असंख्य गुना समृद्धि (Kahani)

March 2002

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सत्यवादी हरिश्चंद्र का नाटक देखा और मोहनदास के अंतः तक सत्य प्रतिष्ठापित हो गया। मनोरंजन के लिए तो कइयों ने उसे देखा होगा व अभिनय करने वालों ने भी उसे कई बार दोहराया होगा, पर ऐसे प्रसंग जब अंदर तक प्रवेश करते हैं तभी व्यक्ति को श्रेय पथ की और अग्रगामी बनाते हैं। मोहनदास ने सत्य का आश्रय लेकर ही महात्मा गाँधी का पद पाया, यह सर्वविदित है।

दो बीज धरती की गोद में आ पड़े। मिट्टी ने उन्हें ढक दिया। दोनों रातभर सुख की नींद साए। प्रातःकाल दोनों जगे तो एक के अंकुर फूट गए, वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला, भैया ऊपर मत जाना, वहाँ बहुत भय है, लोग तुझे रौंद डालेंगे, मार डालेंगे। बीज सब सुनता रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे-धीरे धरती की परत पार कर ऊपर निकला आया और बाहर का सौंदर्य देखकर मुस्कराने लगा। सूर्य देवता ने धूप स्नान कराया और पवन देव ने पंखा ढुलाया, वर्षा आई और शीतल जल पिला गई, किसान आया और चक्कर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता ही गया। झूमता, लहलहाता, फूलता और फलता हुआ एक दिन परिपक्व अवस्था तक जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे असंख्य बीज छोड़कर हँसता और आत्म-संतोष अनुभव करता विदा हो गया।

मिट्टी के अंदर दबा बीज देखकर पछता रहा था भय और संकीर्णता के कारण में जहाँ था वहीं पड़ा रहा और मेरा भाई असंख्य गुना समृद्धि पा गया।


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