मरने के उपरान्त या जन्म लेने तक की परिस्थितियों में किस प्रकार गुजरना पड़ता है, इसके प्रत्यक्षवादी परिणाम तो अभी तक नहीं मिल सके हैं, पर यह पता लगा पाने में सफलता अवश्य मिली हैं कि मृत्यु के समय कैसा अनुभव होता हैं?
कई बार ऐसा होता है कि सामान्य लक्षणों से मृत्यु घोषित कर दी जाती हैं। फिर भी लगनशील डॉक्टर यह प्रयत्न करते रहते हैं कि किसी प्रकार प्राण लौटाये जा सकें। इसके लिए हृदय की धड़कन को फिर से गतिवान बनाने के लिए “डिफिब्रिलेटर” द्वारा बिजली के झटके सीधे हृदय में दिए जाते हैं। मुँह से कृत्रिम श्वास दी जाती हैं। जो भी नवीनतम अनुसंधान इस सम्बन्ध में हुए हैं उनका प्रयोग चिकित्सक आखिरी साँस तक करते हैं। इन उपायों में से कई बार कुछ प्रयोग सफल भी हो जाते हैं और बन्द हुई साँस पुनः चलने लगती हैं। गया हुआ जीवन फिर लौट आता है। कई बार बिना किसी प्रयत्नों के भी मृत्यु के तुरन्त बाद अन्त्येष्टि संस्कार न करने की प्रथा हैं। कुछ समय प्रतीक्षा की जाती हैं कि कहीं साँस लौट आने का संयोग तो नहीं हैं। जब शरीर अकड़ने लगता है और बुरी तरह शारीरिक-मानसिक मृत्यु का विश्वास हो जाता है, तभी उसे श्मशान ले जाया जाता है।
इस संदर्भ में कितने ही वैज्ञानिकों ने खोज-बीन की हैं कि मृत्यु से लौटे हुए व्यक्तियों से पूछ-ताछ करके यह पता लगाया जाय कि जितनी देर उन्हें शरीर से पृथक स्थिति में रहना पड़ा, उतने समय किस प्रकार के अनुभव होते रहें?
इस शोध कार्य में डॉ0 रेमण्ड0 ए॰ मूडी का नाम शीर्ष स्थान पर लिया जाता है। ऐसे ही प्रयोगों के पश्चात् उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी - “लाइफ आफ्टर लाइफ”। कैथोलिक चर्च की मान्यता के पक्षधर इस चिकित्सक द्वारा लिखी पुस्तक को प्रामाणिकता में इसलिए सन्देह की गुँजाइश नहीं हैं कि एक तो लेखक का व्यक्तित्व ज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है। साथ ही उनने कई विश्व-विद्यालयों से चिकित्सा विज्ञान की उच्चस्तरीय डिग्रियां प्राप्त की हैं और लम्बे समय तक उनमें प्राध्यापक रहे हैं। विज्ञान की कितनी ही उच्च संस्थाओं के सम्माननीय सक्रिय सदस्य रहे हैं। इसके अतिरिक्त इस शोध को उन्होंने किंवदंतियों और जन-श्रुतियों के आधार पर नहीं चलने दिया हैं, वरन् जो भी घटना इस प्रकार की उनकी जानकारी में आई हैं, उसका प्रत्यक्ष पता लगाने वे स्वयं पहुँचे हैं। साथ ही यह भी प्रयत्न करते रहे हैं कि चयनकर्त्ता कहीं किसी भ्रान्ति का शिकार तो नहीं हुआ हैं। कहीं अपने को चर्चा का विषय बनाने के लिए वह अत्युक्तियों का आश्रय तो नहीं ले रहा हैं।
एकत्रित अनुभवों से ज्ञात होता है कि लगभग सभी की यह अनुभूति रही हैं कि उनका शरीर मृत शरीर से अलग हुआ था, वह अत्यन्त ही हल्का और अदृश्य स्थिति में था। वह दूसरों को देखता है पर दूसरे उसे देख नहीं पाते। वह कुछ कहना भी चाहता है, पर वाणी इतनी अस्पष्ट होती हैं कि किसी के कान में उसकी भनक तक नहीं हो पाती। आँखों के आगे से पूरी तरह अदृश्य रहने पर भी उसे स्वयं यह अनुभव होता है कि मृत शरीर सामने पड़ा हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि मृत शरीर रोगी, विकृत, कुरूप आकृति का हैं वस्त्र पहने या ओढ़े हुए हैं। जबकि मृतात्मा को रोग काल जैसी कोई पीड़ा