समझदारी का आयु से कोई सम्बन्ध नहीं

September 1987

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बचपन एक आयु भी है और प्रकृति भी। तीन वर्ष तक के बालकों को शिशु कहा जाता है। वे अबोध होते हैं। दैनिक सामान्य व्यवहार भी उन्हें सिखाना पड़ता है। सहज अनुकरण प्रियता के अनुरूप वे उस बहुमुखी शिक्षण को यथा समय प्राप्त भी कर लेते हैं। पूर्वाग्रह और कुतर्क को आड़े न आने देने के कारण उनकी प्रगति अपने क्रमानुसार ठीक प्रकार चलती रहती है। तीन वर्ष के बच्चे अपनी शारीरिक विधि व्यवस्था का अधिकाँश भाग स्वयं सम्भालने लगते हैं, स्नान, कपड़ों का धोना, पहनना जैसे कुछ ही काम ऐसे बचते हैं जिनके लिए दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। मातृभाषा के इतने शब्द उन्हें याद हो जाते हैं जिसे काम चलाऊ अभिप्राय समझ और प्रकट कर सकें।

इससे बड़े दस वर्ष के बच्चे बालक कहलाते हैं। वे बाल कक्षाओं में पढ़ने भी लगते हैं और माता से स्वजनों से चिपके रहने की अपेक्षा समन्वय वाले सहचरों के साथ खेलने कूदने का नया अध्याय खोल लेते हैं। बुद्धि की दृष्टि से उनमें भी परिपक्वता नहीं होती। अभ्यस्त नित्य कर्मों को ही वे सही रीति से कर पाते हैं। अन्य विषयों की जानकारी उन्हें अभिभावक और अध्यापक देते रहते हैं। निजी पर्यवेक्षण बुद्धि द्वारा भी समीपवर्ती वातावरण में से स्व चेतना के अनुरूप बहुत कुछ सीखते अपनाते रहते हैं।

इसके उपरान्त किशोरावस्था का समय आ जाता है। फिर यौवन। पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते मनुष्य परिपक्वता प्राप्त कर लेता है। यह शरीर बुद्धि का क्रम हुआ। इसी के साथ व्यवहार बुद्धि भी विकसित होती है। स्कूल पाठ्यक्रम और वातावरण इस प्रयोजन में बहुत हद तक सहायक होते हैं। अनपढ़ भी देख सुनकर तथा जानकारी में आने वाले घटनाक्रम अनुभव के आधार पर भी बहुत कुछ जान लेते हैं। यद्यपि पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर जो व्यापक क्षेत्र का ज्ञान अनुभव मिल सकता था उससे वे वंचित ही रहते हैं।

यह सामान्य निर्वाह क्रम है। इसी चक्र में परिभ्रमण करते हुए लोग जन्मते, बढ़ते और मरते रहते हैं। उदरपूर्णा और वंश वृद्धि के साथ जुड़े हुए परिवार निर्वाह का उपाय उपचार भी उन्हें विदित हो जाता है। यों अपनी बुद्धि और दूसरों की सम्पत्ति चतुर को चौगुनी और मूर्ख को सौगुनी प्रतीत होती रहती है। फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि वह बुद्धि मात्र निर्वाह की परिधि में ही सीमित रहती है। उसके आधार पर उपार्जन, उपयोग एवं सीमित क्षेत्र के दायित्वों का समझना, सम्भालना ही बन पड़ता है।

समझदारी आयु के साथ नहीं दूरदर्शिता के साथ प्रारम्भ होती है। अदूरदर्शी तात्कालिक लाभ को देखते हैं। इसके लिए उतावली बरतने का मन बना लिया जाय तो कुमार्ग पर चल पड़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रहता। सदाशयता अपनाने पर तो सीमित लाभ ही मिलता है। उसमें से वृक्ष रोपने से लेकर फल लगाने वाली लम्बी अवधि की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। हथेली पर सरसों जमाने जैसा प्रपंच तो कोई बाजीगर ही रच सकता है। अनाचारी, आक्रामक गतिविधियाँ अपना कर तो लूट खसोट जैसा लाभ लुच्चे-लफंगे भी उठा लेते हैं, पर जिन्हें सन्मार्ग का परित्याग करने वाली बात गले नहीं उतरती, वे धैर्य रखते और सीमित उपलब्धि पर भी संतोष करते हैं। जिन्हें ठाट-बाट नहीं रोपना है, जिन्हें वाहवाही लूटने के लिए आकुल व्याकुल नहीं होना है उन्हें स्वल्प संतोष रहने में कोई हर्ज होता नहीं दीखता। थोड़ा कमाने थोड़ा खर्च की नीति अपना कर संतुलन बिठा लेते हैं। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह जिन्हें स्वीकार है, उन्हें विपुल साधन जमा करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। ऐसी दशा में उद्दण्डता अपनाने, अनीति रत होने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। फिर अनर्थ अपनाने की बात क्यों तो सोची जाय? और क्यों उस प्रकार की चेष्टा की जाय?

