इस दृश्य जगत में जो कुछ दीख पड़ता है उसे सूर्य का ही चमत्कार कहना चाहिए। ताप, प्रकाश और ध्वनि की त्रिविधि तरंगें ही प्रकृति के अन्तराल में संव्याप्त हैं। उन्हीं के कारण तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ है। अणु परमाणुओं की संरचना बन पड़ी है। त्रिविधि शक्ति धाराओं में से दो का ताप और प्रकाश का सूर्य से सीधा सम्बन्ध है। उनका उसे उद्गम भी कहा जा सकता है। प्राणियों, वनस्पतियों का अस्तित्व सूर्य के रासायनिक सम्प्रेषण से ही सम्भव हुआ। ऋतुएँ सूर्य के स्थान परिवर्तन से ही आती जाती हैं। इसी महा पुष्प से पराग प्राप्त करने के लिए पृथ्वी मधुमक्खी की तरह उसके इर्द-गिर्द भ्रमण करती रही है। श्रुति ने सूर्य को जगत का आत्मा सच ही बताया है। यदि सूर्य बुझ जाय तो पृथ्वी समेत समस्त सौर-मण्डल में सघन अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दृष्टिगोचर न हो। सर्वत्र निस्तब्धता छा जाय। हलचलों का कहीं कोई आधार या कारण शेष न रहे।
सूर्य उभयपक्षीय शक्ति धाराओं का उद्गम है। उसमें जीवनी शक्ति का अजस्र भण्डार है। जीवित प्राणियों, अन्न फलों को जहाँ किरणें स्पर्श करती हैं, वहाँ जीवनदायक विशिष्ट तत्वों का अवतरण हुआ देखा जाता है। इसी प्रकार उसमें दूसरी विनाशक शक्ति भी है। विषाक्तता संलग्न, मलीनता को यही किरणें रौंद डालती है। साधारण विज्ञान अर्थी इस बात को जानते हैं और अन्न, वस्त्र, पुस्तक आदि को धूप लगाते रहने की आवश्यकता बताती है, अन्यथा जीवाणु उनके अस्तित्व को खतरे में डाल दें। सूर्य किरण चिकित्सा के आधार पर अनेक रोगों का निवारण उसी प्रकार सम्भव होने लगा है जिस प्रकार कि एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद प्राकृतिक चिकित्सा आदि द्वारा सम्भव होता है। भौतिक जगत में जो कुछ प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष वैभव दृष्टिगोचर होता है, उसे सूर्य का अनुदान ही समझा जाना चाहिए। भविष्य की महती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अन्य आधारों से निराश होकर सूर्य का आश्रय लेने की बात ही सोची जा रही है। ईंधन जितना उपलब्ध हो सकता है। वह एक शताब्दी में ही समाप्त हो जायेगा। फिर उसकी आवश्यकता सूर्य के महान ऊर्जा भण्डार से ही पूरी कर सकना सम्भव होगा। पानी की बढ़ती समस्या बादलों से पूरी होती दीखती नहीं। बर्फ का पिघलना भी नदियों के माध्यम से क्षेत्रीय आवश्यकता ही पूरी करता है। भूगर्भ का जल नीचे खिसकता जाता है। उसके स्रोत सूखते जा रहे हैं। ऐसी दशा में निरन्तर बढ़ती हुई जल की आवश्यकता सूर्य किरणों द्वारा समुद्र के खारापन को दूर करके कृत्रिम बादल बना कर ही पूरी की जा सकेगी। अब तक के प्रगति इतिहास में भी सूर्य की ही प्रमुख भूमिका रही है। भविष्य में भी आशा सम्भावनाओं का केन्द्र वही हो सकेगा। यदि उसकी अमृत वर्षा का लाभ उपलब्ध नहीं हुआ तो दिन-दिन चुकते जाने वाला पदार्थ भण्डार और जीवन धारा चुक जाने में बहुत देरी नहीं समझी