सच्चाई की खोज करने वाले तथा फकीरी का जीवन जीते हुए सदैव परमात्मा का ध्यान करने वालों को सूफी कहते हैं। यूँ तो सूफी शब्द सूफ या सफ से बना है। जिसका अर्थ है- ऊन। अर्थात् जो ऊनी वस्त्र धारण करता है। वह सूफी कहलाता है। यह प्रतिकात्मक अभिव्यंजना है। मूलतः सूफी सन्त सदा ईश्वर की भक्ति में मस्त रहते थे और औरों को भी उसकी भक्ति में मदहोश रहने की शिक्षा देते थे।
सूफियों की विचारधारा इस्लाम के विजयोन्माद के पश्चात् पनपी एवं विकसित हुई। यह उन्मादी, दिखावटी एवं कट्टर धर्मान्धता के विरुद्ध हुई प्रतिक्रिया की प्रतीक थी। साँसारिकता और भोग विलास में डूबे जनमानस को झकझोर कर उठाने के लिए ही इसने आन्दोलन का स्वरूप लिया। सूफी सन्त भटके हुए मानव को ईश्वर का सन्देश सुनाते थे और सत्पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देते थे। यही जीवन का सार है, शेष निस्सार है। फलतः प्राचीन सूफियों का जीवन सरलता और पवित्रता से ओतप्रोत रहता था। पहले उनमें वैराग्य की भावना प्रबल थी अतः वे संसार त्यागी थे बाद में रहस्यवादी बन गये।
सन् 717 में राबिया-अल-बदवियर नाम की महिला सूफी सन्त हुई। उन्होंने प्रेम को दिव्य एवं उच्चस्तरीय बताया। उनके इस सजल एवं प्रबल भगवद् प्रेम के गर्भ से प्रारम्भिक सूफी मत का आविर्भाव हुआ। राबिया के प्रेम में न तो गुनाहों के लिए दैवी दण्ड का स्थान था और न सद्कर्मों के पुण्य की इच्छा आकाँक्षा। वह निष्काम भाव से केवल प्रभु के लिए ही प्रेम करती थी। वह हृदय से पुकारती थी- या अल्लाह यदि मैं दोजख (नरक) के भय से तेरी प्रार्थना करती हूँ, तो मुझे नारकीय अग्नि में जला देना और अगर मैं बहिश्त (स्वर्ग) की कामना से प्रार्थना करती हूँ तो मुझे इस ऐश्वर्य से भी वंचित कर देना। परन्तु अगर मैं एकमात्र तुम्हारे लिए तुम्हारी आराधना करती हूँ तो अपना वह दिव्य पावन रूप मेरी आँखों से कभी-भी ओझल होने मत देना।
सन्त राबिया का भगवद् प्रेम अटूट था। उन्होंने प्रेम के दिव्यरस का स्वाद चखा था, जिससे उनका जीवन प्रेममय हो गया था। ईश्वर प्रेम की यह धारा कभी भी रुकती नहीं है बल्कि यह तो नदी के समान प्रबल वेग से हर रोड़ों को तोड़ते फूट पड़ती है। सूफीमत का यह प्रवाह धुल-नुन-अल मिस्त्री के मारिफत (अध्यात्म) तथा फारसी अबू याजिद के फना (अनन्त में मिलन) सिद्धान्त के माध्यम से अग्रसर हुआ। याजिद ने ‘ज्ञान का सुरापान’ किया था। वह ऐसे प्रथम सूफी थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से निर्भीक होकर कहा था परमात्मा कहीं और नहीं है यह अपने ही अन्दर छुपा हुआ है। अपने अन्दर की ओर झाँको, ईमानदार प्रयास करो तो वह अवश्य दिखाई देगा। उनका यही सिद्धान्त सूफियों का रहस्यवाद बना।
याजिद का यह तपःपूत पुरुषार्थ ही था कि उनका फना का सिद्धान्त आगे चलकर सूफी मत का केन्द्र बिन्दु बन गया। सच्चे मन से और भगवान् के लिए किया गया पुरुषार्थ कभी भी निष्फल नहीं होता। बगदाद के अलजुनैद ने इस सिद्धान्त को भटके हुए जनमानस तक पहुँचाने के लिए अपना समस्त जीवन होम दिया। सूफी फकीर अल हजाज ने इसके लिए जो योगदान किया उसे भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने सुप्त जन को गहरे तमस से उठाया और कहा कि संसार मिथ्या है, माया का आवरण मात्र है। एकमात्र अपना सच्चा स्वरूप ही सत्य है। इसी सिद्धान्त को अनल हक्क के रूप में जाना जाता है।
बारहवीं शताब्दी तक सूफी मत एक सशक्त आन्दोलन के रूप में विकसित हो गया। इससे इस्लामी विचारधारा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। इसके प्रभाव से प्रभावित होकर इस्लाम के पुनरुद्धारक इमाम-अल-गजाली ने कहा कि अनुभवजन्य सत्य ही ज्ञान है। ज्ञान की यह खोज स्वयं के अनुभूति के आधार पर होती है अतः हर व्यक्ति को अपने अन्दर खोज करनी चाहिए न कि बाहर।
