चले विज्ञान अब अध्यात्मिक का कर थाम कर जग में

September 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जड़ पदार्थ और मनुष्य की प्राण चेतना मिल जुलकर ही वह स्थिति उत्पन्न करते हैं, जिससे मानवी ज्ञान और प्रकृतिगत साधनों का सदुपयोग हो सके। दोनों एक दूसरे से अलग रहने पर वे प्रयोग में नहीं आ सकते और एक प्रकार से निरर्थक ही पड़े रहते हैं। दोनों का समन्वय ही है, जिसने दुनिया को इतनी सुन्दरता और सुव्यवस्था प्रदान की है। एक को दूसरे के सहारे ही अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का अवसर मिला है। इसलिए ज्ञान और विज्ञान के बीच घनिष्ठ सहयोग करना उपयुक्त है।

देखा जाय तो विज्ञान का व्यावहारिक उत्कर्ष अभी कुछ ही शताब्दियों के अंतर्गत हुआ है। उसकी यह बात एक सीमा तक ही सही बैठती है कि जिसे प्रत्यक्ष देख लिया जाय उतने को ही मान्यता दी जाय। पर यह बात धर्म के संबंध में पूरी तरह लागू नहीं होती। उसमें श्रद्धा और विश्वास को प्रधान मान्यता दी जाती है।

नवोदित विज्ञान की मान्यता थी कि जिन पंच तत्वों के मिले से चेतना की उत्पत्ति होती है, उसका अन्त भी तत्वों के विखण्डन होने के साथ-साथ ही हो जाता है, अर्थात् आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। वह भी शरीर के साथ जन्मती और मृत्यु के साथ मर जाती है। मनुष्य चलता- फिरता पेड़ पौधा है।

इसी प्रकार विज्ञान की ईश्वर के संबंध में भी यह मान्यता थी कि ‘ईश्वर’ नाम की कोई अलग वस्तु है। प्रकृति के नियमों को ही कोई चाहे तो ईश्वर कह सकता है, पर इस मान्यता के रहते तो व्यक्ति को आदर्शों के साथ बाँधना भी किस प्रकार सम्भव हो सकता था? फलतः अनैतिकता का माहौल बनता चला गया और उससे सामाजिक संगठन को अपार क्षति पहुँची।

वस्तुतः मनुष्य की गरिमा वैयक्तिक आदर्शवादिता और सामाजिक मर्यादा के पालन में है। अन्ध विश्वासी प्रचलनों को छोड़कर उपयोगी अनुबंध स्वीकारने पर ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन का ढर्रा ठीक प्रकार चल सकता है। “अंधेर नगरी-बेबूझ राजा” की उक्ति चरितार्थ करने पर तो पारस्परिक स्नेह-सहयोग और उदार व्यवहार के सारे आदर्श ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि तथाकथित विज्ञान-वाद के फेर में मनुष्य को नियंत्रण में रखने के लिए मात्र राजकीय कानून ही शेष रह जाते हैं, जिनसे बच निकलना मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी के लिए तनिक भी कठिन नहीं है।

अस्तु, चेतना और सम्पदा के बीच तालमेल बिठाये रखने के लिए उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र की महती आवश्यकता रहती है। अधकचरे विज्ञान की मान्यताएँ उस उत्कृष्टता की जड़ें काटती है, जिनके सहारे मनुष्य श्रेष्ठ बनता और दूसरों को श्रेष्ठ बनाता है, स्वयं उठता और दूसरों को उठाता है।

विज्ञान ने धर्म के संबंध में जो विकृत मान्यताएँ बनायी थीं, उसका परिणाम जब वैयक्तिक जीवन और समाज-व्यवस्था के क्षेत्र में अराजकता जैसा दीखने लगा तो प्रतीत हुआ कि यह मान्यताएँ उसी उपयोगितावाद का समर्थन करेंगी, जिसमें बड़ी मछली छोटी को खा जाती और बड़ा पेड़ नीचे के पौधों की खुराक का अपहरण कर लेता है। यह “जिसकी लाठी, तिसकी भैंस” वाला जंगली कानून यदि मनुष्य में भी अपनाया जाने लगा, तो समर्थों की बन पड़ेगी और असमर्थ धरती पर से मिट जायेंगे।

