घटनाएँ जिनका रहस्य न जाना जा सका!

September 1987

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विज्ञान की अधुनात प्रगति और चन्द्रमा तथा मंगल ग्रहों पर विजय जैसे अभियान यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमान प्राणी है। परन्तु इसी कारण यह सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता, सामर्थ्यवान इकाई कहाने का अधिकारी नहीं हो जाता। प्रकृति के थोड़े से रहस्यों का अनावरण कर लेने भर से उस पर दिनोंदिन यह दम्भ छाता जा रहा है कि उसकी बराबरी कोई दूसरा प्राणी तो क्या प्रकृति भी नहीं कर सकती, लेकिन जब प्रकृति उसके सामने ऐसे सवाल कर देती है, जिन्हें वह सुलझा न सके तब मनुष्य को क्षुद्रता और अल्प सामर्थ्य का आभास होता है।

प्रकृति के कुछ रहस्य तो ऐसे हैं, जिन्हें देखकर बड़े-बड़े मूर्धन्य वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। संसार के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली हस्यात्मक ध्वनियाँ अभी भी मानवी बुद्धि को चुनौती दे रही हैं।

सन् 1961 से हडस्टन लाइब्रेरी में वायलिन का मधुर संगीत सुनाई पड़ता रहता है। वहाँ न तो कोई वाद्ययंत्र है और न ही कोई टेपरिकार्डर या ट्राँजिस्टर, जिसे कोई बजाता हो। वायलिन क्यों बजता है? कौन बजाता है? उसका पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की गई, लेकिन अभी तक कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। कुछ लोगों का कहना है कि बहुत पहले वहाँ एक अफसर रहता था, जो घण्टों वायलिन बजाया करता था। वह अब मर चुका है किन्तु संगीत अभी भी सुनाई देता है।

कभी-कभी ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं जिनका समाधान ढूँढ़े नहीं मिलता। एक घटना अक्टूबर 1962 की है। नैसविले, टिनेसी में जान हाकिन्स नामक व्यक्ति के मकान में सामने के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। आवाज सुनकर हाकिन्स ने जब दरवाजा खोला तो वहाँ कोई नहीं था। अन्दर से दरवाजा बद करके जैसे ही वह बैठा कि फिर से खट- खट की आवाज आई। इस प्रकार यह आवाज बार-बार आती रही। कुछ दिन बाद वह मकान के अन्य दरवाजों और खिड़कियों पर भी सुनाई देने लगी। पुलिस की चौकसी बिठाई गई, वैज्ञानिकों ने भी जाँच पड़ताल की, परन्तु कोई व्यक्ति नजर नहीं आया जो इस तरह की शरारत-पूर्ण हरकतें करता हो। दो माह तक दिन-रात इस तरह की आवाज बराबर आते रहने के पश्चात् स्वयमेव बन्द हो गई। आश्चर्य तो इस बात का है कि बिना किसी की उपस्थिति के भी दस्तक की आवाज लगातार कैसे आती रही? यह रहस्य अब तक अनसुलझा ही बना हुआ है।

प्रकृति के विभिन्न अंचलों एवं घटकों से निकलने वाली अद्भुत ध्वनियों को लैटिन में ‘ब्रोनटाइड’ कहा जाता है। इस तरह की आवाजों को विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर वैज्ञानिकों, यात्रियों ने खोजा भी है। गाने वाली बालू संसार के विभिन्न रेगिस्तानों में पाई जाती है। होनेलूलू के निर्जन हवाई टापू से रोते हुए कुत्तों की आवाज आती है। रात्रि के अंधेरे में यह आवाज और अधिक तीव्र हो उठती है। गाँबी मरुस्थल के ‘टकला माकान’ क्षेत्र में फैले रेत से एवं सहारा रेगिस्तान के टीलों से संगीत-मय ध्वनि प्रवाह निकलता रहता है। जैसलमेर में बालू के कुछ टीलों से कराहने की आवाज आती है। ऐसे अनेकानेक प्राकृतिक रेडियो स्टेशन हैं जो चित्र-विचित्र स्तर की ध्वनियाँ प्रसारित करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इन रहस्यों का पता लगाने के प्रयास, प्रयत्न भी किये हैं, पर अभी तक वे इतना ही ज्ञात कर पाये हैं कि प्रकृति में बालू की तरह के कुछ ऐसे कण हैं जो परस्पर संघात से प्राकृतिक ध्वनियों का सृजन करते हैं।

