मनुष्य शरीर अनेक प्रकार के क्रिया-कलाप करता दीखता है। पर शरीर भी जड़ पदार्थों का बना है। उसमें जी क्षमता नगण्य है। वह भी तभी तक बनी रहती है जब तक कि उसमें प्राण विद्यमान है। प्राण के विलग होते ही शरीर न केवल निःचेष्ट हो जाता है वरन् सड़ने भी लगता है। इससे स्पष्ट है कि शरीर का आधार प्राण पर अवलम्बित है। प्राण की शक्ति शरीर के स्वसंचालित क्रिया-कलापों को गतिशील रखती है। रक्ताभिषरण, श्वास प्रश्वास, चयापचय, निमेष-उन्मेष आदि का क्रम प्राण ही चलाता है। प्राण जीव चेतना का वह भाग है जिसे सचेतन विद्युत की संज्ञा दी जा सकती है।
इसके अतिरिक्त चेतना के दो और भाग है, एक विचार और दूसरा भाव। जब तक शरीर प्राण शक्ति से संचित रहता है तब तक वे दोनों अपना काम करते रहते हैं। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब शरीर को मूर्छना घेर लेती है। रात को सोते समय शरीर तो जीवित रहता है, पर मस्तिष्क निद्राग्रस्त होने से स्थिति अर्धमृत वैसी हो जाती है। शल्य चिकित्सक औषधियों द्वारा भी ऐसी स्थित उत्पन्न कर देते हैं। इन मूर्छित परिस्थितियों को छोड़कर सजग स्थिति में चेतना के महत्वपूर्ण पक्ष काम करते रहते हैं, जिन्हें विचार और भाव के नाम से जाना जाता है। चेतना का प्रमुख पक्ष यही है।
भावनाएँ असाधारण स्थिति की परिस्थितियों के आधार पर उत्पन्न हुए उभार है। प्रेम, मिलन, विछोह, क्रोध, भय जैसी असाधारण स्थिति सामने आने पर भी मनुष्य भाव विभोर होता है और दूसरों को संकटग्रस्त देखकर भी दया, करुणा जैसी भावनाएँ उठती और सेवा सहायता के लिए प्रेरित करती है। प्रत्यक्ष दृश्य देखने वाली घटना स्थिति में तो संवेदनाएँ उठती ही हैं। ऐसा भी होता है कि उनकी भाव स्मृति तीव्रतापूर्वक उभरने पर भी विह्वलता की स्थिति आ जाती है। ऐसा संवेदनशील भावुक जनों में ही प्रायः बहुलता से होता है। कुछ निष्ठुर प्रकृति के परमहंस प्रकृति के ऐसे भी होते हैं जो भावशून्य मनःस्थिति के होते हैं, उन्हें केवल अपनी निजी कठिनाई ही दुःखी करती है। दूसरों के ऊपर क्या बीतती है? इससे उनका कोई लगाव नहीं होता। भावुकता एक शक्ति है जिसमें सहृदय व्यक्ति असाधारण वेदना अनुभव करता है। उसके आवेश में कभी-कभी स्वयं उद्विग्न हो उठता है। कभी दूसरों की सहायता लिए अपना बहुत कुछ निछावर कर देता है। इसी को अध्यात्मिक संवेदनाओं में भक्ति नाम से जाना जाता है। भक्ति की महत्ता बताने वालों ने यहाँ तक कहा है कि उससे भगवान मिलते हैं। वस्तुतः भावुकता की शक्ति असाधारण है। आदर्शवादियों को महान त्याग बलिदान कर गुजरने की प्रेरणा इसी से मिलती हैं निष्ठुर प्रकृति के स्वार्थी एवं संकीर्ण स्तर के होते हैं उन्हें अपने सिवाय और किसी से लगाव नहीं होता।