विज्ञान ने पिछली शताब्दी की मान्यताओं में उसके गुण-दोष को देखते हुए नये सिरे से विचार किया है और जो पिछले दिनों कहा जाता था, उसमें आमूल-चूल परिवर्तन भी किया है।

सृष्टि की कार्यविधि कितनी व्यवस्थापूर्ण है, यह “इकॉलाजी” सिद्धान्त का पर्यवेक्षण करने पर सहज ही समझा जा सकता है। सृष्टि के किसी भी पक्ष की जाँच-पड़ताल की जाय, तो उसमें एक घटक दूसरे घटक के साथ अनवरत सहयोग करता दिखाई पड़ता है। इतनी बुद्धिमता पूर्ण साँसारिक व्यवस्था और मानवी प्रकृति के भीतर पग-पग पर लागू होने वाले ‘इकॉलाजी” सिद्धान्त को देखते हुए हर किसी की सहज मान्यता बनती है कि संसार का कोई बुद्धिमान सृष्टा होना चाहिए, जो राह बताने और भूल सुधारने की योग्यता से सुसम्पन्न है। आकाश में इतने सारे ग्रह-नक्षत्रों की भगदड़ और उनका स्वभाव यदि क्रमबद्ध न हो, तो संसार में सुख-शान्ति नाम की कोई वस्तु ही शेष न रहे।

यही सिद्धान्त यदि हम मानव की प्रतिभा के अनायास ही संभावित समय से पूर्व विकसित होने, विलक्षण क्षमताओं से सुसम्पन्न होने वाले उदाहरणों पर लागू करें तो पाते हैं कि कोई न कोई ऐसी व्यवस्था जरूर है जो पूर्व जन्म के संचित संस्कारों को, ज्ञान सम्पदा आदि को पीढ़ी दर पीढ़ी अथवा एक जन्म से दूसरे में पहुँचाने में महती भूमिका निभाती है। अब तो मरणोत्तर जीवन के इतने अधिक प्रमाण ढूँढ़ निकाले गये हैं, जिनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आत्मा की अपनी स्वतंत्र सत्ता है और वह काया के न रहने पर भी किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखती है। यह अधकचरे विज्ञान की भूतकालीन मान्यताओं का खण्डन है।

मानवी अन्तःकरण में आदर्शों के निर्वाह की आकाँक्षा है। उसके प्रतिकूल आचरण करने पर अन्तर्द्वन्द्व खड़ा हो जाता है और उस आधार पर शारीरिक और मानसिक रोगों की झड़ी लग जाती है। शरीर मात्र रक्त माँस के आधार पर ही निरोग नहीं रहता, वरन् उसके प्रत्येक घटक को मानसिक विद्युत शक्ति का भी असाधारण प्रभाव सहना पड़ता है। असंतोष, उद्वेग, रोष, आक्रोश जैसे विकारों के कारण मनुष्य का व्यक्तित्व हर किसी की दृष्टि में हेय ठहरता है। साथ ही शरीर और मन में अनेकों प्रकार की अव्यवस्थाएँ उभरने लगती हैं जो असाध्य रोगों का रूप ले लेती हैं। यह अनैतिकता का प्रत्यक्ष दुष्परिणाम है।

देखा गया है कि आदर्शवादी चिन्तन, चरित्र और व्यवहार रखने वाले सर्वत्र सम्मान और स्नेह-सहयोग अर्जित करते तथा अन्तरंग-बहिरंग दोनों ही दृष्टि से समुन्नत स्थिति प्राप्त करते हैं। यह व्यवस्था पूरे समाज में गतिशील होते हुए यह स्पष्ट मानना पड़ता है कि चेतना के स्तर के साथ ही जीवन के उत्थान-पतन के अनेकों सूत्र जुड़े हुए हैं।

विचारों की शक्ति को अब एक प्रकार की जीवनी शक्ति माना जाने लगा है, जिसके सहारे कर्म बन पड़ते हैं, परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं और वे ही सुख-शाँति अथवा प्रतिरोध-विक्षेप का निमित्त कारण बनती हैं। व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति बनता है, इसलिए दोनों को सही-संतुलित रखने के लिए हमें वही सोचते रहना चाहिए जो व्यक्तित्व की गरिमा बढ़ाने की दृष्टि से समग्र एवं उच्चस्तरीय हो।