प्रकृति के अद्भुत रहस्यों का पता लगाने में अपने जीवन का अधिकाँश भाग खर्च करने वाले अन्वेषी विलियम आर. कार्लिस ने सौ वर्षों से अधिक समय से प्रकाशित विशिष्ट पत्र-पत्रिकाओं जैसे- ‘साइकोलॉजिकल बुलेटिन”, “लैन्सेट”, “अमेरिकन जर्नल आफ साइकिएट्री” आदि के माध्यम से प्राकृतिक आश्चर्यों को एकत्र किया है। उन्होंने इन रहस्यमयी घटनाओं से संबंधित 25 हजार से अधिक लेख लिखे हैं। साथ ही ‘सोर्स बुक प्रोजेक्ट’, ‘इनक्रेडिबुल लाइफ’, ‘दन अन फैदम्ड माइन्ड’ तथा ‘ऐनसियन्ट मैन’ जैसी अपनी प्रसिद्ध कृतियों में लगभग दो हजार घटनाओं का वर्णन किया है। उनका कथन है कि अभी तक प्राकृतिक रहस्यों के मात्रा कुछ ही अंशों को उद्घाटित करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है। उसका पच्चासी प्रतिशत भाग अभी भी अविज्ञात है। विश्व में जितनी भी जानकारी प्राप्त कर ली गई है, विभिन्न विषयों के एनसाइक्लोपीडिया में जितना ज्ञान संग्रह कर लिया गया है, उसकी तुला में विपुल अज्ञात बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उसे जान लेने पर ज्ञान-विज्ञान का भण्डार मनुष्य के हाथ लग सकता है।

विकासवाद के सिद्धान्त के प्रणेता प्रख्यात वैज्ञानिक डार्विन के पुत्र चार्ल्स फील्ड ने 1894 की ‘नेचर’ पत्रिका में रहस्यमय ध्वनियों - ब्रोनटाइडों का प्रकाशन कराया था। उनके अनुसार गंगा के डेल्टा स्थित वेरीसाल परगने से तोप दागने जैसी धाँय-धाँय की आवाज आती थी। कार्लिस ने इस लेख को पढ़ने के बाद अनी खोज में पाया कि ऐसी रहस्यात्मक ध्वनियाँ अनेकों स्थान पर भिन्न-भिन्न नामों से सुनी जाती हैं। उदाहरण के लिए बेल्जियम में मिस्टोफर की, स्काटलैण्ड में मूडस की, प्रशान्त महासागर में हैटी द्वीप समूह में गोफरी ध्वनियाँ सुनी जाती हैं। इनकी पुष्टि समय-समय पर अन्यान्य मूर्धन्य वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। रेडियो फिजिक्स तथा अनुसंधान केन्द्र कार्नेल विश्वािलय के निदेशक रामस गोल्ड ने कार्लिस के कार्यों को न केवल स्वीकृति प्रदान की वरन् ब्रोनटाइड को भी स्वीकारा है। अमेरिका के अत्यन्त धनीमानी मूर्धन्य पत्रकार कचार्ल्स फोर्ट ने भी अपना सारा जीवन प्राकृतिक आश्चर्यों को संग्रहित करने में ही व्यतीत कर दिया और अजूबों से भरी एक एनसाइक्लोपीडिया का निर्माण किया। कार्लिस ने लगभग चौबीस “फील्ड गाइड” द्वारा इन अज्ञात रहस्यों को समझने, समझाने का प्रयास किया है।

सुमात्रा - इण्डोनेशिया में एक ऐसा कुआँ है जिसके अन्दर झाँकने से दर्शक को एक के स्थान पर दो प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं। प्रकाश किरणों में ऐसी अद्भुत क्षमताएँ तो हैं कि वे किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब कहीं भी कैसा भी उल्टा-सीधा चित्र-विचित्र बना दें। किन्तु उसके लिए तरह-तरह के प्रिज़्म एवं लेन्सों का उपयोग आवश्यक होता है। इस कुएँ में कहीं कोई शीशा भी नहीं जड़ा है। आश्चर्य तो यह है कि जो दो प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं उनमें से एक तो स्वयं दर्शक का ही होता है, पर दूसरा किसी अपरिचित का। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि “ऑप्टिक्स” के सारे सिद्धान्तों से परे ऐसा क्यों कर होता है?