समझदारी का केन्द्र बिन्दु यही है कि जीवन का स्वरूप और महत्व समझा जाय। गरिमा के उपयुक्त रीति-नीति अपनाई जाय। इर्द-गिर्द के लोग क्या करते हैं? किन हथकंडों से वैभव बढ़ाते और बड़प्पन लूटते हैं। इस सब को देखते हुए भी अनदेखा करना समझदारी का काम है। सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का इस प्रकार श्रेष्ठतम सदुपयोग करता है कि वह चिरकाल तक स्मरणीय और अभिनन्दनीय बना रहे। इसी निर्धारण में समझदारी है। ऐसा समय जब भी उभरे समझना चाहिए की उसी समय से बुद्धिमता आरम्भ हुई।

दूरदर्शिता का भी आयु से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। वह बचपन से भी उदित हो सकती है। जवानी में भी बुढ़ापे में भी। ध्रुव, प्रहलाद, शुकदेव जैसों ने बचपन से ही महान निश्चय किये थे। शंकराचार्य, कबीर, रैदास आदि ने यौवन का आरम्भ होते ही महानता की दिशा में कदम उठाये थे। वानप्रस्थ और संन्यास में प्रवेश करने वाले ढलती आयु में पुण्य परमार्थ में प्रवृत्त होते हैं। इसके लिए आयु का कोई बंधन नहीं। दयानन्द, विवेकानन्द जैसों ने उठती आयु में ही ऐसा मार्ग अपनाया था जिसे विरक्त वैरागी भी नहीं अपना पाते।

पूर्व संचित सुसंस्कारों की शृंखला कभी-कभी अनायास ही निर्झर की तरह फूट पड़ती है। स्वाध्याय सत्संग का सुयोग न मिलने पर भी अन्तःप्रेरणा के रूप में ऐसा ज्वार आता है कि अनेक अवरोधों और संकटों के अभावों के रहते हुए भी उस मार्ग पर चल पड़ना सम्भव हो जाता है जिस पर कि साहसी, शूरवीर और आदर्शवादी कर्मवीर ही साहस संजो पाते हैं।

पतनोन्मुखी प्रयास तो कोई भी कर सकता है। कुकर्म यों किसी भी आयु में बन पड़ सकते हैं। उसे शिक्षित अशिक्षित का भी भेद नहीं रहता। यहाँ तक कि ज्ञानी धर्मात्मा बनने वाले तक दुष्कर्मों में निरत पाये जाते हैं। यह संगति का फल भी हो सकता है और अनौचित्य से भरे वातावरण का प्रभाव भी या प्रलोभनों का आकर्षण और दबावों को सहन न कर पाने वाले भीरु मानस भी। कारण कुछ भी क्यों न हो यह समझा जा सकता है कि नीचे गिरना सरल है, ऊँचे उठना कठिन। इतने पर भी उत्कृष्टता अपनाने की साहसिकता को असम्भव नहीं कहा जा सकता है। साहस के धनी ऐसे कदम उठाते और लक्ष्य की सफलता प्राप्त करके रहते हैं।

मनुष्य की आवश्यकता सीमित है। उसका स्वल्प साधनों में निर्वाह हो सकता है। परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर से संतोष किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि बहुत बटोरा जाय, उसे दुर्व्यसनों में उड़ाया जाय और उत्तराधिकार के लिए बड़ी सम्पदा छोड़कर मरा जाय। इन प्रयासों में जितनी शक्ति व्यय होती है, उससे कहीं कम में सन्मार्ग पर चलते हुए महामानव बन सकने की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है।?

मनुष्य की आवश्यकता सीमित है। उसका स्वल्प साधनों में निर्वाह हो सकता है। परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर से संतोष किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि बहुत बटोरा जाय, उसे दुर्व्यसनों में उड़ाया जाय और उत्तराधिकार के लिए बड़ी सम्पदा छोड़कर मरा जाय। इन प्रयासों में जितनी शक्ति व्यय होती है, उससे कहीं कम में सन्मार्ग पर चलते हुए महामानव बन सकने की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है।?

झरने का पानी बहता रहता है और आगे बढ़ते हुए नदियों के रास्ते समुद्र में जा पहुँचता है। उपार्जन न्यायपूर्वक और कठोर परिश्रम द्वारा अर्जित किया हुआ होना चाहिए। धन, ज्ञान, प्रभाव आदि किसी स्तर का वैभव क्यों न हो उसे हाथों हाथ सदुपयोग में नियोजित होते रहना चाहिए। जमा हुआ पानी जोहड़ों में सड़ता है। जमा किया जाने वाला वैभव भी अनर्थ ही उत्पन्न करता है, ऐसा न होने देना समझदारी का चिन्ह है। भले ही वह किसी भी स्थिति में उत्पन्न हो।


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