देश भक्ति, समाज सेवा, संयम, पुण्य परमार्थ जैसे आदर्श अपनाना आत्मिक प्रेरणा पर ही सम्भव है, क्योंकि इस प्रकार के आचरणों से तात्कालिक घाटा सहना पड़ता है। सत्परिणाम तो समय साध्य है। किन्तु महानता उन्हीं विशेषताओं तथा विभूतियों पर निर्भर है। यह उत्कृष्टता तथाकथित मनोविज्ञान के आधार पर नहीं बन पड़ती। क्योंकि प्रत्यक्षवाद में तत्काल लाभ को ही मान्यता मिलती है, जबकि कालान्तर में परिणामों के मिलने की बात को आत्मा की अमरता और सृष्टि में चल रही व्यवस्था के आधार पर ही सही सिद्ध किया जा सकता है पाश्चात्य मनोविज्ञान की दृष्टि से तो मनुष्य और पशु एक ही बिरादरी के बनते हैं। इसलिए उनमें भी दया, करुणा, परोपकार जैसी धर्म-धारणाओं की अपेक्षा की जानी चाहिए, किन्तु पशु तो निरन्तर स्वार्थ-वृत्तियों से ही ग्रसित रहते हैं। फिर दान, सेवा, पुण्य, परमार्थ, आत्मीयता, देश भक्ति, त्याग, बलिदान जैसे किसी आदर्श को अपनाने की बात तभी सम्भव हो सकती है, जब उनके द्वारा मानवी उत्कृष्टता को अपनाया जा सके। वैज्ञानिकों से लेकर हर उच्चस्तर के व्यक्ति को अपना स्वार्थ गौण करना पड़ता और लक्ष्य को प्रधानता देनी होती है। यहाँ तक कि उस मार्ग पर चलने वालो को कष्ट में रहते हुए भी संतोष एवं प्रसन्नता की आदत डालनी पड़ती है। इसके लिए प्रयत्न कर सकना पशु की स्थिति में नहीं बन पड़ता, जबकि तथाकथित वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य बन्दर से ही विकसित होकर बना है और बन्दर एवं पशु का समूचा आन्तरिक ढाँचा संकीर्ण स्वार्थपरता के ढाँचे में ही ढला है। उत्कृष्टता की प्रेरणा व उल्लास की मानवी प्रवृत्ति विकासवाद के तथाकथित सिद्धान्तों को झुठलाती है।

अब विज्ञान की प्रगति के साथ वे सूत्र भी मिले हैं, जिनके आधार पर ईश्वर, आत्मा, कर्मफल, आदर्शवादिता जैसे तथ्यों को न केवल व्यक्ति एवं समाज की भलाई को ध्यान में रखते हुए, वरन् इन उच्चस्तरीय दैवी विभूतियों को विशुद्ध पदार्थ विज्ञान के आधार पर भी सिद्ध प्रतिपादित किया जा सकता है।

पर यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य को पशु या पौधा कहने वाले विज्ञान की हर बात सही ही मानी जाय। मनुष्य की अपनी विशेषता और मर्यादा है और उनका समुच्चय ‘धर्म’ कहा जाता है। यहाँ धर्म शब्द का उपयोग सम्प्रदायवाद के अन्ध विश्वासों के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा रहा। सम्प्रदाय रीति-रिवाजों के आधार पर बनते और चलते हैं। यह मान्यताएँ मनुष्यकृत हैं और एक समुदाय के लोग मिलजुल कर जो ढर्रा अपना लेते हैं, वही ढर्रा सम्प्रदाय के लोग मिल जुल कर जो ढर्रा अपना लेते हैं, वही ढर्रा सम्प्रदाय बन जाता है। उनमें मतभेद के साथ-साथ पूर्वाग्रह होना भी स्वाभाविक है। उस भावोन्माद में औचित्य पर विचार करने की गुंजाइश नहीं रहती। इन सम्प्रदायों ने ही कलह के बीज बोये और समाज की अखण्डता को चुनौती दी है। यदि यह मोटी बात समझाई जा सके कि धर्म और सम्प्रदाय दो अलग-अलग घटक हैं एवं धर्म का विकृत स्वरूप अनुपयुक्त प्रतीत होने पर उसका विरोध विज्ञान के द्वारा किया जाना चाहिए तो निश्चित ही विज्ञान की उपादेयता सर्वमान्य होगी।

