‘गहना कर्मणोगति’ कर्म की गति को बड़ा ही गूढ़ एवं गहन माना गया है। स्रष्टा की सृष्टि इसी आधार पर संचालित एवं नियंत्रित होती है। योगी, यति, तपस्वी, मनस्वी कर्म के विधान को मानते, स्वीकारते तथा सम्मान करते हैं। कर्म अविनाशी है। इसका बीज कभी नष्ट नहीं होता। सद्कर्म से पुण्य एवं दुष्कर्म से पाप का विधान है। कर्मफल अवश्यंभावी है भले ही इसमें थोड़ा विलम्ब हो। मनीषियों ने निष्काम कर्म सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा है। क्योंकि इसमें पाप और पुण्य का बंधन नहीं होता और यह किसी आसक्ति एवं इच्छा से नहीं किया जाता।
कर्मयोग का पथ बीहड़ जंगल एवं आकर्षक मरुद्यान से होकर गुजरता है। कभी-कभी इसके सूत्र बड़े ही रहस्यमय एवं अबूझ प्रतीत होते हैं। यह रहस्य तब और गहन हो जाता है जब लगन व निष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने के बावजूद असफलता पल्ले पड़ती है। और दुष्कर्मी-दंभी को अपार सफलता मिलती दिखायी देती है। धर्मात्माओं को दुःख, दुष्टात्माओं को सुख आलसी-प्रमादियों को परम सफलता, पुरुषार्थी को घनघोर असफलता, विवेकवानों पर विपत्ति एवं मूर्खों के यहाँ सम्पत्ति, अहंकारी को मान प्रतिष्ठ और सदाचारी को तिरस्कार व अपमान मिलते दृष्टिगोचर होते हैं। कोई विलास एवं वैभवपूर्ण परिस्थितियों में जन्म लेता है। और छल-बल, कुटिलता करते हुए भी सुख एवं ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करता है। तथा कोई चरम पुरुषार्थी होकर भी अभावग्रस्त जिन्दगी जीता है। एवं कष्ट व दुःख उठाता है।
कर्म की इस परिणति को देखकर कर्म की गति के सम्बन्ध में अनगिन प्रश्न उठ खड़े होते हैं। कर्म के सिद्धान्त पर अविश्वास एवं सन्देह होने लगता है। दुराचारी को दुष्कर्म करते हुए भी सफलता मिलती है और सद्कर्म में दुःख, कष्ट एवं यातना झेलनी पड़ती है। इससे मन में आशंकाओं का उठना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में तर्क को समाधान का स्वर नहीं मिलता तथा बुद्धि विचलित हो उठती है। परन्तु यह वास्तविक तथ्य नहीं है। कर्म की सूक्ष्म बारीकियों और पेचीदगियों को न जान पाने के कारण ही यह विडम्बना दिखाई देती है। वस्तुतः व्यतिक्रम कहीं नहीं है, प्रकृति नियम से रहित नहीं है। ईश्वरीय विधान में कहीं कोई अव्यवस्था नहीं है। हाँ, कर्म का विधान दुरूह अवश्य प्रतीत होता है।
कर्म के इस सूक्ष्म रहस्य के ज्ञाता कर्मयोगी विश्ववंद्य स्वामी विवेकानन्द इस संदर्भ में स्पष्ट करते हैं कि बिना फल उत्पन्न किए कोई भी कर्म नष्ट नहीं हो सकता। प्रकृति की कोई भी शक्ति इसे फल उत्पन्न करने से रोक नहीं सकती। यदि बुरा कर्म किया जाएगा तो उसका फल भोगना ही पड़ेगा। विश्व की ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो इसे रोक सके। इसी प्रकार यदि सत्कार्य किया जाए तो विश्व की कोई शक्ति नहीं जो उसके शुभ फल को रोक सके। कारण से कार्य होता है, इसे कोई रोक नहीं सकता।
वर्तमान दुःख और कष्ट हमारे अतीत कर्मों के ही फल हैं। कभी पहले हमारे द्वारा किया गया कर्म ही दुःख या सुख बनकर सामने आता है। कर्म तो अविनाशी बीज है। इसे बोये जाने पर इसकी फसल उत्पन्न होगी ही। फसल के पकने पर शीघ्रता या विलम्ब हो सकता है। परन्तु फसल पर सन्देह नहीं किया जा सकता। योगियों एवं तपस्वियों का कर्म तत्क्षण फलदायक होता है। तीर्थ स्थानों पर किया गया कर्म भी जल्दी परिणाम देता है। इसी कारण इन पुण्य स्थानों पर तपस्या आदि श्रेष्ठ कर्म किए जाते हैं।
कर्म के अनुसार परिणाम तय होते हैं। कर्म के इस सुनिश्चित एवं अटल विधान से अवतारी, योगी, सिद्ध, महात्मा भी नहीं बच पाते। विष्णु के रूप में मिले नारद के शाप का परिणाम ही था जो मर्यादा पुरुषोत्तम को चौदह वर्षों तक पत्नी के विरह में वन-वन भटकना पड़ा। कर्मफल का यही सिद्धान्त भगवान् कृष्ण पर भी लागू हुआ, जब उन्हें राम के रूप में छल से किए बालि वध के फलस्वरूप एक शिकारी के बेधक तीर से प्राण गंवाने पड़े। किसी जन्म में धृतराष्ट्र ने चिड़िया के बच्चों की आँखें फोड़ी थी। उस कर्मफल को भोगने के लिए उन्हें अन्धता मिली। हालाँकि इसमें उन्हें एक सौ आठ जन्म लगे।