होती नहीं, न ही काया से दूर रहने पर किसी प्रकार की बिस्तर पर पड़ा शरीर उसका अपना हैं। इसे मित्र सम्बन्धियों ने घेर रखा हैं और उसका अंतिम संस्कार करने की तैयारी में लगे हैं। मृतक के सम्बन्ध में कई प्रकार की चर्चाएँ होती हैं। उन्हें वह सुनता तो हैं, पर किसी बात का उत्तर देने की स्थिति में नहीं होता। पुराने शरीर के साथ जो अपनापन था, पुराने सम्बन्धियों के साथ जो ममत्व था, वह घटने लगता है। क्योंकि नये सूक्ष्म शरीर में कोई ऐसी असुविधा नहीं होती, जिससे किसी बड़ी हानि का अनुभव करना पड़े। ठीक उसी तरह के विचार, स्वभाव एवं आकृति प्रकृति का नया शरीर मिल जाने पर सुविधाएँ अधिक प्रतीत होती हैं। उसे किसी वाहन, उपकरण या आच्छादन की आवश्यकता नहीं होती। नया शरीर इतना हल्का और ऋतु प्रभावों से सुरक्षित होता कि नये शरीर के मिल जाने पर पुराने शरीर की असुविधा ही स्मरण आती है ओर उसमें वापस लौटने की एक हल्की इच्छा तो जरूर बनी रहती है परन्तु तीव्र उत्कण्ठा नहीं। यदि वह पुराना शरीर वापस मिलना संभव न हो तो भी नये सूक्ष्म शरीर की स्थिति ऐसी होती है कि उसमें रहते हुए काम मजे में चलता रहता है।
प्राणों के निकलते समय रोगी को घुटन आदि का कष्ट होता है। पर जब प्राण शरीर छोड़ देता है तो इस विच्छेद के समय एक विचित्र अनुभव होता है। लगता है किसी गुफा के इस पार से उस पार जाया जा रहा है। गुफा के प्रारंभिक कोने पर अंधेरा होता है जिसमें प्रवेश करते समय यह अनुभव होता है कि न जाने आगे क्या होगा पर वह स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रहती। दूसरा सिरा आता है और प्रकाश भर जाता है। आसपास की सभी वस्तुएं देखने लगती है।
जब तक शरीर की अंत्येष्टि क्रिया नहीं हो जाती या धरती में सुला नहीं दिया जाता, तब तक आत्मा उसके इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती है। सम्बन्धियों, कुटुम्बियों को देखती रहती है। उसकी व्यथा वेदना का भी अनुभव होता रहता है, पर वापस शरीर में प्रवेश करने की ताकत नहीं रहती। उसे यह भी स्मरण नहीं रहता कि शरीर के इतने बड़े कलेवर में कहाँ से निकला गया था और कहाँ होते हुए प्रवेश किया जाता है।
परलोक सर्वथा एकाँकी या शून्य नहीं होता उसमें पूर्व परिचित भरे हुए संबंधी मिल जाते हैं वे कुशल समाचार भी पूछते हैं और उस नई स्थिति में उनकी सहायता का आश्वासन भी देते हैं।
यह सब घटनाएं अधिक से अधिक दस मिनट के भीतर हो जाती है। यदि पुनर्जीवन मिलता है तो इतने या इससे कम समय में ही मिल जाता है इस अवधि में किसी लंबी गहरी नींद में सोने के उपरान्त अचानक जाग पड़ने का अनुभव होता है तब सूक्ष्म शरीर की स्थिति धुंधली पड़ जाती है जो जिस क्रम में घटना-क्रम घटित हुआ उसमें से अधिकाँश का तारतम्य टूट जाता है स्मृति तृप्त हो जाने से इस आशंका में मन रहता है कि कभी शरीर से पृथक्करण हुआ भी था या नहीं।
मृत्यु के उपरान्त वापस लौटने की छोटी सी अवधि के संबंध में और भी कितने ही शोधकर्ताओं ने अनुभव लिखे है। पर उनकी खोजे भी इसी से मिलती जुलती है किसी ने भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला है कि मृत्यु के उपरान्त अशरीरी स्थिति में जो लंबे समय तक रहना होता है उसकी दिनचर्या जैसे बनती और आत्मसत्ता पर उसमें क्या बीतती हैं?