भावनाओं का उभार शरीर और मन को भाव विभोर कर देता है। संवेदनशीलता चरित्रनिष्ठा की रीढ़ है। जिसे दूसरों का कष्ट अपने कष्ट के समान लगता है। वह परपीड़न वाला कोई काम नहीं कर सकता। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की मनःस्थिति जिनकी भी होती है उन्हें सेवा सहायता, करुणा, दया की संवेदनाएँ सहज उमंग जाती है उन्हें परपीड़ा अपनी जितनी पीड़ा के समतुल्य लगने लगती है। इस स्तर के लोगों को सन्त कहा गया हैं सन्त की व्याख्या करते हुए उन्हें नवनीत से भी बढ़कर बताया गया। मक्खन अपने ऊपर ताप का प्रभाव पड़ने से पिघलता है, पर सन्त हृदय व्यक्ति दूसरों का दुःख भी सहन नहीं कर सकते वे ऐसे अवसरों पर रुदन करते चुप नहीं बैठ जाते वरन् बढ़-चढ़कर सहायता भी करते हैं। सेवा उनका धर्म बन जाता है। वे अपनी चिंता कम और दूसरों की अधिक करते हैं। दूसरों की सहायता करते हुए उन्हें अपने निजी लाभ से बढ़कर प्रसन्नता होती है।
प्राण सजीवता का ही नहीं, वह साहसिकता का भी चिन्ह है वह सचेतन विद्युत शक्ति है। इसे जीवट शौर्य पराक्रम, स्फूर्ति आदि के रूप में भी देखा जाता है। इससे समूचा व्यक्तित्व होता है। प्रतिभा इसी की बहुलता से निखरती है। यह शरीर और मन को कार्य करने योग्य क्षमता प्रदान करती है। सूक्ष्म साधनों से इन्हें शरीर के इर्द-गिर्द विशेषतया चेहरे और हाथों के आस-पास तेजोवलय के रूप में देखा जा सकता है। प्राणवान व्यक्ति दूसरों को अपने प्रभाव से आच्छादित कर लेते हैं। दुर्बल प्राण दूसरे सामर्थ्यवानों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं। यह शरीर की जड़ता और आत्मा की चेतना का संयुक्त सम्मिश्रण है। इसी के आधार पर जीवन की गाड़ी गतिशील रहती है। उसके दुर्बल पड़ जाने से मनुष्य, दुर्बल, रुग्ण, निस्तेज, कातर स्तर का हो जाता है। आत्म-विश्वास गवाँ बैठता है। धरावलम्बी स्वभाव अपना लेता है। इसका दुर्बल शरीर से पलायन होने लगता है। जीर्णता छा जाती है और उसका अभाव हो जाने पर मृत्यु आ धमकती है। प्राण के कारण उमंगें उठती रहती है। प्रतिस्पर्धा में उतरने को मन करता है। ऊंचा उठने आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति सजीव हो उठती है। यह प्राण आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, व्रत, संकल्प आदि उपायों से बढ़ाया भी जा सकता है। शरीर की तरह इसकी अभिवृद्धि भी संभव है।
भावना, प्राण प्रतिभा के अतिरिक्त चेतना की तीसरी धारा है - विचारणा। वह आरम्भ में अभिरुचि के क्षेत्र में कल्पना रूप में उभरती है। मन की चंचलता प्रसिद्ध है। मस्तिष्क तंत्र की संरचना ही ऐसी है कि उसमें से निरन्तर तरंगें उठती रहती हैं इन तरंगों के साथ कोई भूतकालीन स्मृति अथवा भविष्य की सम्भावना का मानसिक चित्र जुड़ जाता है। यदि यह अनायास ही अनिच्छापूर्वक उभरा है तो देर तक न टिकेगा। जल्दी ही समाप्त हो जायेगा। परि यदि आकाँक्षा, अभिलाषा के आधार पर कल्पना उठी है तो उसके साथ कड़ियाँ जुड़ती रहती है और एक कथा कहानी जैसी शृंखला बन जाती हैं। मन इसी कल्पना लोक में रमण करता रहता है। यह बच्चों की खिलवाड़ जैसा दृश्य है।
