बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक दिखाती ये चिढ्ढिया

March 2002

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संत कबीर अपने विलक्षण काव्य में लिख गए हैं-

इस घट अंतर बाग-बगीचे, इसी में सिरजनहारा। इस घट अंतर सात समंदर, इसी में नौलख तारा। इस घट अंतर पारस मोती, इसी में परखन हारा। इस घट अंतर अनहद गरजै, इसी में उठत फुहारा। कहत कबीर सुना भाई साधों, इसी में साईं हमारा॥

मानवी काया को विराट् का एक घटक बताते हुए कितनी सुँदरता से प्रशंसा की गई है कि अंतः का यह विराट् तो प्रत्येक के भीतर है। यह उसका अपना निजी है। इस भीतर को जो पा ले, वह सदा मस्त आनंद में रहेगा। हीरे को प्राप्त करने वाला कबीर सभी को अंतर्मुखी होने को कहता है। इस कबीर को जीवन में जीने वाले हमारे सद्गुरु आराध्य परमपूज्य गुरुदेव भी हर साधक को यही बताते थे एवं साधारण से असाधारण बनाने के राजमार्ग की कुँजी उनके हाथ में थमा देते थे। अपनी लेखनी व वाणी से यही ज्ञानयज्ञ उन्होंने जीवन भर किया। परिणाम एक विराट् संगठन के रूप में सारे विश्व में फैले गायत्री परिवार के रूप में हमें दिखाई देता है।

पूज्यवर की लेखनी की साधना का एक महत्त्वपूर्ण आयाम रहा है, पत्रों से मार्गदर्शन। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, उसे स्पर्श करते हुए व्यक्ति को आत्मबोध करना कि उस व्यक्ति का, शिष्य का कर्त्तव्य क्या है। 27/7/6161 को पं. बैजनाथ जी सौनकिया को लिखा एक पत्र यहाँ दे रहे हैं--

“आप अपनी उपासना और आत्मिक प्रगति पर सबसे अधिक ध्यान दें। जितनी ही आत्मबल बढ़ेगा उतनी ही शक्ति मिलेगी और उतना ही प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा। इसलिए हमें अपनी ओर ही अधिक ध्यान देना है।”

आगे वे लिखते हैं-

“आपकी आत्मा ऋषि आत्मा है। उसकी छटपटाहट जीवनलक्ष्य को पूर्ण करने के लिए ही है। सो उसे अतृप्त न रहने दिया जाएगा।”

पत्र की भाषा से स्पष्ट है कि आत्मिक प्रगति ही एकमात्र लक्ष्य किसी साधक का होना चाहिए। आत्मबल संवर्द्धन जिस परिणाम में होता चला जाएगा, उतना ही साधना का आनंद भी आएगा एवं प्रभावोत्पादक सामर्थ्य- व्यक्तित्व में आभा व तेज बढ़ने लगेगा। इससे दूसरे प्रभावित होंगे एवं इस मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा उन्हें भी होने लगेगी। यही तो मानव मात्र का जीवनोद्देश्य है। हर गुरु यही चाहेगा कि उसका शिष्य-मानसपुत्र अपने अंदर सोई आत्मा को पहचाने व अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने तक रुके नहीं।

जिस साधक का, गायत्री महाशक्ति को समर्पित अवतारी चेतना का क्षण-क्षण साधना में बीता हो, वह यही तो परामर्श सभी को देगा। वह स्वयं भी अपने जीवन में ऐसे क्षण लाता है जब तप की पूँजी को बटोरा जा सके। परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसा चार बार किया, जब वे एक से डेढ़ वर्ष की अवधि के लिए अपने गुरु का मार्गदर्शन पाकर तप हेतु, उनसे साक्षात्कार हेतु हिमालय गए। इसके अतिरिक्त सूक्ष्मीकरण की साधना भी उनने की, जिसमें पाँच वीरभद्रों के उत्पादन का पुरुषार्थ संपन्न हुआ। सन् 6 के दशक में उनका हिमालय-प्रवास एक और विशिष्ट उद्देश्य के लिए था, आर्षग्रंथों का अनुवाद-सरलीकरण, साथ-साथ कठोर तप एवं ‘युगनिर्माण योजना’ व उसके आधारभूत ढांचे को खड़ा करने के लिए एकाँत में चिंतन। एक पत्र जो सप्तर्षि आश्रम हरिद्वार से 31/5/61 को लिखा गया, इसी प्रवास की साक्षी देता हैं वे बशेशरनाथ जी (दिल्ली) को लिखते हैं-

