीं कारणों से पनपने वाली दरिद्रता से पीछा छुड़ाया जा सकता है मान्यताओं में भी भाग्यवाद अंध विश्वास जैसे प्रति गाड़ी तत्वों की घुसपैठ कम नहीं हुई है इन्हीं के चंगुल में फंसकर अगणित भावुक वन दिग्भ्रांत होते और भ्रम जंजालों में भट कर जेब कटाते तथा समय रावति है। यदि उन अवाँछनीयताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार कर लिया जाय और उनके परिशोधन के लिए साहस कर लिया जाय तो न केवल भारत का तत्व दर्शन वरन् व्यवहार प्रचलन भी ऐसा हो सकता है जिसे अपनाने के लिए हर किसी की उमंग उभरे विचारशील वर्ग उसका अनुगमन करने के पीछे न हरे। अभी तो जो उस परम्परा में पूर्वजों की सीख मान कर किसी प्रकार लकीर पीटने की तरह अपनाये हुए है वे भी उत्साहित मन से उसके प्रति आस्थावान बने और अन्यान्यों की उसकी महत्ता बताते हुए आभ्यावान बनाने के लिए प्रोत्साहित करें इस प्रकार अपना समुदाय देखते-देखते कई गुना हो सकता है वर्गों की संख्या बल अपना महत्व रखता है लोकतंत्र तो उसी पर आधारित है पाकिस्तान का बंटवारा इसी आधार पर हुआ है कि अपने की भिन्न संस्कृति का अनुयायी होने के नाते उसने प्रथम भूमि की माँग की और बंटवारा करा लेने में सफलता पाई भारतीय धर्मानुयायी यदि घटते चले गये और भिन्न मान्यता रखने वालों की संख्या बढ़ती गई तो भविष्य में उसी स्तर के संकट खड़े हो सकते हैं बंटवारे पर बंटवारे होने के आधार खड़े हो सकते हैं। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न होना भी कष्टकर है पर उस और से आंखें बंद करके भी नहीं बैठे रहा जा सकता समय रहते भविष्य की समुच्चयता बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए इस संदर्भ में प्रथम प्रयास यही हो सकता है कि हिन्दू धर्म की मान्यताओं में जहाँ-कहीं प्रतिगामिता दृष्टिगोचर होती है उसका सुधार, परिमार्जन कर डाला जाय।

भारत में जितने लोगों ने हिन्दू धर्म छोड़ा है उनमें से अधिकाँश असंतुष्ट वर्ग के लोग है अन्य धर्मों के तत्व दर्शन की तुलनात्मक समीक्षा करके वे धर्म परिवर्तन के लिए सन्नद्ध हुए हो ऐसी बात नहीं है वास्तविकता यह है कि कुप्रचलनों से खिन्न उद्विग्न हुए लोगों ने यह अच्छा समझा कि इस धर्म से संबंध ही तोड़ लिया जाय जिसमें उन्हें अनुचित दबाव त्रास सहने पड़ते हैं। शोषण का शिकार बनना पड़ता है उससे सदा सर्वदा के लिए पीछा क्यों न छुड़ा लिया जाय विक्षोभों ने ही उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए विवश किया है। परिवर्तनों के लिए विवश किया है। इन परिस्थितियों को सुधारे बिना कोई गति नहीं यदि हाट में अपना माल अपेक्षाकृत अधिक उत्तम सिद्ध न किया जा सका तो उसे खरीदेगा कौन उसे मान किससे मिलेगा सवर्ण और असवर्ण सभी इन कुरीतियों की चपेट में आते हैं जो धर्म परिवर्तन नहीं करते वे भी इन अनौचित्य भरे प्रचलनों को कोसते तो ही ऐसी दशा में अनुयायियों की आम्या भी डगमगाती है। मनोबल भी कमजोर होता है समाज सुधार के अतिरिक्त एक दूसरा कदम उठाने योग्य है कि धर्म को संगठित सुव्यवस्थित किया जाय उसकी गतिविधियों को ऐसी दिशा धारा के साथ जोड़ा जाय जो रचनात्मक उपलब्धियाँ प्रस्तुत करें।

