उपवास से अनेक विकृतियों का समाधान

September 1987

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किसी वाहन पर उसकी शक्ति में अधिक वजन लादा जाय तो उसे अभीष्ट स्थान तक ले पहुँचना न तो संभव है और न अपनी सुदृढ़ता सुरक्षित बनाये रहना, यदि वजन उसकी सामर्थ्य से कम रखा जाय तो जल्दी चलेगा स्वस्थ रहेगा और मालिक को भी किसी प्रकार की परेशानी उत्पन्न न होने देगा।

यह बात पेट के ऊपर शत प्रतिशत लागू होती है। आमाशय की थैली छोटी सी है। उसमें अधिक से अधिक आधा किलों खाद्य सामग्री रखी जा सकती है। फिर जो पाचक स्राव होते हैं वे भी सीमित मात्रा में ही रिसते हैं। आमाशय से चलकर उनकी 32 फीट लम्बे आँतों में भी यह प्रक्रिया चलती रहती है इस सब में एक बार के खाये भोजन को पचाने में छः सात घटे लग जाते हैं इस बीच उसके कार्यों में विक्षेप उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए अन्यथा बीच में उत्पन्न हुआ वह व्यक्तिक्रम आगे भी अड़चने खड़ी कर सकता है।

जिस प्रकार आजकल लोगों को खाने की आदत है उस हिसाब से दिन में दो बार ही भोजन किया जा सकता है। बार-बार खाते रहने से हाँडी पकने से पहले ही उसमें नया माल डाल देने जैसी स्थिति होती है पुराना जल जाता है नया तब तक कच्चा ही बना रहता है दोनों ही स्थितियाँ ऐसी है जिसमें आहार का लाभ नहीं मिलता वरन् उससे विक्षेप ही उत्पन्न होता चला जाता है।

पशु पक्षियों की बात दूसरी है उन्हें एक-एक ग्रास तलाश करना चबाना पड़ता है इसके लिए भाग दौड़ भी बहुत करनी पड़ती है पशु तो बैठ कर जुगाली भी करते हैं पर मनुष्य की स्थिति ऐसी नहीं होती उसे दिन भर एक-एक ग्रास ढूंढ़ने खाने पचाने की फुरसत कहाँ है इसलिए उसे नियत समय पर ही उस कार्य से निश्चित होकर अन्य कामों में लगना पड़ता है। अस्तु यही तरीका अच्छा है कि नियत मात्रा में नियत समय पर भोजन किया जाय। बीच-बीच में वो मन में आया सो खाने न रहा जाय।

प्रातःकाल का भोजन तो और भी अनुपयुक्त है, क्योंकि देर रात को खाया हुआ भोजन पेट में पड़ा रहता है और वह ठीक तरह हजम नहीं हो पाता। इसलिए प्रायः पानी, नीबू, शहद, दूध, छाछ जैसी पतली कुछ वस्तु लेकर काम चला लेना चाहिए। भोजन दोपहर को ही करना चाहिए। उसमें भी यह ध्यान रखा जाय कि आधा पेट आहार से भरना चाहिए और आधे को हवा के आवागमन तथा पानी के लिए छोड़ देना चाहिए। ठूँस-ठूँस कर भोजन करना, गर्भवती स्त्री जैसी बेचैनी अपने लिए उत्पन्न करना है। शाम को भोजन सदा हल्का और अपेक्षाकृत कम मात्रा में होना चाहिए।

यह क्रम अनवरत नहीं चलने देना चाहिए। बीच-बीच में विश्राम की सुविधा भी देनी चाहिए। स्कूलों में दफ्तरों में बाजारों में कारखानों में साप्ताहिक अवकाश का दिन रहता है। देखने से प्रतीत होता है कि इससे काम हर्ज होगा पर सही बात यह नहीं है अवकाश में मिलने वाले विश्राम में पाचन तंत्र के विश्राम मिल जाता है और नई शक्ति नई स्फूर्ति मिलने से अधिक उत्साह से अधिक मात्रा में काम करने बन पड़ता है इससे न काम हर्ज होता है न मालिक को नुकसान पड़ता है। वरन् काम का ढर्रा उदासी, उपेक्षा से रहित होकर अधिक मात्रा में वे अधिक अच्छा काम कर पाते हैं।

यह अवकाश हमारे पेट को भी मिलना चाहिए क्योंकि वही सबसे अधिक श्रमशील और कार्यरत है। इसलिए उसके साथ औचित्य एवं सेवा साधना का ही व्यवहार होना चाहिए जो वह आसानी से पचा सकता है वैसा शाकाहार ही उसे देना चाहिए। यह न सोचना चाहिए कि अधिक पैसा खर्च करके बनाये जाने वाले मिष्ठान्न या पकवान ही अनिष्टता प्रदान कर सकते हैं जब हाथी तक शाकाहार के सहारे अपनी बलिष्ठता बनाये रह सकता है तो यह सोचना व्यर्थ है कि मनुष्य की आवश्यकता उससे पूरी नहीं होती उसे स्वादिष्ट उस स्वादिष्ट मिष्ठान्न, पकवान और मिर्च मसाले वाले पकवान ही खाने चाहिए। इस प्रयोग में उसे घाटा ही उठाना पड़ता है। गरिष्ठ पदार्थ देर से पचते हैं। सड़न उत्पन्न करते हैं। अपच का कारण बनते हैं। इतना ही नहीं वे रक्त में विषाक्तता भी भर देते हैं जिससे शरीर के क्षीण एवं रुग्ण होने का क्रम चल पड़ता है।

