काय बिन्दु में समाया सिन्धु

September 1987

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स्थूल दृष्टि से हमारा शरीर रक्त मास का बना काय-कलेवर भर प्रतीत होता है। इसीलिए जन-सामान्य इसका उपयोग खाने-कमाने के तुच्छ प्रयोजनों तक ही सीमित रखता है, पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसका दृश्यमान स्वरूप जितना कुछ दीखता है, वही सब कुछ नहीं। इसमें इतनी असीम क्षमताएँ और ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में ऐसी निधियाँ छिपी पड़ी हैं, जो काय-बिन्दु में सिन्धु के समाये होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। आये दिन विलक्षण इन्द्रियातीत सामर्थ्य के रूप में इस बात के उदाहरण मिलते ही रहते हैं। इटली में इस सदी के प्रारम्भ में एक ऐसी आधी लड़की पायी गयी थी जो अपने नासाग्र और कर्ण के पिन्ना (बाह्य कर्ण) से देख सकती थी। जब कोई अचानक तेज रोशनी उसकी नाक अथवा कान पर डाली जाती तो वह चौंक उठती थी। सन् 1956 में स्काटलैण्ड में एक अंधा छात्र शोध कर्त्ताओं ने ढूंढ़ निकाला जो विभिन्न प्रकार के रंगीन-प्रकाशों में विभेद कर सकने में सक्षम था। कुछ दूरी पर रखे हुए अनेक वस्तुओं में से सबसे चमकीली वस्तु के बारे में बताने की क्षमता उसमें थी।

ये जो क्षमताएँ चक्षु विहीन व्यक्तियों में अनायास ही विकसित हो जाती हैं, उन्हें अन्यान्य इन्द्रियों के माध्यम से वे लाभ देते हैं जो उन्हें दुर्भाग्यवश सामान्य क्रमानुसार नहीं मिला।

सन् 1960 में वर्जीनिया की एक लड़की जो अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न समझी जाती थी, उस पर वहाँ के एक मेडिकल बोर्ड के विशेषज्ञों ने सच्चाई जानने के लिए अनेक प्रयोग किये। उसकी आँखों पर मोटी पट्टी बाँध दी गई, किन्तु फिर भी वह देखने में सक्षम थी और किताबों को पढ़ सकती थी। इसी प्रकार का एक प्रयोग न्यूयार्क के बर्नार्ड कालेज के मनोविज्ञानी डॉ. रिचार्ड ने सम्पन्न किया। उनने अमेरिका की एक महिला की आँखों पर पट्टी बाँधकर विभिन्न रंगों की जाँच करने को कहा। उक्त महिला ने उँगलियों के सहारे सभी रंगों की यथावत् जाँच कर सही बताया। डॉ. रिचार्ड का कहना है कि प्रत्येक रंग से अलग-अलग ताप तरंगें निकलती हैं। किसी-किसी की त्वचा इन्द्रियों में उन तरंगों के अन्तर को समझने की क्षमता भी विकसित हो सकती है। उसी आधार पर रंगों की विविधता पहचानना उनके द्वारा सम्भव होता है। ब्रेल लिपि का आविष्कार तो बाद में हुआ किन्तु यह विभूति मानव की चिर पुरातन अमूल्य थाती है।

फ्राँस में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद डॉ. जूल्स रोमैन ने सैंकड़ों अंधे व्यक्तियों पर दृष्टि सम्बन्धी प्रयोग परीक्षण किये और पाया कि उनमें से कुछ प्रकाश और अंधकार की उपस्थिति को अत्यन्त दक्षतापूर्वक बता करने में समर्थ थे।

आखिर मनुष्य इस क्षमता को कैसे अर्जित कर लेता है? इस संदर्भ में अनेकानेक प्रयोग- परीक्षणों के उपरान्त व इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य की त्वचा में असंख्य “कीट नेत्र” होते हैं, जो अति संवेदनशील होते हैं और नेत्रों से अधिक जानकारी देते हैं। जब प्रयास पूर्वक व्यक्ति इन्हें विकसित कर लेता है, तो वह अन्य अंग-अवयवों से भी देखने में सक्षम हो जाता है।

‘जर्नल ऑफ मेडिकल हिप्नोटिज्म, ने पचासवें दशक में एक ऐसा ही समाचार छापकर बताया था कि बैंकाक में तो एक संस्था ही काम करती है, जो अंधों को गालों से देखने का प्रशिक्षण देती है। उसके संचालकों का दावा है कि मनुष्य के गाल शरीर भर के समस्त अंगों की अपेक्षा अति संवेदनशील हैं और उनमें सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्तियों का प्रचुर प्रवाह विद्यमान रहता है।

शरीर के अन्यान्य अवयवों से देखने और पुस्तकें पढ़ने की घटनाएँ तो सामने आती रहती हैं, पर कई बार देखा यह जाता है कि व्यक्ति अपने दूसरे अंगों से सुनने में भी समर्थ होता है। इसी प्रकार का एक प्रसंग सन् 1884 में प्रकाश में आया। न्यूयार्क में ऐजेशेल नामक एक व्यापारी था उसके कानों में सूराख पूर्णतया बन्द थे, फिर भी वह कान वाले व्यक्तियों से सुनने में किसी भी प्रकार कमजोर नहीं था। इतना अवश्य था कि सुनने के प्रयास में उसे अपना मुँह खोलना पड़ता था। मुँह ही उसके कान थे।