जानी चाहिए। सृष्टि का उद्भव उसी से होने की बात विज्ञानवेत्ता खुले रूप में स्वीकारते हैं, साथ ही यह भी कहते हैं, बढ़ती जनसंख्या के साथ बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस अजस्र भण्डागार से संतुलन बिठा पाना सम्भव हो सकेगा। इस अनुदान में कमी पड़ी तो जलहीन मछलियों की तरह अपनी दुर्दशा ही होकर रहेगी। जहाँ चाह वहाँ राह के अनुसार अगले दिनों यह प्रयत्न सफल होकर रहेंगे कि दृश्यमान सूर्य का धरती निवासियों को अपेक्षाकृत अधिक लाभ मिल सकना कैसे सम्भव हो।
प्रसंग आत्मोत्कर्ष का चल रहा है। वैभव का अभिवर्धन भी पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता उस आत्म-बल के बढ़ाने की भी है जिसे श्रद्धा प्रज्ञा, निष्ठा, जैसी विभूतियों का आधार माना जाता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास इसी पर निर्भर है। ऋद्धि-सिद्धियाँ इसी क्षेत्र से उभरती हैं। प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता वरिष्ठता बाहर से नहीं उतरती भीतर से ही उभरती हैं। अन्तरंग ही आत्मा का क्षेत्र है। इसे दिव्यलोक भी कहा जाता है। प्रसुप्त रूप से उन समस्त सम्भावनाओं के बीज इसी क्षेत्र में प्रसुप्त स्तर पर पड़े हुए हैं कि उन्हें जो जितनी मात्रा में जगा लेते हैं वे उसी अनुपात से देवात्मा होने का गौरव प्राप्त करते हैं।
आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में अध्याय के, परिशोधन के अनेक उपाय उपचार हैं। उपासना, साधना की सम्प्रदाय मेद से अनेकों विधि परंपरायें प्रचलित हैं। इनमें ध्यान-धारणा की सार्वभौम एवं सर्वानुमोदित स्थान मिला हुआ है। इसे आत्मवादी विशेष आकाँक्षा सँजोकर श्रद्धा विश्वास के साथ अपनाते और उसका भावना के अनुरूप प्रतिफल भी प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं अनीश्वरवादी भी मानसिक संतुलन बिठाने और एकाग्रताजन्य विशिष्टता प्राप्त करने के लिए ध्यान उपचार को प्रयोग में लाते हैं।
ध्यान के अनेक माध्यम हैं। लक्ष्य एवं इष्ट को निर्धारण करते हुए उसे ध्यान का केन्द्र बिन्दु बनाया जाता है। फिर भी इन स्थापनाओं में मतभेद तो बनते ही रहते हैं। इस बिखराव को दूर करने में सूर्योपासना अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। प्रकाश की चमक में आकर्षण भी होता है। पतंगे दीपक की ओर अनायास ही लपकते देखे जाते हैं।
गायत्री महामंत्र का देवता सविता है। सविता उगते हुए स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं। ध्यान प्रयोजन के लिए सूर्योपासक इसी का प्रयोग करते हैं। सूर्योपस्थान सूर्य नमस्कार, सूर्यार्घ, सूर्य सेवन, आदि के अनेकों उपक्रम साधना क्षेत्र में अपनाये जाते हैं। अग्निहोत्र में भी सूर्य शक्ति की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त ध्यान-धारणा को तो उस आधारभूत अवलम्बन के रूप में अपनाया ही जाता है।