मन के ऊपर अंकुश है- बुद्धि का। बुद्धि यह निरीक्षण परीक्षण करती रहती है कि कल्पनाओं में से कौन-सी कार्य में आने योग्य है और कौन अव्यावहारिक? मन की चेतनाओं में से उन्हें कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? कौन साधनों के, परिस्थितियों के, योग्यताओं के विपरीत है? असंबद्ध, कल्पनाओं की बुद्धि रोकती टोकती रहती है जिन्हें बुद्धि का समर्थन नहीं मिलता वे कल्पनाएं धुंधली पड़ती जाती है और समाप्त हो जाती हैं। जिन्हें बुद्धि की मान्यता मिलती है जो उत्साहवर्धक प्रतीत होती हैं उनका ताना-बाना बुना जाना आरम्भ हो जाता है। योजनाएँ बनती हैं और सोचा जाता है कि इच्छा पूर्ति के लिए किन-किन विकल्पों को प्रयुक्त किया जा सकता है बात आगे बढ़ती जाती है और वह समय समीप आ जाता है जब मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए बुद्धि संगत प्रयास चल पड़ते हैं और वह व्यवधानों से टकराता हुआ अभीष्ट निर्धारण तक जा पहुँचता है। क्रिया-कलापों को सफलता तक पहुँचने के लिए पग-पग पर कल्पना और बुद्धिमता का मिला जुला योगदान लेना पड़ता है।
विचारों का एक भाग वह है जो अपनी इच्छा पूर्ति के लिए निरत रहता है, पर वह एक मात्र मन है। इससे आगे भी मन तंत्र के कई विभाग है। एक ऐसा है जो संपर्क क्षेत्र की दूरी तक विचार करता रहता है। देश की, समाज की समुदाय की, परिस्थितियों के संबंध में जानकारियाँ प्राप्त करता है। यह कार्य पत्र, पत्रिकाओं रेडियो, दूरदर्शन, गोष्ठी-कथन आदि द्वारा विदित होता है। साथ ही उसके कारण-निराकरण, औचित्य-समाधान आदि का स्वरूप भी जानने को मिलता है। विश्वकोष जैसी पुस्तकें भी वैसी जानकारियाँ उपलब्ध कराती हैं। स्कूली कक्षाओं में भी विभिन्न विषय के ज्ञान कराये जाते हैं। पुस्तकालयों से भी वह लाभ मिलता है, विचारशील विद्वान, बहुश्रुत बनने का लाभ इन्हीं आधारों के सहारे मिलता है। हर विषय पर निजी कल्पनाएँ करने से भी उसकी गहराई में पहुँचने का अवसर निजी मेधा बुद्धि के सहारे भी मिलता है। जिसके पास विचार सम्पदा जितनी अधिक है उसे उसी स्तर का मनीषी माना जाता है।
विचारों में एक शक्ति सामर्थ्य भी है। वह दूसरों को कथन श्रवण, पठन के माध्यम से जानकारियों का विस्तार तो करती ही है। साथ ही संपर्क में आने वालों को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित भी करती हैं। हर स्तर के व्यक्ति की अपनी-अपनी विशेषताओं से भरी हुई विद्युत चुम्बक शक्ति होती है जो समीपवर्ती लोगों पर अपना प्रभाव डालती है। सत्संग से किसी को विचारों द्वारा अवगत और प्रभावित किया जाता है। किन्तु ऐसा भी होता है कि प्रतिभावानों की प्रभाव शक्ति अनायास ही दूसरों पर अपनी छाप छोड़ती है जिन्हें जिस प्रकार के लोगों के साथ रहना पड़ता है वे वैसे ही साँचे में ढलने लगते हैं। बुरे लोगों का जहाँ बहुमत या प्रभाव होता है वहाँ भी यही प्रतिक्रिया होती देखी गई है। यह विचारों का ही चमत्कार है, जिनमें जितनी प्रतिभा होती है वे उतने ही अधिक प्रभावशाली होते हैं। यह प्रभाव उत्तम स्तर का भी हो सकता है और निकृष्ट स्तर का भी। सामान्य लोग उस प्रवाह में बहने लगते हैं। किंतु साथ ही यह भी देखा गया है कि जिनका व्यक्तित्व सामर्थ्यवान है वे दूसरों के प्रभाव को अस्वीकार कर देते हैं। उन्हें कोई समझ नहीं सकता