मनुष्य की इस क्षमता की सच्चाई जानने के लिए वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग-परीक्षण किये।

ऐसा ही एक प्रयोग लन्दन यूनिवर्सिटी में सन् 1937 में किया गया। प्रयोगकर्ता थे, विश्वविद्यालय के मूर्धन्य गणितज्ञ एस.जी. सोल तथा जिस पर परीक्षण किया गया, वह थे जाने माने अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न फ्रेडरिक मैरियन।

प्रयोग के आरम्भ में मैरियन को एक रूमाल दिया गया। कुछ क्षण तक वह इसे निहारते रहे। फिर रूमाल को एक प्रयोगकर्ता को देकर वह सोल के साथ कमरे से बाहर आ गये। तत्पश्चात् कमरे को अन्दर से बन्द कर लिया गया और कमरे में स्थित टीन के छः बक्सों में से एक में रूमाल को रखा गया। अब मैरियन को पुनः कमरे के अन्दर बुलाया गया और रूमाल ढूंढ़ने को कहा गया। कुछ क्षण तक मैरियन उन बक्सों के इर्द गिर्द चक्कर लगाते रहे, फिर एक बक्से के नजदीक आकर रुक गये। बक्से को खोलने पर रूमाल उसी के अन्दर पाया गया।

प्रयोग प्रामाणिक लोगों के मध्य किया गया था और किसी प्रकार की धोखाधड़ी से बचने के लिए पूरी सावधानी बरती गयी थी। प्रयोग के अन्त में उपस्थित लोगों को उनकी अतीन्द्रिय सामर्थ्य को स्वीकारना पड़ा। एक अन्य प्रकार के प्रयोग में डॉ. जे.जी. प्राट प्रयोगकर्ता थे और हर्बर्ट पियर्स सब्जेक्ट। दोनों सौ गज के फासले पर स्थित दो पृथक इमारतों में चले गये। प्रयोग का समय पूर्व निर्धारित था। जब निश्चित हुआ, तो प्राट ने विभिन्न प्रकार की आकृतियों के कार्डों का एक गट्ठर उठाया और कार्डों को एक-एक कर बिना उसके चित्रों को देखे, पृथक देखने लगा। जब यह प्रक्रिया समाप्त हो गई तो उनने कार्डों के नम्बरों को उसी क्रम में नोट कर लिया। उधर दूसरे मकान में बैठा पियर्स भी अनुमानित चित्रों की आकृतियाँ उसी क्रम में एक कागज पर बनाता गया। प्रयोग के अन्त में दोनों ने अपने-अपने रिकार्ड को सील बन्द कर तत्कालीन ई.एस.पी. शोधकर्ता डॉ. जे.बी. राइन जो स्वयं भी इस प्रयोग में भाग ले रहे थे, को सुपुर्द कर दिया। राइन ने उनकी लिस्टों का परस्पर मिलान किया, तो चकित रह गये। दोनों की सूची असाधारण रूप से मिल रही थी।

सन् 1933 की इस शृंखला में डॉ. जे.जी. प्राट और हर्बर्ट पियर्स ने अनेकानेक प्रयोग किये। हर प्रयोग से मनुष्य में मान इस असाधारण क्षमता की पुष्टि ही हुई। पेरिस में फेकल्टी आफ मेडीसिन में फिजियोलॉजी विभाग के प्रवक्ता डॉ. चार्ल्स रिचैट तथा ट्यरिन यूनीवर्सिटी में कार्यरत पैथालॉजीकल एनटामी के प्रवक्ता डॉ. एण्डरसन ने भी वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर मनुष्य में पाये जाने वाली विलक्षण क्षमताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है।

चेकोस्लोकिया के परामनोवैज्ञानिक मेलिनरिज्ल और लेनिनग्राड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक बेसिलियेव इस विलक्षणता के कायल हैं और वे इसे मनुष्य के भीतर रहने वाली विशिष्टता ही मानते हैं, जो एक प्रकृति प्रदत्त गुण है। उनका कहना है कि हमारी काया देखने में भले ही सामान्य प्रतीत होती हो, पर वस्तुतः यह असामान्य शक्तियों से भरी पड़ी है। इस दिशा में यदि थोड़ा प्रयास भर किया जाय, तो हर व्यक्ति इस प्रसुप्त सामर्थ्य को अपने अन्दर विकसित कर उससे लाभान्वित हो सकता है।

संभवतः इसी तथ्य को दृष्टिगत रख उपनिषद्कार ने इन्द्रियजन्य ज्ञान व उससे परे के इन्द्रियातीत ज्ञान का रहस्योद्घाटन करते हुए लिखा है-

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो हवाचं सऽड प्राणस्य प्राणः। चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेन्या स्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ (केनोपनिषद्)

अर्थात् “यह श्रोत्र का श्रोत्र है, मन का मन है, वाणी की वाणी है, प्राण का प्राण है तथा चक्षु का चक्षु है। धीर पुरुष (मनीषी) इनमें से (इन्द्रिय कार्यों में से) आत्म तत्व को पृथक करके इन्द्रियबद्ध जीवन से ऊपर उठकर अमृतत्व को प्राप्त करते हैं।”


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