साकार उपासना द्वारा प्रतीक पूजा

September 1987

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उपकरणों के माध्यम से शिक्षा देने का अपना विशिष्ट विज्ञान है, उसके बिना बाल बोध की प्रक्रिया बनती ही नहीं। देश भक्ति का स्मरण करने, उसमें तत्परता बनाए रहने के लिए राष्ट्रीय झण्डे का अभिनन्दन किया और कराया जाता है। यों कपड़े की दृष्टि से झंडा भी अपने ढंग से सिया, रंगा कपड़ा भर है। उसे उलट-पुलट कर देखने पर ऐसी कुछ विशिष्टता नहीं दिखती जो अन्य कपड़ों से भिन्न हो। इतने पर भी उसके साथ देश भक्ति की भावना का सम्पुट लग जाने से समस्त देशवासियों के लिए वह प्राणप्रिय श्रद्धास्पद बन जाता है।उसकी रक्षा के निमित्त बड़े बलिदान भी किये जा सकते हैं। यह उपकरण के साथ विचारणा के समन्वय का प्रमाण है। उसे आस्तिक नास्तिक सभी अपने-अपने ढंग से स्वीकार करते हैं। रूस, चीन जैसे अनीश्वरवादी देशों में भी राष्ट्रीय झण्डे के प्रति उच्च भावना का समावेश है। वहाँ भी ध्वजारोहण होता है। ताकि देश-भक्ति की भावना ज्वलन्त बनी रहे, शिथिल न होने पावे। इस स्थापना का मानव मनोविज्ञान का गहरा सम्बन्ध है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता।

इस्लाम धर्म में उगता चाँद। ईसाई धर्म में क्रूस। हिन्दु धर्म में स्वस्तिक को प्रतीक चिन्ह माना जाता है उनके प्रति समुचित श्रद्धा व्यक्त की जाती है और इन प्रतीकों को यथास्थान प्रतिष्ठित भी किया जाता है। यह निर्धारित धर्म एवं संस्कृति के प्रति उच्चस्तरीय भाव संवेदना बनाये रखने के लिए है। यों इनका भौतिक विश्लेषण किया जाय तो उनकी उत्कृष्टता के सम्बन्ध में कुछ ठोस आधार प्रस्तुत नहीं किये जा सकते। उगता चाँद आसमान का एक दूरवर्ती पिण्ड है। क्रूस लकड़ी या धातु से विनिर्मित एक पदार्थ है। स्वस्तिक आड़ी टेड़ी लकीरों का एक आकार विशेष है। इन सभी में क्या विशेषता है? इसकी बौद्धिक व्याख्या कर सकना कठिन है। फिर भी कोटि- कोटि मानवों के हृदयों में इनके प्रति जो मात्र संवेदना है, उसे जीवन्त एवं जागृत रखने की दृष्टि से इन प्रतीकों का बहुत बड़ा मूल्य है। इन मूल्यों को उपेक्षा अवमानना द्वारा अमान्य ठहरा दिया जाय तो मानवी समाज का एक बहुत बड़ा अहित हो जायेगा। श्रद्धा डगमगा जाने से वे अपने-अपने मूलभूत आधारों को अपनाये न रह सकेंगे। गड़बड़ा जायेंगे और जिन सीढ़ियों पर चढ़कर ऊँचा उठने का प्रयत्न कर रहे हैं, उनके हट जाने पर एक झटका लगने घाटा पड़ने जैसा अनुभव करेंगे।

तर्क मात्र का प्रयोग किया जाय तो इस पद्धति की कोई प्रत्यक्ष संगति नहीं बैठती। कबूतर एक पक्षी है। उसका नामकरण भी हर देश में अपने-अपने ढंग से है। ऐसी दशा में वर्णमाला के अक्षरों के साथ पशु-पक्षियों की संगति बिठाने में क्या तुक हो सकती है? इतने पर भी विज्ञजनों ने आवश्यक समझा है कि अविकसित मस्तिष्क की स्मरण शक्ति का स्तर देखते हुए यही उचित है कि विनिर्मित परिपाटी को यथावत् जारी रखा जाय।

देवालयों में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं में ईश्वर को प्रतिनिधि मानकर उस पर श्रद्धा का केन्द्रीकरण- आरोपण किया जाता है। यह लौट कर प्रयोक्ता के पास वापस आ जाता है। रबड़ की गेंद को जिस निशाने पर मारा जाता है, टकराने के उपरान्त वह वहीं लौट आती है जहाँ से कि चली थी। श्रद्धा को प्रतिमा पर आरोपित करने के उपरान्त वह लौटकर वहीं वापस आ जाती है। भावनाशील की श्रद्धा अपेक्षाकृत और भी अधिक बढ़ जाती है। गुम्बज में जोर की आवाज करने पर वह गूँज जाती है और उच्चारण करने वाले को अधिक गुनी होकर सुनाई पड़ती है। दर्पण में अपनी ही प्रतिच्छवि दीख पड़ती है। श्रद्धालु को आत्मिक क्षेत्र का साधना सम्पन्न समर्थ कहा जाता है।

