पर्व विशेष - आत्मा के मंगलकारी शिव से मिलन की रात्रि का पर्व

March 2002

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हर हर महादेव! जय शिव शम्भो!! बम बम भोले!!! की पवित्र गूँज यह जता रही है कि आज शिवरात्रि है। भारत देश का महान् व प्रेरक पर्व। पर्व हमारी साँस्कृतिक चेतना की ज्योति किरणें हैं। इनसे जीवन एवं जगत् में उल्लास, प्रसन्नता, गति, संगति एवं नवप्रेरणा का प्रकाश बिखरता है। हमारी जीवन चेतना जाग्रत् होती है। शिवरात्रि का उद्देश्य भी हमारी चेतना जाग्रत् करना है। देवाधिदेव महादेव की उपासना, व्रत एवं संकल्प के द्वारा आत्मबोध को पाना है। सत्य तो यह है कि इसमें निहित प्रेरणाओं को सभी धार्मिक आस्थाओं वाले किसी न किसी रूप में महत्त्व देते हैं। हाँ उनकी रीति-नीति भले ही स्पष्ट हो या अस्पष्ट। और हो भी क्यों नहीं, जीवन-बोध के बना जीवन का अंधेरा नहीं मिटता।

शिवरात्रि बोधोत्सव है। आत्म चिन्तन एवं आत्म निरीक्षण का सुअवसर है। जीवन में श्रेष्ठ व मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को दुहराने व अपनाने की प्रेरणा देती है शिवरात्रि। आज की भौतिक एवं भोगवादी भागदौड़ की दुनिया में हमारी आत्म चेतना मुर्झाती जा रही है। उसी में चैतन्यता का संचार करने, उसमें निहित सत्य का बोध कराने ही हर साल आती है शिवरात्रि। भारतीय जीवनधारा में आत्मबोध का स्वर सदा से है और सर्वत्र मुखर रहा है। उपनिषदों का उद्घोष है- ‘आत्मनम् विद्धिः’ अर्थात् संसार को जानने के साथ-साथ आत्मा को भी जानो। बिना आत्मज्ञान के मानव जीवन की सच्ची सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती।

आचार्य शंकर ने अपने गहन तप एवं प्रखर आत्म साधना का निष्कर्ष एक ही सूत्र में प्रतिपादित किया है- ‘न ऋते ज्ञानन्मुक्तिः’ यानि कि आत्म ज्ञान एवं सत्य के बोध के बिना मनुष्य बन्धनों से नहीं छूट सकता। बन्धन ही तो जीवन में दुःख के कारण हैं। और ये सभी बन्धन अज्ञान एवं आत्म चिन्तन से आते हैं। जब तक आत्मा कल्याणकारी शिवतत्त्व की ओर प्रवृत्त नहीं होती, तब तक जीवन दुःख, चिन्ता, पीड़ा और अशान्ति से छुटकारा नहीं पा सकता। वेद भी इसी विचार की पुष्टि करता है- ‘नान्यः पन्थाविद्यते अनयाय’ अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मार्ग एक ही है, अपने को जानकर परमेश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करना, उसकी शरण में पहुँच जाना और उसकी आज्ञा का पालन करना। उसकी सत्ता को कण-कण और अणु-अणु में अनुभव करना। जीवन को अधर्म, पाप व असत्य से हटाकर सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करना। जीवन में आए हुए दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों के मूल कारण को समझना। उन्हें दूर करने का संकल्प लेना। सोयी हुई आत्मा को जगाने का व्रत लेना। आज 12 मार्च को शिवरात्रि यही कह रही है।

उठो! जागो! अपने जीवन और जगत् को सम्हालो। यह जीवन बड़ा अमूल्य है। इसका अवमूल्यन न करो। प्रकृति परमेश्वर का, शरीर आत्मा का, भौतिकता आध्यात्मिकता का, भोग-योग का समन्वय करके चलो। इसी में जीवन और जगत् में समरसता और समस्वरता आएगी। भारतीय जीवन पद्धति का आधार भी कुछ ऐसा ही है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ का सूत्र भी यही बताता है। आज राष्ट्र और विश्व में भौतिकता अतिवाद बनकर रह गयी है। मनुष्य भौतिकवादी, भोगवादी, देहवादी और प्रकृतिवादी बन चुका है। उसी का परिणाम है कि सर्वत्र अशान्ति, कलह, हिंसा, पाप, अधर्म दुःख-दैन्य अपनी चीख पुकार मचाए हुए हैं।

मानवता क्षत-विक्षत और घायल होकर कराह रही है। मनुष्य केवल आकृति से मनुष्य रह गया है। उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली है। चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और अनुशासनहीनता का बोल-बाला है। व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र हर कहीं दरारें ही दरारें हैं। हर कहीं टूटन और बिखराव है। मानवीय दृष्टि एवं जीवन मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल पा रहे हैं। इन सबका मूल और मौलिक कारण यही है कि हमने आत्म पक्ष को भुला दिया है। हम मात्र शारीरिक सुख-साधनों और भौतिक उन्नति को जीवन का चरम लक्ष्य मान बैठे हैं। मदान्ध और स्वार्थान्ध होकर बस दौड़ जा रहे हैं। कहाँ जाना है? कहाँ पहुँचना है? किसी को कुछ पता नहीं।