ध्यान-धारणा में सविता उपासना का सामान्य क्रम यह है कि प्रातःकालीन उगते सूर्य को अर्द्ध खुली आँखों से देखकर पलक बंद कर लिया जाय। भावना की जाय कि वह दिव्य सत्ता अपने किरण जाल समेत सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त हो गई। इस शुभारम्भ में जलाशय की समीपता शक्ति आकर्षण की दृष्टि से अधिक फलप्रद होती है। कई व्यक्ति जलाशय में खड़े होकर सूर्याभिमुख स्थिति में जप तथा ध्यान करते हैं। कई उतने समय तक गीले वस्त्र धारण किये रहते हैं। कुछ सूर्य को अर्घ्यदान करते हुए मासिक जप के साथ अपनी संरक्षित आराधना पूरी कर लेते हैं। यदि ब्रह्म मुहूर्त में यह आराधन करना हो, तथा बादल छाये रहने पर प्रत्यक्ष दर्शन न हो रहा हो तो जिस दिशा में उस समय सूर्य की उपस्थिति सम्भव लगती हो उस ओर मुख करके भी ध्यान किया जा सकता है, यह अनेकानेक प्रचलनों में से कुछ एक की चर्चा है।
सार्वभौम, सर्वजनीन और सर्व सुलभ ध्यान का उपाय यह है कि खुले स्थान में बैठा जाय। प्रातःकाल का समय हो जल पात्र दाईं और रक्खा हो। प्रतीक स्थापना के रूप में अगरबत्ती या दीपक जला लिया जाय। स्वच्छ स्थान में स्वच्छ शरीर, वस्त्र से पालथी मार कर बैठा जाय। मेरुदण्ड सीधा रहे। नेत्र बन्द। हाथ गोदी में एक के ऊपर एक, स्थिर शरीर, शान्त चित्त। यह है ध्यान मुद्रा, जिसे प्रत्येक प्रकार के ध्यान में आवश्यक एवं उपयोगी माना गया है।
इस स्थिति को बनाने में आरम्भ में पाँच मिनट लग सकते हैं। इसके बाद स्वर्णिम सूर्य का ध्यान मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र से आरम्भ किया जाय। ध्यान ठीक प्रकार बन पड़ने में कुछ दिन लगते हैं। अभ्यास से ही साधना परिपक्व होती है। इसका चिन्ह यह है कि बिना आँख खोले ही इष्ट देव के भाव दर्शन होने लगें। प्रतीति हो चले कि अन्तःक्षेत्र में ध्येय का दिव्य अवतरण आरम्भ हो गया। मस्तिष्क मध्य में एक हल्का छोटा सौम्य सूर्य उदय हुआ। उसकी किरणें नीचे की दिशा में समस्त काय कलेवर में फैली और ऊपर के आकाश क्षेत्र में उनने उभर कर गगन मण्डल के साथ संपर्क जोड़ा। ब्रह्मरंध्र को मध्य बिन्दु माना जाय। अधोभाग में शरीर के समस्त अवयव और ऊर्ध्व भाग में अंतरिक्ष का वह भाग जो ध्यान के काय कलेवर से उतना ही ऊँचा है जितना नीचे का अधोभाग।
मस्तिष्क मध्य में मनुष्य की दिव्य शक्तियों का अदृश्य भाण्डागार है। उसी को जागृत करने की प्रथम चेष्टा होनी चाहिए। ब्रह्मरंध्र खिले कमल की तरह दृष्टिगोचर होने लगता है। पुष्प प्रजाति में कमल का सूर्य के साथ रहस्य भरा संबंध है। प्रभात कालीन किरण पड़ते ही वह खिलना आरम्भ करता है और अस्त होने पर वह भी सिकुड़ जाता है। मस्तिष्क मध्य में सूर्य का ध्यान इस प्रकार किया जाय, मानो वह पर्वत शृंखला के हिमाच्छादित शिखर से उदय हो रहा है और उसमें यथावत् प्रतिबिम्ब मस्तिष्क मध्य में उसी तरह प्रतिबिम्बित होता है जैसे दर्पण में सामने वाला दृश्य यथावत् परिलक्षित होता है।