समष्टिगत हित की बात सोचें तो धर्म और विज्ञान के बीच असहयोग या विरोध का होना हर दृष्टि से मानव समाज के लिए अहितकर है। धर्म को मानवी आदर्शों का सार्वभौम आदर्श माना जाय और उसका विज्ञान के आविष्कारों, तथा प्रयोगों पर अंकुश रहे, ताकि अणु बम, रासायनिक गैसें जैसे अवाँछनीय निर्माण और प्रयोगों पर रोक लगे। विज्ञान का उपयोग मात्र लोकहित में ही किया जाय।

इसी प्रकार आवश्यकता इस बात की भी है कि धर्म को विज्ञान की कसौटी पर कसा जाय और उसके विवेक, न्याय, सहयोग, स्नेह वाले पक्षों को भी मान्यता मिले। धर्म के नाम पर जितनी कुरीतियाँ, रूढ़ियां, मूढ़-मान्यताएँ प्रचलित हैं, उन्हें धर्म के उच्च सिंहासन से पदच्युत करके सम्प्रदायों के खण्डहरों में जमा कर दिया जाय। नये या पुराने होने के नाम पर किन्हीं मान्यताओं को श्रेष्ठ या निकृष्ट न ठहराया जाय।

विज्ञान ने धर्म को प्रतिगामी बता कर खूब कोसा है और धर्म ने विज्ञान को छिछोरा कहकर गालियाँ दी हैं। इसलिए वे दोनों एक-दूसरे से दूर ही हटते गये हैं। फलस्वरूप दोनों ही क्षेत्रों में अराजकता फैली है। विज्ञान ने हर क्षेत्र में हिंसा का खुला समर्थन किया है और तत्वदर्शन की प्रत्येक हिंसा का खुला समर्थन किया है और तत्वदर्शन की प्रत्येक मान्यता का उपहास उड़ाया है। ठीक इसी प्रकार धार्मिकों की दृष्टि में वैज्ञानिकों को आसुरी साधनों का सहायक संवर्धक कहा है। इससे चिढ़ बढ़ी है और परस्पर विग्रह का वातावरण बना है, जबकि होना यह चाहिये था कि धर्म अपने आपको विज्ञान की कसौटी पर खरा सिद्ध करने के लिए साहस जुटाता और प्रचलित मूढ़-मान्यताओं का निःसंकोच खण्डन करता। दूसरी और विज्ञान का भी यह कर्तव्य था कि धर्म की छत्रछाया में अपनी दिशा धारा का निर्माण करता, अपना उच्छृंखल उपयोग न होने देता, भविष्य में इसी समन्वय को अपनाना पड़ेगा। तभी विज्ञान के सहारे भौतिक और धर्म के सहारे आध्यात्मिकता का पथ प्रशस्त होगा। दोनों के समन्वय से समग्र सुख शान्ति का आधार खड़ा होगा।

सही, सुखद और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने योग्य अध्यात्मिक को प्रतिष्ठित करने के लिए यह आवश्यक है कि सुधारक वर्ग सामने आये। निहित स्वार्थों वाले सन्त-महन्त वंश और वेश के नाम पर धन और सम्मान की लूटमार करते रहने वाले, लोगों को भ्रम जंजालों में फंसाने से बाज न आयें, तो विचारशील लोगों का कर्तव्य है कि लोक मानस में वैसी प्रखर चेतना जगायें, जो धर्म का स्वरूप पहचानने योग्य बुद्धिमता का परिचय दे सके। साम्प्रदायिक दुराग्रहों में जो अनुपयुक्त अंश घुस पड़ा है, उसे छाँटकर कूड़े-करकट की तरह बुहार कर किसी कूड़ेदान में डाल दें। इस प्रकार का परिशोधित और परिष्कृत धर्म अध्यात्मिक ही विज्ञ समुदाय तथा वैज्ञानिक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने योग्य और लोक मानस के दबाव से वैज्ञानिक शोधों और प्रचलनों को नीतियुक्त-धर्म सम्मत बना सकता है। यही समय की महती आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118