आत्म विश्वास अर्थात् स्वयं पर विश्वास, स्वयं के अस्तित्व पर विश्वास। जो स्वयं पर विश्वास करता है वह ईश्वर पर भी विश्वास करता है। जीवन का रहस्य इसी में समाया है और यही सफलता का मूल मंत्र है। आत्म विश्वास का धनी हर परिस्थितियों में अडिग और अविचल खड़ा रहता है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता। पुरुषार्थ इसकी अभिव्यक्ति है और साहस इसका परिचय। ऐसे लोग आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की समृद्धि एवं विभूति से सम्पन्न लोग हैं।
आत्मविश्वास साहस का पर्याय है, जो रग-रग में दौड़ता है। यह अन्तर की पुलकन है, आँखों की चमक तथा अधरों की मुस्कान है। उसे स्वयं पर आस्था होती है एवं अपनी गुप्त शक्तियों पर भरोसा होता है। विश्वास का धनी जानता है कि वह ईश्वर का अविनाशी एवं दिव्य अंश है। उसे स्वयं पर अगाध विश्वास होता है इसलिए वह ईश्वर पर विश्वास करता है। इसी कारण विश्ववंद्य स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- सर्वप्रथम स्वयं पर विश्वास रखो फिर ईश्वर में। जिसे स्वयं में विश्वास नहीं उसे ईश्वर में कभी विश्वास नहीं हो सकता। अतः पहने निज पर विश्वास आवश्यक है।
आत्मविश्वास का आधार हमारा अपना ही अन्तर है। इस तथ्य को प्रतिपादित करते हुए श्री अरविन्द ने कहा है- आत्मविश्वास अन्दर उत्पन्न होने वाली दिव्य वस्तु है। यह ज्ञान और अनुभव पर निर्भर नहीं करता। गोमुख से निकलने वाली पुण्यतोया-पावन गंगा को पहले न तो बहने का अनुभव होता है और न ही प्रवाह पथ पर आने वाले रोड़ों और संकटों का ज्ञान। बस उसके अन्दर उफनती आत्म विश्वास की जलधारा ही है जो उसे गंगा सागर तक बहने के लिए प्रेरित करती है। आत्मविश्वास एक प्रचण्ड प्रवाह है जो निरन्तर बहते हुए ज्ञान एवं अनुभव को प्राप्त करता है। यह वह जादुई अद्भुत शक्ति है जो भीषण विपत्तियों का सामना सरलता से कर लेती है। और इसी कारण सफलता उसके चरण चूमती है।
आत्मविश्वास पथ की विघ्न-बाधाओं को दूर करने का एक महामंत्र है। इसमें कठिनाइयों के विशाल पर्वतों को लाँघ जाने की अपार क्षमता होती है। धरती को फोड़कर निकलने वाला यह प्रखर बीज है। आत्म विश्वास जब अंतर में उमगता है तो शक्ति और सामर्थ्य द्विगुणित हो जाती है। इसी शक्ति और सामर्थ्य के बल पर लक्ष्य भेद किया जाता है। उसे कठिनाइयों से उत्पन्न भय एवं असफलता से उपजी हताशा नहीं सताती। वह कभी निराश नहीं होता। सदैव धैर्य के साथ चरम पुरुषार्थ करता रहता है। भले ही उसे कितनी ही असफलताओं का सामना करना पड़े। असफलताएँ उसे परास्त नहीं कर सकती।
पराजित एवं पराभव उसे सदा घेरे रहते हैं, जिसके अन्दर आत्म विश्वास का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति सफलता से कोसों दूर होते हैं। जो स्वयं पर आश्वस्त नहीं है भला उसे कौन भरोसा दिला सकता है। विश्वासहीन व्यक्ति न तो स्वयं का विकास कर सकता है और न ही दूसरों से सहयोग की अपेक्षा कर सकता है। उसे सदा पराजय का डर एवं आशंका सताती रहती है। एक बार की असफलता से ही वह निराश होकर निष्क्रिय हो जाता है। और प्रयत्न के प्रति हथियार डाल देता है। विश्वास का धनी एक क्या हजार बार की असफलता से भी पराजय स्वीकार नहीं करता। जीवन के अंतिम क्षणों तक वह लड़ता रहता है, भले ही उसे उपलब्धियों का उपहार न मिल सके। ऐसे कर्मवीर भला जीवन भर असफल एवं पराजित कैसे हो सकते हैं?