हिमालय के उदयाचल क्षेत्र में मानसरोवर अवस्थित है। मस्तिष्कीय स्निग्ध पदार्थ को मानसरोवर या क्षीर सागर की उपमा दी जाती रही है। शतदल कमल यही है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की-दिव्य गुरु सत्ता की-भावना कमलासन पर अवस्थित होने के रूप में देखी जाती है। इस स्थिति का भाव क्षेत्र मानस लोक में उभरते ही उसकी किरणें समूचे क्षेत्र में बिखरती हुई अनुभव की जानी चाहिए। साथ ही उसकी सौम्य ऊर्जा का विस्तार भी। सूर्य प्रायः उष्ण होता है। पर उसके प्रतिबिम्ब यदि शीतल झील पर पड़ें तो उसका प्रभाव एवं प्रकाश भी शीतल रहेगा। मस्तिष्क मध्य का सूर्य भी सदा शीतल ही रहता है, ताकि उसकी आभा समूचे संपर्क क्षेत्र को शान्ति प्रदान करती रहे। इस प्रकाश से मनःक्षेत्र के वे सभी पक्ष अभिनव चेतना प्राप्त करते हैं और सभी ज्ञात, अविज्ञात, प्रसुप्त-जागृत क्षेत्र नये सिरे से उभरना, शक्ति सम्पन्न बनना आरम्भ कर देते हैं। यह दृश्य ध्याता को इस रूप में दृष्टिगोचर होता है, मानों उद्यान के पुष्प पल्लवों पर लगी कलियाँ खिलने और सुगंध बिखेरने लगीं। इस दृश्य को अतीन्द्रिय दिव्य क्षमताओं का प्रकट-प्रखर बनना, विकसित होना समझा जा सकता है। वैसा वस्तुतः होता भी है। साधक अनुभव करता है कि उसका मस्तिष्क क्षेत्र देवलोक की तरह सत्प्रवृत्तियों का देव शक्तियों का केन्द्र बन कर सुदूर क्षेत्र तक अपने आलोक का विस्तार वितरण कर रहा है।
प्रत्यक्षतः काय कलेवर में यों सोने जगने की, पेट प्रजनन की सामान्य जीवों जैसी क्रियाएँ ही बन पड़ती हैं। पर यदि उसके अन्तरंग क्षेत्र में अवस्थित विभिन्न घटकों को टार्च जैसा प्रकाश उगते हुए दीख जाय तो दिव्य चेतना के आलोक में ऐसा बहुत कुछ विद्यमान अनुभव होता है जो असाधारण है। दिव्य क्षमताओं से भरपूर है। अभिनव आलोक मिलने पर उस सब का अभ्युदय उत्कर्ष निश्चित है।
स्थूल शरीर में अनेक गुच्छक अन्तर्ग्रन्थिस्राव, ग्रन्थि समुदाय शरीर विज्ञानी देखते हैं। सूक्ष्म शरीर को निरखने की जिसमें क्षमता है वे षट्चक्र, पंचकोश, नाड़ी प्रवाह, उपत्यिकाएं स्तर के सूक्ष्म अवयवों की उपस्थिति भी देखते हैं। मस्तिष्क चलन के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर में अति महत्वपूर्ण केन्द्र और भी हैं। इन्हें हृदय चक्र और नाभि चक्र भी कहते हैं। नाभि चक्र स्थूल शरीर का अधिष्ठाता है। इस परिधि को भूलोक कहते हैं। हृदय चक्र सूक्ष्म शरीर मानस लोक को स्वर्ग लोक का प्रतीक माना गया है। मस्तिष्क का ब्रह्मचक्र स्वर्ग लोक है। उसे कारण शरीर का अधिष्ठाता कहा जा सकता है।
सामान्य स्थिति में यह तीन चक्र उपेक्षित, अविज्ञात, अविकसित स्थिति में पड़े रहते हैं। पर जब उनमें सविता के दिव्य आलोक का संचार होता है तो क्रमशः विकसित होते चले जाते हैं। इस विकास की प्रमाणभूत अनुभूति साधक को स्वयं होने लगती है। उसे प्रतीत होता है कि सविता का अन्तःक्षेत्र में अवतरण अपना प्रभाव, चमत्कार दिखा रहा है। तीनों शरीरों में और उनमें सन्निहित अनेकानेक घटकों में अभिनव शक्ति संचार कर रहा है सर्वतोमुखी अभ्युदय का इस आधार पर पथ प्रशस्त भी हो रहा है।