जाने वह कौन सी अभिशप्त घड़ी थी जब लैटले-फ्रांस में एक बार भयंकर तूफान आया। तेज बिजली कड़की और एक किसान के फार्म पर टूट पड़ी। इसमें हजारों की संख्या में काली और सफेद रंग की भेड़ें थी। बिजली से केवल निर्जीव वस्तुएँ बच सकती हैं, पर गोरे-काले के भेदभाव से उसे क्या लेना देना? किन्तु यहाँ उसने भेदभाव का बर्ताव किया। फार्म में जितनी काली भेड़ें थीं, बिजली गिरने से सबकी सब मारी गई, पर सफेद भेड़ों में से एक का भी बाल बाँका न हुआ। प्रकृति के भेदभाव युक्त इस व्यवहार को आज तक कोई भी वैज्ञानिक या बुद्धिजीवी मेधावी हल नहीं कर सका।

अद्भुत सृष्टा के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। इसका परिचय कभी-कभी इस प्रकार मिलता है। फ्राँस के मोमिन्स नगर में एक ऐसे बच्चे ने जन्म लिया, जिसने आनुवाँशिकी के समस्त वैज्ञानिक नियमों को उठा कर एक ओर फेंक दिया। व्रासर्ड नामक यह बालक वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य एवं अनुसंधान का केन्द्र बना हुआ है। उसकी एक आँख भूरी तथा एक आँख नीली है। जीव-विज्ञानी इस विचित्रता का कोई कारण नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं।

इसी तरह 1829 में लन्दन में चार्ल्सवर्थ नामक एक बच्चे ने जन्म लिया था और अनुवाँशिकी की नियमों को चुनौती दी थी। चार वर्ष की आयु प्रायः ऐसी होती है जब बालक अच्छी तरह बोल भी नहीं पाता, किन्तु चार्ल्सवर्थ चार वर्ष में ही पूर्ण वयस्क हो गया। उसके मूँछ दाढ़ी भी निकल आई। उसके व्यवहार, बातचीत में भी पूरी तरह बुजुर्गपन टपकने लगा। सात वर्ष की आयु में उसके सम्पूर्ण बाल सफेद हो गये और इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई। ऐसे मामले में अब ‘प्रोजेरिया’ व्याधि समूह के अंतर्गत माने जाने लगे हैं। इसी प्रकार इटली में एक ऐसा व्यक्ति हुआ है जिसका शरीर तो सामान्य था पर आँखें उल्लू जैसी थी। वह दिन में नहीं देख पाता था, किन्तु रात्रि के घोर अन्धेरे में भी किसी वस्तु को स्पष्ट रूप से देख सकता था। 41 वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई और वह रहस्य अब तक अनसुलझा ही बना रहा।

लन्दन में ‘एडवर्ड मार्डो’ नामक एक अँग्रेज अपनी शारीरिक विशेषताओं के कारण लोगों को आकर्षण का केन्द्र बना रहा। उसके दो चेहरे अन्य व्यक्तियों से अलग सहज ही उसका परिचय दे देते थे। सिर तो एक ही था, पर मुँह, आँख, नाक दोनों ओर थे। पीछे स्थित आँख से भी वह अच्छी तरह देख सकता था। पिछले मुँह से अस्पष्ट भाषा में बोलता था जबकि सामने का मुख सामान्य था।

इसी तरह शरीर विज्ञान के नियमों का उल्लंघन करने वाली फ्राँस के टुरकुइंग नगर में एक बच्ची ने जन्म लिया। उसके अन्य अंग-अवयव तो सामान्य थे, किन्तु आँख एक ही थी और वह भी दोनों भौहों के मध्य, जहाँ आज्ञाचक्र की उपस्थित बतायी जाती है।

मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति को जुटाकर अतिमानव बन सकता है, इसमें सन्देह नहीं। इतना होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते। इसलिए कि उसकी इच्छा और माँग के विरुद्ध भौतिकी और पराभौतिकी क्षेत्र में ऐसी सैंकड़ों घटनाएं घटती रहती हैं, जिनका नियंत्रण तो दूर वह उस रहस्य तक को नहीं जान पाता कि उनका कारण क्या है? जब कि निसर्ग में उस तरह का स्वयं कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं होता, उदाहरण के लिए पेरिस के एक प्रख्यात वकील जैक्विसल हरवेट 4 वर्ष की आयु के बाद से ही 72 वर्ष की उम्र तक एक क्षण भी नहीं सोये। इससे न तो उनके स्वास्थ्य पर कुछ बुरा प्रभाव पड़ा और न काम-काज पर ही। मृत्यु-पर्यन्त वे पूर्णतः स्वस्थ रहे।

1957 में केन्टुकी बालगृह लिंडन में एक ऐसी घटना प्रकाश में आई जिसे देख सुनकर मूर्धन्य चिकित्सा-शास्त्री आश्चर्यचकित रह गये। इस बालगृह में एक छः वर्षीय बाँबी नामक निर्धन बालक को भर्ती कराया गया। वह कुपोषणजन्य बीमारियों का शिकार था। उसकी चिकित्सा कर रहे डाक्टरों को यह देखकर बहुत अचम्भा हुआ कि अविकसित और अशिक्षित बाँबी लैटिन, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, टर्किश भाषा सहित पाँच कठिन भाषाओं का पूर्ण ज्ञाता है। 12 वर्ष की आयु तक वह बीस भाषाएँ पढ़ने की क्षमता रखता था।

अभी-अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र से एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है, जिसका रहस्य वैज्ञानिक जेनेटीक्स से लेकर आधुनिकतम चिकित्सा विभाग की किसी विधा में न पा सके। एक ट्रक ड्राइवर ने नासिक के समीप सड़क पर पड़े अजगर के ऊपर से अपना ट्रक चढ़ा कर यात्रा तो कर ली, पर खौफ मन में छाया रहा। कुछ ही दिन बाद उसकी पत्नी ने डेढ़ वर्ष के अन्तराल में दो बच्चों को जन्म दिया, जिनकी सारी त्वचा अजगर की तरह थी। सारे उपचार निरर्थक सिद्ध हुए। न इसे भय की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है, न ही सहज संयोग, क्योंकि उसकी पत्नी पहले से ही गर्भवती थीं कोई इसे अभिशाप भी कह सकता है, पर आज के विज्ञान प्रधान युग में कोई तक सम्मत जवाब किसी के पास नहीं है।

माउल्ंिटग-केंचुल छोड़ने अर्थात् त्वक्मोचन के लिए साँप प्रसिद्ध है। किन्तु यदि यही प्रक्रिया मनुष्य की त्वचा के साथ घटित होने लगे तो उसे असामान्य ही कहा जायेगा। 1981 में शिकागो मेडिकल सोसाइटी ने एक ऐसे व्यक्ति का उपचार किया, जिसे 12 घण्टे के लिए तीव्र बुखार आता था। देह की सारी त्वचा लाल सुर्ख पड़ जाती और इसके बाद बड़े-बड़े टुकड़ों में केंचुल की तरह छूटती जाती। जिस तरह दस्ताने या मोजे उतारे जाते हैं उसी तरह चमड़ी की परतें उतरने लगतीं। तब तक इसका स्थान नई त्वचा ले चुकी होती।

प्रकृति के रहस्य अगम हैं और उससे भी रहस्यपूर्ण और विचित्र है-सूक्ष्म चेतन संसार। प्रकृति जब-तब मनुष्यों के सामने इस प्रकार की चुनौती भरे प्रश्न खड़े करती रहती है, जिन्हें लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझाया नहीं जा सकता। अभी तक तो यही ठीक से जान पाना सम्भव नहीं हुआ है कि प्रकृति में क्या-क्या है? उसके सम्पूर्ण रहस्यों को समझ पाना तो दूर की बात रही। फिर चेतन तत्व कितना गूढ़ होगा? क्या उसके रहस्यों का अनुमान लगाया जा सकता है?


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