इतिहास के पन्ने-पन्ने ऐसे आत्मविश्वासी वीरों की गौरवगाथा से भरे पड़े हैं। जीवन संग्राम में अनेक बार हारकर भी लक्ष्य के प्रति जिनका दृढ़ विश्वास डिगा तक नहीं वही सच्चे विजयी माने जाते हैं। ऐसे शूरमा भीषण संकट एवं कठिनाइयों के बीच भी अडिग खड़े रहते हैं और पराजय-पराभव को स्वीकार नहीं करते। चरम पुरुषार्थ को संघर्ष के दाँव पर लगा देने के बावजूद विजय न पा सकने वाले महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, पोरस जैसे रण बाँकुर आज भी विजयी वीरों के साथ विभूषित होते हैं। हारी तो केवल उनकी परिस्थितियाँ, उनके अगाध विश्वास की दीपशिखा तो सदा निष्कम्प हो जलती रही, एवं उनके प्रयत्न कभी पराजित नहीं हुए। ऐसे उफनता आत्मविश्वास हारकर भी जीत जाता है। और यही सच्ची विजय है।
जब भी आत्मविश्वास उफनता है विजय का द्वार खुल जाता है। फ्राँस की जोन ऑफ आर्क का यह उफनता हुआ विश्वास ही था कि उन्होंने पराजित एवं निष्क्रिय पड़े अपने राष्ट्र की धमनियों में स्वतंत्रता के नवीन प्राण फूँक दिए। भेड़ों की रखवाली करने वाली इस लड़की में जब अंतर का विश्वास फूटा तो वह स्वतंत्रता सेनानियों की सेनापति बन गई। आज का स्वतंत्र एवं समृद्ध फ्राँस जॉन ऑफ आर्क का चिर ऋणी है। स्वतंत्रता की अमर योद्धा लक्ष्मी बाई ने आत्मविश्वास की प्रज्वलित लौ में ही 1857 की भारतीय क्राँति का स्वरूप निखारा। और इसी क्राँति ने निष्क्रिय जनमानस के सुप्त विश्वास को झकझोर कर जगा दिया। ये योद्धा भले ही विजय माला का वरण न कर पाये हों, परन्तु इनकी हार की नींव पर भविष्य में विजय का भव्य भवन खड़ा हुआ। भले ही ये हार गये लेकिन इनका आत्मविश्वास जीता था। यही उनकी विजय है जिसे आत्मविश्वास के धनी कर्मवीरों के अतिरिक्त साधन सम्पन्नता के बल पर साँयोगिक विजय पाने वाले कर्महीन कायर कभी नहीं पा सकते।
कलिंग जैसे दुर्धर्ष राष्ट्र को नेस्तनाबूद कर देने वाले चक्रवर्ती अशोक जीत कर भी हार गये थे। कलिंग का श्मशान बन जाना एक विजय थी परन्तु इसके दारुण चीत्कारों से व्यथित अशोक की आत्मा पराजित हो गयी। सम्राट अशोक ने राष्ट्र को जीता था परन्तु उनका आत्मविश्वास हारा था। पद्मनी का जल जाना, भीम सिंह और गोरा, बादल का जूझ मरना एक सच्ची विजय थी। चन्द्रशेखर आजाद का स्वयं को गोली मार लेना, भगत सिंह का फाँसी के फंदे पर लटक जाना आत्मविश्वास के धनी विजेताओं की एक अमिट गाथा है। जय-पराजय की इन गाथाओं में जीत-हार का मापदण्ड आत्मविश्वास, आदर्श पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, धैर्य एवं प्रयत्न ही रहा है। राज्य, नगर एवं सम्पदा पर अधिकार नहीं।
जिसका विश्वास प्रखर होता है उसे परिस्थितियाँ झुका नहीं पाती। वह इसके आगे घुटना नहीं टेकता। गिन-गिनकर संभलना उसकी नियति होती है। तपस्या के शिखर से कई बार गिरने वाले विश्वामित्र के आत्मविश्वास ने ही अंततः उन्हें पुनः उसी शिखर पर आरुढ़ किया।इस तरह अन्तर में विश्वास का मशाल जलाने वाला हर असफलता से सीख लेता है एवं दूने उत्साह के साथ जुट जाता है। उसके अन्दर साहस का दावानल धधकता रहता है जिसकी लपटों में हताशा-निराशा वाष्प बनकर उड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति कभी परास्त नहीं होते। उनकी हार भी जीत के साथ लिखी जाती है। वस्तुतः असफलता एवं हार कुछ नहीं आत्मविश्वास की कमी ही है।
स्वयं पर विश्वास करना अन्ततः ईश्वर में आस्था है। यह विश्वास जितना प्रगाढ़ एवं प्रबल होता जायेगा निर्दिष्ट लक्ष्य उतना ही पास होता जाएगा। लक्ष्य के प्रति आशा एवं विश्वास, कर्म के प्रति निष्ठ एवं लगन को जन्म देता है। जिसे अपने ईष्ट एवं लक्ष्य के प्रति प्रबल विश्वास होता है उसका कर्म पूजा एवं उपासना बन जाता है और पुरुषार्थ साधन। इस पथ पर बढ़ते हुए वह हर कठिनाइयों एवं मुसीबतों को धैर्य के साथ सामना करता है। असफलता की क्रूर ठोकरों से वह व्यथित एवं विचलित नहीं होता। छेनी के नुकीले वार को सहते हुए भी वह अपने अन्दर एक नवीन सृजन की कल्पना संजोये रहता है। उसे विश्वास होता है कि सघन तमिस्रा को चीरकर ऊषा की सुनहली आभा अवश्य मुस्करायेगी। अतः उसका विश्वास दीपक के समान जलता है।
आत्म विश्वासी तथा आत्मनिर्भरता की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति का परिश्रम तथा पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। ऐसे व्यक्ति एकबार जब अपने लक्ष्य का निर्धारण कर लेते हैं, तो उनके कदमों को नदी-नद, पर्वत-पठार, दलदल, रेगिस्तान कोई रोक नहीं सकते। वे अबाध एवं निर्बाध रूप से बढ़ते चले जाते हैं। यही विश्ववंद्य होते हैं तथा यशस्वी श्रेय के सच्चे अधिकारी होते हैं।
सफलता पाने के लिए अंदर के आत्मविश्वास को जगाना आवश्यक है। यह एक दैवी विभूति है। इसी के द्वारा ही ऋद्धि-सिद्धियों की अपार सम्पदा एवं समृद्धि अर्जित की जा सकती है। भौतिक सफलता का भी यही एकमात्र आधार है। अतः अपने सोये आत्मविश्वास को जगाकर हम भी आत्मिक एवं भौतिक सम्पदा के स्वामी तथा श्रेय-सम्मान के अधिकारी हो सकते हैं। सोये आत्म-विश्वास को जगाना ही सफलता का मूल मंत्र एवं गुप्त रहस्य है।