मूल से मिलने वाले दण्ड का प्रायश्चित यही है कि उसे आगे न दुहराया जाय और जो भूल हो चुकी है उसका प्रायश्चित किया जाय। पेट पर अनावश्यक भार लाद-लाद कर हम जो अनर्थ करते रहे है उसका सबका प्रायश्चित उपवास के रूप में ही हो सकता है। यही एक उपाय है जिससे थका हुआ आहत हुआ पेट समुचित विश्राम पाकर फिर से अपना काम नये सिरे से नई तत्परता के साथ आरंभ कर सकता है।

शास्त्रों में उपवास की असाधारण महत्ता बताई गई है। इसे तपश्चर्या में गिना गया है कारण यह है कि उससे मात्र पेट का ही परिमार्जन नहीं होता मात्र सड़न के कारण उत्पन्न होने वाले अनेकानेक रोगों का ही नियमन नहीं होता वरन् उसके साथ जुड़े हुए मस्तिष्कीय विकारों पर भी नियंत्रण होता है। विकृत मस्तिष्क जाती है। मिष्ठान्न या पकवान ही अनिष्टता प्रदान कर सकते हैं जब हाथी तक शाकाहार के सहारे अपनी बलिष्ठता बनाये रह सकता है तो यह सोचना व्यर्थ है कि मनुष्य की आवश्यकता उससे पूरी नहीं होती उसे स्वादिष्ट उस स्वादिष्ट मिष्ठान्न, पकवान और मिर्च मसाले वाले पकवान ही खाने चाहिए। इस प्रयोग में उसे घाटा ही उठाना पड़ता है। गरिष्ठ पदार्थ देर से पचते हैं। सड़न उत्पन्न करते हैं। अपच का कारण बनते हैं। इतना ही नहीं वे रक्त में विषाक्तता भी भर देते हैं जिससे शरीर के क्षीण एवं रुग्ण होने का क्रम चल पड़ता है।

मूल से मिलने वाले दण्ड का प्रायश्चित यही है कि उसे आगे न दुहराया जाय और जो भूल हो चुकी है उसका प्रायश्चित किया जाय। पेट पर अनावश्यक भार लाद-लाद कर हम जो अनर्थ करते रहे है उसका सबका प्रायश्चित उपवास के रूप में ही हो सकता है। यही एक उपाय है जिससे थका हुआ आहत हुआ पेट समुचित विश्राम पाकर फिर से अपना काम नये सिरे से नई तत्परता के साथ आरंभ कर सकता है।

शास्त्रों में उपवास की असाधारण महत्ता बताई गई है। इसे तपश्चर्या में गिना गया है कारण यह है कि उससे मात्र पेट का ही परिमार्जन नहीं होता मात्र सड़न के कारण उत्पन्न होने वाले अनेकानेक रोगों का ही नियमन नहीं होता वरन् उसके साथ जुड़े हुए मस्तिष्कीय विकारों पर भी नियंत्रण होता है। विकृत मस्तिष्क में सदा कुविचार उठते रहते हैं और उनके कारण अनेक प्रकार के दोष, दुर्गुण उठते और व्यक्तित्व के गरिमा भरे धर्म स्थल को अस्त व्यस्त करते हैं। इससे समूचा जीवन क्रम ही निकृष्टता के गर्त में गिरने लगता है। इस महती क्षति से बचाव करने के लिए एक ही उपाय है कि भोजन पर नियंत्रण किया जाय और उस क्षेत्र की जमी हुई गंदगी को सफाई का अवसर दिया जाय।

साधना क्षेत्र में सबसे बड़ी आवश्यकता मनोबल बढ़ाने की होती है। मनोबल ही संकल्प, साहस, शौर्य, पराक्रम के रूप में जाना जाता है उसी की बहुलता से आत्म संयम और मनोनिग्रह की व्यवस्था बन पाती है। यदि मनोबल क्षीण हो तो उच्चस्तरीय पुरुषार्थों का बन पड़ना या निभ सकना संभव नहीं। तप साधना और योगाभ्यास से संचित दुर्बुद्धि और अवाँछनीयता का परिमार्जन करना पड़ता है इसके लिए आन्तरिक क्षेत्र में महाभारत स्तर का साधना समर जीतना पड़ता है अन्यथा उठने वाले शुभ संकल्प भी टिक नहीं पाते और हवा के प्रवाह में उड़ जाने वाले बादलों की तरह तिरोहित हो जाते हैं।

आध्यात्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधनाएं अनेकानेक है पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं जो पुरातन अनर्गल अभ्यासों का उन्मूलन किये बिना सध सकती हो इस उन्मूलन में जितनी शक्ति लगने की आवश्यकता पड़ती है उसका संचय करने के लिए उपवास करने और मनोबल बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है इस हेतु आध्यात्मिक प्रगति के इच्छुकों को सबसे प्रथम आहार नियमन करना पड़ता है।


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