हिंदु धर्म अनेकानेक मत-मतान्तरों में विभाजित है। उनके सबके अपने-अपने पथ, आश्रम है। अपने-अपने प्रथा प्रचलन एक दूसरे से तालमेल न रखने वाले प्रतिपादन गुयमहन्त वर्ग अच्छा होता यह विभाजन सिकुड़ता एकीकरण की ओर चलता संगठित होता पारस्परिक सहयोग एक केन्द्र पर केंद्रित हो जाता यदि ऐसा बन पड़ता तो बिखरी हुई शक्त एक केन्द्र पर केन्द्रित होती धन शक्ति, जन शक्त बुद्धि शक्ति किसी रचनात्मक दिशा में लगती सुधार परिष्कार और उत्कर्ष अभ्युदय की उन आवश्यकताओं को पूरा करती जिनकी आज महती आवश्यकता है ईसाई मिशन ने अपनी संगठित शक्ति को अपने मत की व्यापक बनाने में लगाया हम उसे उन कल्याण के लिए ऐसे कामों में लगा सकते हैं कि सभी धर्मों के अनुयायी उससे प्रभावित होते और लाभ उठाते।

भारतीय वन समुदाय में धर्म श्रद्धा की किसी प्रकार कमी नहीं वरन् अन्य धर्मों से कुछ अधिक ही है यह स्थापना वश परम्परा के आधार पर युग-युगान्तरों से चलती आ रही है अत्यधिक गरीबी रहते हुए दान दक्षिणा के तीर्थ यात्रा के विभिन्न कर्मकाण्डों के निमित्त इतना पैसा खर्च किया जाता है जिसे सरकारी राजस्व कर के समतुल्य समझा जाता है साठ लाख साधु बाबाओं धर्म जीवियों का खर्च भी जनता खुशी-खुशी उठाती है उनके द्वारा आये दिन किये जाने वाले धर्म कृत्यों भी विपुल धनराशि खपती ही है इस राशि को इस जन शक्ति को ईसाई मिशनों के वैभव से कम नहीं अधिक ही आँका जा सकता है।

अन्तर इतना ही है कि उनने संगठन का आश्रय लिया है। और योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाकर निर्धारण के अनुरूप प्रयासों को संलग्न करने की बुद्धिमता का परिचय दिया है जबकि हमारे स्वभाव में विघटन ही घर कर गया है।

आत्म निरीक्षण का ठीक यही समय है भूले सुधारने का भी इस दिशा में धर्म-तंत्र को आगे आना चाहिए क्योंकि उसका अपना महत्व सम्मान प्रभाव है उसके पास साधन की कमी नहीं सभी धर्म स्थानों की सम्पदा और उस दिशा में नियोजित जन शक्ति का अनुमान लगाया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इससे पूर्व कभी भी भारतीय धर्म तं. की छत्र छाया में तनी शक्ति एकत्रित नहीं हुई बुद्ध जैसे महामानवों ने अपनी शक्ति एकत्रित नहीं हुई बुद्ध जैसे महामानवों ने अपनी शक्ति से देश भर में विदेशों में धर्म चक्र प्रवाह की गगनचुंबी लहर उठाने में सफलता पाई थी यह उसकी सीमित शक्ति का प्रभाव था उसके स्थान पर धर्म संस्थानों की धर्माचार्यों की संयुक्त शक्ति तो आज अनेक गुनी अधिक आँकी जा सकती है प्रश्न केवल उसको सम्पादित कराके एक केन्द्र पर केंद्रीभूत करने की है साथ ही एक निश्चित लक्ष्य बनाकर उस प्रयास में उस क्षमता को नियोजित करने की यदि ऐसा बन पड़े तो प्रचलित अवाँछनीयताओं से भली प्रकार लोहा लिया जा सकता है और उनके स्थान पर सद्वृत्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है वो लोग धर्म की दुहाई देते और उसी के लिए अपने सहचर अनुयायियों का समय श्रम धन लगते रहते हैं, यदि वे समय की माँग पर ध्यान दे तो उन्हें धर्म पाठ पढ़ाने के स्थान पर स्वयं ही उसे पढ़ने की आवश्यकता प्रतीत होगी अपने मुट्ठी भर अनुयायियों की अलग पहचान बनाए रखने की चेष्टा रखने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर यही कि सभी धर्म प्रेमियों को एक छात्रावास में एकत्रित किया जाय और उनकी क्षमताओं को सर्वतोमुखी प्रगति के लिए है नियोजित किया जाय।


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