“हमारे आत्मस्वरूप

एक वर्ष बाद यह पत्र लिख रहे हैं। 5 महीने गंगोत्री, 5 महीने उत्तरकाशी तथा 2 महीने यहाँ रहकर यह वर्ष पूरा किया। इस एक वर्ष में आत्मबल-संग्रह करने का जो अवसर मिला, उससे संतोष हैं।”

अपने किसी ऐसे शिष्य को जिसे वह हर दूसरे दिन पत्र लिखते थे, एक वर्ष बाद पुनः याद किया एवं एक वर्ष का संक्षिप्त लेखा-जोखा भी उसे दिया। इस एक वर्ष के तप को वह आत्मबल-संग्रह के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ बताते हैं। प्रथम पत्र में दूसरों के लिए जो प्रेरणा है, दूसरे पत्र में स्वयं द्वारा भी उसे किया जा रहा है, यह संदेश है। यह पत्र पत्रलेखक के सरल अंतःकरण का भी द्योतक है। यह भी बताता है कि गुरुसत्ता किसी को नहीं भूलती, नहीं तो हिमालय यात्रा के एकवर्षीय साधना अनुष्ठान के तुरंत बाद एक साधारण गृहस्थ कार्यकर्त्ता को यह बताने की क्या आवश्यकता?

समय समय पर वे अपने शिष्यों को आश्वासन भी देते हैं और संरक्षण भी। वह पत्र जो परिजन भूले नहीं होंगे जिसमें उन्होंने लिखा है कि उड़ती चिड़िया जिस तरह अपने घोंसले, अंडों बच्चों का ध्यान रखती है, ठीक उसी तरह हम भी सबका ध्यान रखेंगे, भले ही एक वर्ष तक सबके बीच रह न पाएँ, आँखों से ओझल हों कुछ ऐसा ही आश्वासन नीचे वाले पत्र में मिलता है। 16/9/65 के लिखे इस पत्र में वे एक साधक को लिखते हैं-

“चि. आनंद और बेटी रतन के परिवार की हम स्वयं रक्षा करेंगे। चौकीदार की तरह उनके घर पहरा देंगे और छाता बनकर उन पर छाया करते रहेंगे। इन दोनों बच्चों के परिवार में से किसी का भी बाल-बाँका न होगा। आप पूर्ण निश्चित रहें। बच्चों को भी हमारे आश्वासन की सूचना दे दें, ताकि वे निर्भय और निश्चित रहें।”

पत्र की भाषा बताती है कि गुरु शिष्य का योग-क्षेम बहन करता है। उसका पायलट-बॉडीगार्ड-सुरक्षाकर्मी बनकर साथ चलता है। यह आश्वासन यदि शिष्य की समझ में आ जाए, तो दूना जोश भर जाता है एवं बिना किसी असुरक्षा के भाव के वह काम में लगा रहता है। ऐसे एक नहीं हजारों-लाखों परिवारों को गुरुसत्ता ने जीवित रहते भी सुरक्षा छत्र प्रदान किया एवं सूक्ष्म-कारणशरीर से अब भी सतत कर रहे हैं। आवश्यकता मात्र अटूट निष्ठा एवं निजी साधनात्मक पुरुषार्थ की है। यदि वह निरंतर चलता रहे तो कार्य सफल होंगे ही।