कर्म का बीज बोना अत्यन्त सरल है परन्तु उसका भार ढोना अत्यन्त दुष्कर होता है। एक बीज हजारों बीज बनकर तैयार होता है। यह चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ता चला जाता है। सन्त, सिद्ध, महात्मा कर्म के इस रहस्य को भली प्रकार जानते-समझते हैं। अतः वे कर्मभार बढ़ाने वाले कर्म नहीं करते। उनकी कष्ट-कठिनाइयाँ अपनी स्वयं की नहीं होती बल्कि जन-कल्याण हेतु औरों के कर्मभार को हल्का करने के लिए इसे वे अपने ऊपर ले लेते हैं। इन्हीं कारणों से उन्हें रोग-शोक जन्य विपत्ति आती है। ईसा का क्रुसारोहण, रामकृष्ण परमहंस के गले का कैंसर आदि अनेक घटनाएँ इसी की परिणति हैं। इसके विपरीत सामान्य व्यक्ति अपनी इच्छाओं, वासनाओं एवं कामनाओं की तृप्ति-तुष्टि के लिए अनेक बुरे कर्म करता रहता है। ऐसे व्यक्ति अपने ही कर्मों का भार ढोते हैं। यही कर्म बंधन जीव को चौरासी लाख योनियों के कुचक्र में घूमने के लिए धकेल देता है।
सद्कर्म से पुण्य प्राप्त होता है। पुण्य से सुख-साधन की सामग्रियाँ जुटती हैं। पुण्य के प्रताप से स्वर्ग मिलता है। मान्यता है कि धरती के सबसे श्रेष्ठ पुण्यवान पुरुष को ही इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है। सद्कर्म करके ही वह ऐश्वर्यशाली स्वर्ग का सम्राट इन्द्र बनता है। इसी प्रकार दुष्कर्म से नरक की यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। हालाँकि पाप एवं पुण्य दोनों ही कर्म बंधन के कारण होते हैं। एक के करने से पाप और पतन की पीड़ा रुलाती है और अन्य से भोग-विलास की साधन-सुविधाएँ जुटती हैं। इसी कारण स्वामी विवेकानन्द ने पाप को लोहे का साँकल एवं पुण्य को स्वर्ण साँकल कहकर दोनों को ही उतार फेंकने को कहा है।
महर्षि अरविन्द इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में वे कहते हैं- बुराई से पीछा छुड़ाना शायद असली कठिनाई नहीं है, क्योंकि से सभी पहचानते हैं। यदि मनुष्य अपने इरादे में जरा भी सच्चा हो, तो वह कभी नहीं ठहरती। कठिन है उस अच्छाई के अहंकार से छूटना, जिसने सत्य के एक क्षुद्र अंश को सदा के लिए ताले में बंद कर लिया है। आगे वे कहते हैं अच्छाई के अहं और बुराई की आसक्ति दोनों से ऊपर उठ जाने में ही सार्थकता है। इस तथ्य को उन्होंने इस प्रकार अलंकारिक रूप में प्रतिपादित किया है- जब मेरे प्रियतम ने मेरा पाप-परिच्छेद उतारा तब मैंने सहर्ष गिरने दिया। फिर उसने मेरे पुण्य परिधान को खींचा पर मैं लज्जित हो गया और घबरा कर मैंने उसे रोकने का प्रयास किया। किन्तु उसने जब बलपूर्वक वह मुझसे छीन ही लिया, तब मैंने देखा कि किस तरह मेरी आत्मा मुझसे छुपी हुई थी।
अतः आवश्यकता है सद्कर्म रूपी पुण्य की अहंता एवं दुष्कर्म रूपी पाप की आसक्ति दोनों से ऊपर उठ जाना। यही कर्मयोग है। इसे गीता का निष्काम कर्म कहा जाता है।
जिसका अर्थ है आसक्ति छोड़कर कर्म करना। इच्छा एवं फल की आकाँक्षा से मुक्त होकर किया गया कर्म योग बन जाता है। यह कर्म साधना बन जाता है और इससे चित्त निर्मल हो जाता है। इस कर्म का संदेश है कि वर्तमान कार्य को अपनी समस्त क्षमता के साथ करना। कर्मयोगी अपने कर्म को गहन विचार और पुण्य भावना के साथ तन्मयतापूर्वक करता है।
वह साँसारिक आकर्षण की क्षण भंगुरता से परिचित होता है। वह इसकी नाशवान गतिशीलता को अच्छी तरह से जानता है। इसीलिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए भी वह मोह-ममता में नहीं फंसता। संसार के सुख-दुःख, हानि-लाभ, जन्म-मरण आदि की विरोधाभासी परिस्थितियों से वह व्यथित व विचलित नहीं होता। वह दीपक की लौ के समान निष्कम्प जलता रहता है। वह अपने कर्म में संतुष्ट एवं आनन्दित रहता है। तथा फल की उसे आशा नहीं रहती। फल की आशा ही बंधन का कारण है। इस बन्धन से मुक्ति तभी है, जब हमारे जीवन के सभी छोटे-बड़े कर्म प्रभु तो अर्पित-समर्पित हों।