अल गजाली ने अनल हक्क को अपना आदर्श बनाया तथा आत्मा और परमात्मा के नैसर्गिक सम्बन्ध को हृदयंगम किया। वह इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर लोगों को उपदेश दिया करते थे। सूफी फकीर अल-अरबी गजाली के विचारों से अत्यन्त प्रभावित थे। वह पक्के अद्वैतवादी थे। उन्होंने बताया कि सृष्टि में ईश्वर का ही एकमात्र अस्तित्व है। कण-कण में एक उसी की शाश्वत सत्ता भासमान है। कहीं भी भेद नहीं और न ही कहीं अन्तर है। सब एक हैं, एक उसी ईश्वर के विभिन्न रूप हैं। इस प्रकार सूफी परम्परा का विकास चक्र चौदहवीं शताब्दी में ‘वहदत-अल-वुजूद’ अर्थात् आस्तिक अद्वैतवाद के साथ पूर्ण हुआ।
‘वहदत-अल-वुजूद’ का अर्थ है सत्ता मात्र की एकता। केवल बहिर्मुखी दृष्टि हो तो प्रतीत होता है कि यह सृष्टि अनन्त अनेकताओं का परिणाम है। इतनी विभिन्नताओं एवं पृथकताओं के बीच कहीं भी एकता का कोई सूत्र दिखाई नहीं पड़ता। परन्तु सत्य एक है। एक परमात्मा ही इस बहुआयामी एवं बहुरंगी सृष्टि का सृजेता है। यह सृष्टि उसके ‘एकोऽहम बहुस्यामिः’ के संकल्प का परिणाम है। अतः कहीं भी अनेकता नहीं है सभी एक सूत्र से पिरोये हुए हैं। सत्ता मात्र एकता की ही झलक झाँकी है। इस तथ्य को अपने ‘रब’ (आत्मा) की अनुभूति से ही अनुभव किया जा सकता है। इस प्रकार सनातन धर्म का दिव्य अनुभव सूफी मत में भी हुआ देखा जा सकता है। इसी ज्ञान को अरबी में ‘मन अरफ नफ्स; रब्बहू’ कहा जाता है।
सूफी मत में इस्लाम की कट्टरता एवं संकीर्णता का कोई स्थान नहीं है। बल्कि सनातन धर्म की उदारता, सहिष्णुता के के साथ एक ही परमात्म तत्त्व का वेदान्तिक स्वर सुनाई पड़ता है। इससे स्पष्ट होता है कि समस्त धर्म को प्राण प्रदान करने वाले सनातन धर्म ने किसी न किसी रूप में, इसके जन्म में अपना योगदान दिया होगा। भले ही इस तथ्य का स्पष्ट सूत्र आज हमारे हाथ न लगे, परन्तु है यह यथार्थ है। मनीषी मैक्स हाँटर्न इस सत्य के प्रबल समर्थक रहे हैं। हकीकत की इस पृष्ठभूमि को स्वीकार करते हुए आर. ए. निकोलसन ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सूफी मत के फना सिद्धान्त का मूल उद्गम भारतीय विचारधारा ही है। उनके अनुसार यह बौद्ध धर्म के निर्वाण के अत्यन्त सन्निकट है। इन सबमें रोचक बात तो यह है कि इस फना सिद्धान्त के प्रवर्तक याजिद स्वयं स्वीकारते हैं कि उनके गुरु ने उनको तौहीद (ईश्वर एक है) और हक-इक (सत्य) की शिक्षा दी थी जो एक भारतीय थे।
सनातन धर्म की धारा ने सूफी मत को पुष्ट एवं विकसित किया है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके विचार भारतीय दर्शन से प्रभावित जान पड़ते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मनीषी गोल्डजिकरे ने उल्लेख किया है कि सूफियों का तौहीद सिद्धान्त इस्लाम धर्म के प्रतिकूल तथा भारतीय दर्शन पर आधारित है। हो भी क्यों न? भारतीय विचारों का पटल आकाश सा व्यापक एवं विस्तृत है। इसलिए मेरी टी टाइटस ने सूफीमत को इन विचारों के आभामण्डल से आवेष्टित हुए देखकर आश्चर्य प्रकट नहीं किया है। वह अपनी कृति ‘इस्लाम इन इण्डिया एण्ड पाकिस्तान’ में इस सत्य को शब्द देते हुए कहती हैं ‘सूफी सन्तों के अनुभव एवं उनके दार्शनिक सिद्धान्तों में भारतीय दर्शन एवं साधना प्रयोगों की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।