कितनी ही बार अपना अपनत्व प्रदर्शित करते हुए अपनी दैनंदिन जीवन की बात भी लिख देते थे व उनसे मार्गदर्शन की अपेक्षा रखते थे। वे घर-गृहस्थी चलाने जैसे सामान्य प्रसंगों के संबंध में भी होती थी। पूज्यवर एक ऐसे ही पत्र के संबंध में उत्तर देते हुए एक सज्जन को 10/2/46 को एक पत्र में लिखते हैं-

“हमारे आत्मस्वरूप

आपका पत्र मिला। ध्यानपूर्वक पढ़ा और वृक्ष जाना। एक सद्गृहस्थ के पास इतना पैसा होना आवश्यक है कि बच्चों की शिक्षा, विवाह, रोग एवं किसी आकस्मिक दुर्घटना के आने पर चिंतित न होना पड़े। गृहस्थ का उत्तरदायित्व सिर पर लेने के साथ आर्थिक सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व अपने आप सिर पर आ जाता है। पत्नी की प्रेरणा अनुचित एवं अपेक्षणीय नहीं है।

जितनी तनख्वाह आपको मिलती है, यदि उसमें भी किफायत करेंगे तो आप लोगों के स्वास्थ्य नष्ट होंगे। 40) से कम में भला आप लोग किस प्रकार गुजर कर सकते हैं। उसमें बचाने का प्रयत्न न करें। हाँ, आर्थिक सुव्यवस्था के लिए कोई व्यापार सोचें, क्योंकि व्यापार के अतिरिक्त और किसी उपाय से आर्थिक सुधार नहीं हो सकता। आपके पास संभवतः पूँजी भी छोटी ही होगी। छोटी पूँजी से कोई दुकान ही की जा सकती है। स्थान अच्छा मिल जाए तो धंधा अच्छा चल जाने में संदेह नहीं है।”

पत्र से स्पष्ट है कि पत्रलेखक ने अपनी लौकिक समस्याओं का समाधान मित्रवत् गुरुसत्ता से पूछा है। उन्होंने भी तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पूर्णतः लौकिक समाधान दिया है। किसी चमत्कार या आशीर्वाद के घटने की बात नहीं की है। पत्नी की दी गई प्रेरणा का भी हवाला दिया है, लिखा है कि उसकी उपेक्षा न करें, दैनंदिन कार्य में उसका सत्परामर्श भी लें। यह वह समय था जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। परामर्श उनने उसी के अनुरूप व्यापार का दिया। फलीभूत हुआ एवं गाड़ी पटरी पर आकर कुछ ही वर्षों में तेजी से दौड़ने लगी।

एक अंतिम पत्र एक राजनीति में सक्रिय परिजन को लिखा यहाँ दे रहे हैं। उनका परामर्श पढ़ें व अपने लिए भी दिया गया मार्गदर्शन इसे मानें। यदि सभी लोकनेतृत्व के क्षेत्र में बहने वाले इससे प्रेरणा लेंगे तो यह पत्र उद्धृत करना सार्थक होगा। 6/10/63 को लिखे इस पत्र में (नाम ज्ञात नहीं) वे लिखते हैं-

“आप अब तक राजनैतिक सेवाकार्य करते रहे हैं। अब नैतिक और धार्मिक क्षेत्र में भी इसी उत्साह से काम करें तो इससे आपका और मानवजाति का अधिक कल्याण होगा।”

पात्र पाने वाले के लिए विशिष्ट संकेत है कि नैतिक और धार्मिक क्षेत्र में उत्साह से कार्य किए जाने की आवश्यकता है। आज सत्ता का मद अच्छों-अच्छों को राजनीति की और खींच रहा है, तब गुरुसत्ता का परामर्श यह कहता है कि विभूतिवान प्रबुद्ध वर्ग के लोकनायक धर्मतंत्र सँभालें, तो आत्मकल्याण भी होगा लोककल्याण भी होगा।

उपर्युक्त पत्र एक संगठन-साधक के रूप में हमारी गुरुसत्ता के बहुआयामी व्यक्तित्व के परिचायक हैं एवं हम सबके लिए प्रेरणा श्रोत भी।


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