है। उन्हें बदला भी नहीं जा सकता है। आग्रही, हठभावी इसी प्रकार के होते हैं वे अपने को सबसे बड़ा मानते हैं। अहंकार से उनका स्वभाव भरा होता है। ऐसे लोग अपनी मान्यता को सर्वोपरि ठहराते हैं और दूसरों के अभिमत पर विचार करने तक को तैयार नहीं होते। ऐसे लोगों को मूढ मति की संज्ञा दी जाती हैं ऐसे जिद्दी पढ़े लिखे लोगों में भी हो सकते हैं और बिना पढ़े में भी। जिनके स्वभाव में लोच होता है वे दूसरों के द्वारा दी गई जानकारियों पर विचार करते हैं और उसमें जितना अंश औचित्यपूर्ण लगता है उतना ग्रहण कर लेते हैं। कुछ अधिक भावुक या कोमल अथवा सहज विश्वासी प्रकृति के होते हैं उन्हें कोई भी बहका सकता है। तर्क और संदेह का अभाव होने से वे किसी के भी फुसलाने से उसी ओर लुढ़क जाते हैं। ठग ओर प्रपंचों ऐसे ही लोगों को अपना शिकार बनाते और उल्टे उस्तरे से हजामत बनाते हैं।
विचारों में परिपक्वता काफी चिंतन मनन के बाद आती है। इसके लिए पक्ष-विपक्ष के तर्क तथा प्रमाण उदाहरण ढूंढ़े जाते हैं और उनका तुलनात्मक विवेचन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि कौन-सा पक्ष अधिक वचनदार है। न्यायाधीशों को यही करना पड़ता है। वे वादी और प्रतिवादी के कथनों और प्रस्तुत किये गये प्रमाणों की वास्तविकता, अवास्तविकता का विचार करते हैं और जिस ओर से प्रतिपादन अधिक वचनदार प्रतीत होता है उसी पक्ष में फैसला देते हैं। सामान्य जीवन में भी ऐसी स्थिति बार-बार आती है। जब एक ही प्रसंग पर दो प्रकार के या कई प्रकार के मतभेद होते हैं। विचारक को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व उन सभी तथ्यों की गहराई में उतरना पड़ता है जो सामने प्रस्तुत है। उनमें जिसमें जितना विश्वस्त और जितना अविश्वस्त होता है उसी के आधार पर अपना मत बनाया है और निर्णय किया जाता है। तर्क का आश्रय लिए बिना प्रमाणों की अपेक्षा किये बिना किसी के भी कथन पर जो भरोसा कर लेते हैं वे अवसर धोखा खाते हैं।
कभी-कभी कुछ अपवाद ऐसे भी देखे जाते हैं जिनमें मानस तंत्र अविकसित रहने पर मूढ़ता छाई रहती है। इसके विपरीत कुछ लोग आरम्भ से ही तीक्ष्ण बुद्धि होते हैं। इन अपवादों को छोड़कर सामान्य जनों में माध्यम स्तर की विचारशीलता होती है। पर उसका विकास किस सीमा तक हो सका यह इस बात पर निर्भर है कि बुद्धि का उपयोग किस सीमा तक किया गया। यदि कल्पना ही अपनी उड़ाने उड़ती रहती है तो उसे बचकानापन कहा जायेगा। ऐसे लोग वास्तविकता तक नहीं पहुँच पाते हैं और बेघर की उड़ाने उड़ते रहते हैं। यही बात अतिवादियों के सम्बन्ध में भी है। अति भावुक या अति आदर्शवादी भी व्यावहारिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते और पग-पग पर चूक करते रहते हैं। व्यावहारिकता ही विचारशीलता की कसौटी है। किसी कथन या उल्लेख को ही सब कुछ नहीं मान बैठना चाहिए वरन् देखना चाहिए कि न्याय औचित्य कहाँ है। परिस्थितियों के साथ किस प्रतिपादन का ताल मेल खाता है। इस प्रकार विचार करते रहने पर समयानुसार हर व्यक्ति बुद्धिमान विचारवान बन सकता है।