नये साज-स्वर, सजा रही माँ। विवेक वीणा, बजा रही माँ।
प्रणव-नादिनी, जगी ऋचायें वरद भुजायें, उठा रही माँ।
अगाध रस के अनादि निर्झर अबाध गति से बहा रही माँ
दुलार देकर सँवारने को उठो! प्यार से बुला रही माँ।
अनन्त जन्मों की चिर प्रतीक्षा भरे नयन में जगा रही माँ
अमृत सुतों को सुधा के प्याले बुला बुला के पिला रही माँ।
अशेष, पुण्यों का पर्व आया। मरे हुओं को जिला रही माँ
प्रणव नादिनी सुना ऋचायें वरद भुजायें उठा रही माँ
नये साज स्वर सजा रही माँ विवेक वीणा बजा रही माँ।
लाखन सिंह भदौरिया
*समाप्त*