अबू याजिद के उपदेशों में भी भारतीयता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वे परमात्मा के लिए ‘वह’ सर्वनाम का प्रयोग करते हैं जो हिन्दुओं द्वारा ब्रह्म के लिए प्रयुक्त ‘तत’ का प्रतिरूप है। ‘तकूनू अन्ता’ वाक्य उपनिषदों के तत्त्वमसि (तुम वही हो) का भाषान्तर प्रतीत होता है जो केवल वेदान्त में प्रयोग हुआ है। ‘अनल हक्क’ के दर्शन में वेदान्त सूत्र ‘अहं ब्रह्मस्मि’ का बोध होता है। इसके प्रतिपादक मन्सूर-अल-हज्जाज अद्वैत मतावलम्बी जान पड़ते हैं। शायद यही कारण है कि उनको काफिर समझा गया और खुदा के अन्य अनेक बन्दों के समान फाँसी में लटका दिया गया। कहते हैं सच्चाई धरती को फोड़ कर निकलती है और अपने लक्ष्य की ओर चलती है। इसी प्रकार यह अद्वैतवाद भी इब्न अली अरबी और अब्दुल करीम की जिली की पद्धति में समाविष्ट कर लिया गया।
सूफी सन्त जिली हिन्दू धर्म से अत्यंत प्रभावित थे। तथा इन्हें इसका अच्छा ज्ञान था। उनके ब्रहिम शब्द में ब्रह्म का झलक झाँकी मिलती है। सूफी परम्परा के एक अन्य सन्त जलालुद्दीन रुमी ने हिन्दुओं के भजन-कीर्तन के समान ‘सम’ अर्थात् भक्तिगान व नृत्य की पावन प्रथा प्रचलित की। उन्होंने लोगों को उपदेश देते हुए कहा कि हृदय देवत्व का दर्पण है। इसे भजन-कीर्तन करके स्वच्छ एवं साफ रखा जा सकता है। वह कहते हैं यह दर्पण जितना स्वच्छ होगा उसी के अनुरूप अपनी अन्तर्चेतना में परमात्मा का प्रतिबिम्ब झलकता है। और ऐसा क्यों न हो, आत्मा है भी परमात्मा का एक अंश।अंत में यह ‘फना’ होकर उसी में विलीन एवं विलय हो जाती है।
सूफी परम्परा की अनेक रहस्यवादी क्रियाएँ भारतीय योग प्रक्रिया के सदृश हैं। पस्य-अनूफस प्राणायाम का प्रतिरूप है। अपने यहाँ जप के लिए माला की आवश्यकता पड़ती है। सूफी मत में ऐसा ही प्रयोग मिलता है। उसमें माला को ‘तसबीह’ और जप को ‘धिक’ की संज्ञा दी गई है। हिन्दू धर्म में भगवद् प्राप्ति का सरल एवं सहज मार्ग-प्रेम मार्ग है। सूफी मत का तो यह मुख्य आधार है। सूफी अपने गुरु या पीर को ईश्वर का साक्षात प्रतिनिधि मानकर उसके दिव्य चरणों में अपना सर्वस्य समर्पण कर देता है। वे अहंकार को गलाने के लिए समर्पण को सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानते हैं तथा आत्मज्ञान के दुर्गम मार्ग पर बढ़ते हैं।
सूफी सन्तों ने भारतीय धर्म एवं संस्कृति की सहिष्णुता, उदारता एवं विशालता को सहज ही अपनाया है। इनमें से कुछ सन्त तो इसके उद्गम स्थल भारत देश भी आए। यही नहीं यहाँ की आध्यात्मिक सम्पदा से प्रभावित होकर कइयों ने यहाँ अपना स्थायी निवास बना लिया। यहाँ आने वालों में मन्सूर-अल-हज्जाज सर्वप्रथमसूफी सन्त थे। अल-हुजवीरी तो यहाँ की माटी की सुगंध में पूरी तरह रम गये और उन्होंने यहाँ के विचारों में अपने आप को खो दिया। इसका ही परिणाम था कि उन्होंने ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य फारसी में भारतीय रहस्यवाद पर ‘कश्फ-अल-मजहब’ नामक ग्रंथ की रचना की।
यहाँ के विचारों से ओतप्रोत सूफी सन्तों की उदारवादी विचारधारा से अपने यहाँ के सन्त भी प्रभावित हुए हैं। ऐसे महान् सन्तों में कबीर, गुरुनानक एवं विचारकों में राजा राममोहन राय, रविन्द्रनाथ टैगोर आदि प्रमुख हैं। सूफी सन्तों ने भारत आकर ध्यान और तपस्या की तमाम विधाओं को अपना लिया और आत्मज्ञान प्राप्त कर औरों को भी इस ओर प्रेरित किया। पथ चाहे जो भी हो मंजिल एक है। हमें एक ही मंजिल की ओर जाना है। यही सूफी फकीरों का उपदेश है। उनका कहना है कि जीवन छोटा है, समय कम है। इसलिए अच्छा यही कि विषय और विकारों से पीछा छुड़ाकर ईश्वर में रमे और उससे अपनी एकता अनुभव करें। और इस अनुभूति को मंसूर के शब्दों में सबको बता सकें- अनलहक्।