झाड़ी का भूत और रस्सी का सर्प बन जाता है और अपनी डरावनी प्रतिक्रिया भी दिखाकर रहता है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मृतिका मूर्ति बनाई थी और श्रद्धा के आधार पर इतना सशक्त बना लिया था कि वह कौरव पाण्डवों से भी अधिक अभ्यास उसे करा सकी। मीरा के गिरधर गोपाल और परमहंस की महाकाली जिस प्रकार के चमत्कार दिखा सके उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि श्रद्धा की शक्ति प्रत्यक्ष है। वह जहाँ भी आरोपित की जाती है, वहीं अपना फलितार्थ दिखाने लगती है। देव मान्यताओं के पीछे जो चमत्कारों की शृंखला जुड़ी है उसे साधक की श्रद्धा ही कहा जा सकता है।

प्रतिमा वस्तुतः रहती तो वही है जो मूलतः थी। मूर्तिकार की दुकान में जब तक रहती है तब तक वह एक बड़ा खिलौना ही रहती है। उसे जब देव वेदी पर प्रतिष्ठित करके प्राण भरने की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो संपर्क में आने वाले उसे प्राणवान मानने लगते हैं। जिनकी जैसी भावना होती है, उन्हें तद्नुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई परिलक्षित होने लगती है, किन्तु जो इस मान्यता को अस्वीकार करते हैं उनके लिए वह फिर अपने असली रूप में आ जाती है। कितने प्रतिमा विरोधियों ने कितनी ही प्रतिमाओं को खण्डित किया है, पर इससे उनको किसी देवता का क्रोध प्रतिशोध नहीं सहना पड़ा। क्योंकि उनने उसे देव मान्यता से ही इन्कार किया था। क्योंकि उनने उसे देव मान्यता से ही इन्कार किया था। मात्र पत्थर माना था। अतएव उतना ही कुछ हुआ जो पत्थर को तोड़ने से हो सकता है। किन्तु जिनकी श्रद्धा गहरी है उन्हें उसके स्तर का प्रतिफल भी मिलता है।

क्या प्रेम का एक पक्षीय निर्वाह हो सकता है? यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। पत्थर को इष्ट देव मानकर उसके प्रति गहरी भक्ति भावना जमाने का प्रयत्न किया जाता है। उसे सजीव मानकर जीवितों की तरह उसके भोजन, वस्त्र, शृंगार, सज्जा आदि का भी प्रबंध किया जाता है। समय-समय पर नमन, वंदन, पूजन, अर्चन आदि भी होता रहता है। नैवेद्य, मिष्ठान, पकवान आदि भी चढ़ाये जाते हैं किन्तु बदले में देवता की ओर से उस स्नेह समर्पण को स्वीकार करने तक का शिष्टाचार नहीं निभाया जाता है। प्रतिफल देना या कृतज्ञता प्रकट करना तक नहीं बन पड़ता। यह एकाँगी प्रेम हुआ। भक्त अपनी ओर से बहुत कुछ करता है, पर दूसरा पक्ष सर्वथा उपेक्षा ही बरतता रहता है। फिर भी रिश्ता टूटता नहीं। वह यथावत् बना ही रहता है। यही रीति-नीति लोक व्यवहार में भी चरितार्थ हो सकती है। अपनी ओर से मैत्री का परिचय दिया जाय, अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहा जाय। यह न देखा जाय कि बदले में वैसा ही कुछ किया गया या नहीं। अनुदान का प्रतिदान मिला या नहीं? यह एक पक्षीय श्रद्धा संवेदन प्रतिमा पूजन से निभ सकता है तो जीवित मनुष्य पड़ोसी परिचितों में क्यों कर नहीं हो सकता? इस संभावना को भाव क्षेत्र में जमाने के लिए प्रतिमा पूजन का सहारा लिया जाता है। इसमें प्रतिमा को तो कोई लाभ नहीं होता किन्तु जिनने यह भक्ति भाव प्रकट किया है उसका आत्मोत्कर्ष निश्चित रूप से होता है।

जिन देवी देवताओं की पूजा, प्रतिष्ठा की जाती है उनसे संबंधित कथा गाथाओं से ऐसे तत्व जुड़े होते हैं जिनके अवगाहन से उच्चस्तरीय आदर्शवादिता एवं उदारता का परिचय प्राप्त होता है। इन्हें भावनापूर्वक पढ़ा, सुना, समझा जाय तो उसका प्रभाव पड़ता है और श्रेष्ठता की दिशा में अग्रगमन करने के लिए साहस उमंगता है। देव पूजा का यह प्रतिफल साधक को मिलता है, देव सत्ता तो उससे अप्रभावित ही बनी रहती है। इस प्रकार साकार पूजा प्रकारान्तर से अपने लिए ही सत्य परिणाम उत्पन्न करती है। जिन्हें पूज्य माना गया है, इष्ट देव मानकर भक्ति प्रकरण आरम्भ किया गया है, उन तक यह पूजा पहुँचती है। उन्हें कुछ प्रसन्नता या सुविधा देती है, यह कहा नहीं जा सकता। वरदान अपने ही विकसित अन्तराल में प्रस्फुटित होते हैं।


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