सब तरफ बेहोशी और नशे का आलम है। आत्मा न जाने कब से भूख से बेहोश पड़ी है। हाँ, वह भूखी है। आत्मा भी भोजन माँगती है। वह भी अपने मूल शिव के पास जाना चाहती है। जैसे बालक अपने माता-पिता की गोद में पहुँचकर निर्भय और शान्त हो जाता है, ऐसे ही आत्मा भी परमात्म देव परम शिव की गोद में पहुँचकर भय-ताप से मुक्त हो जाना चाहती है। मनुष्य बाहर की दुनिया में जितनी भाग-दौड़ करता है, उतना ही वह आत्मा के आनन्द से दूर होता जाता है। धन से खरीदा और पाया जा सकता है, वह तो बस देह, इन्द्रिय एवं संसार के सुख-साधन हैं। इसीलिए आज की दुनिया अन्दर से खोखली हो चली है। इस खोखलेपन को भरने के लिए शराब, जुआ, सिनेमा, क्लब, पार्टी की ओर दौड़ तेज हुई है।

मगर वासनाओं की अन्तहीन दौड़ भोगों की प्यास को और भड़काती व बढ़ाती है। मनुष्य जितना अधिक साँसारिक विषय भोगों को पाता और भोगता जाता है, उतनी ही और.......और........और......की प्यास तेज होने लगती है। जीवन मृगतृष्णा और भोग संग्रह की धूप-छाँव बनकर रह जाता है। जीवन के अन्त में पता चलता है, जीवन के बोध के बिना सारी दौड़ बेकार रही। शिवरात्रि हमें, हम सबको यही बताने आयी है कि बहुत खो चुके, बहुत सो चुके, अब और न खोओ, अब और न सोओ। आज संकल्प लो अपने जीवन को पवित्र बनाने का, उसे ऊँचा उठाने का। आज और अभी संकल्प करना होगा, आत्म ज्ञान को जाग्रत् करने का, आचार-विचार को सुधारने का। जो इस शरीर का सत्य और अमूल्य तत्त्व आत्मा है, उसे जानने का।

शिव के सनातन अंश उस आत्मा के निकल जाने पर यह शरीर शव बनकर रह जाता है। आत्मा के रहते हुए ही इस शरीर में गति, सुन्दरता और आकर्षण है। सम्बन्धों में मधुरता है। उस चेतन आत्मा को अपने आराध्य, अपने सर्वस्व शिव से मिलना है। उस शिव रूप परमेश्वर से बिछुड़े हुए इसको न जाने कितने युग बीत गए। कैसी यह विचित्र विडम्बना है कि एक ही मकान में युगों से साथ-साथ रह रहे हैं, लेकिन कभी बात नहीं होती, कभी मुलाकात नहीं होती। इस शरीर रूपी मकान में आत्मा-परमात्मा दोनों का ही वास है। इस शरीर में दोनों ही हैं। किन्तु साथ रहने पर भी, आत्मा अपने प्रिय शिव से बात नहीं कर पाती, मिल नहीं पाती है। क्योंकि मिलने की चाह नहीं है। मिलने के लिए अधीरता व आतुरता नहीं है। दर्द व बेचैनी नहीं है। हो भी कैसे, वह तो अज्ञान व जड़ता के घोर अंधेरों में अपने स्वरूप को भुला चुकी है। अब तो उसे झूठ-प्रपंच व विषय भोग की चर्चा व चिन्तन अच्छा लगने लगा है, अपने शिव से इस आत्मा ने मुख मोड़ लिया है। उसे अब शिव से प्यार नहीं रहा, जरूरत नहीं रही। स्थिति तो यह है कि उसने भगवान् शिव को जीवन से निकाल दिया है।

शिवरात्रि- शिव से मिलने की रात्रि है। जिसमें आत्मा का मंगलकारी शिव से मिलना होता है। इस गहरे मिलन में परस्पर संवाद होता है। बिछुड़ों का योग होता है। फिर नींद कहाँ? पहले आत्मा अपने परम प्रिय शिव से मिलन की तैयारी करती है। साफ स्वच्छ व निर्मल बनती है। सारा दिन इस मिलन की प्रतीक्षा में गुजारती है। कीर्तन, पूजा-पाठ में दिन बिताती है। प्रायश्चित से अपने पापों को धोती है, रोती है। तब कहीं जाकर रात्रि में शिव से मिलन होता है।

यही भाव इस महापर्व की साँस्कृतिक-धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना है। इसी से जीवन में चैतन्यता का संचार होता है। पर आज यह संचारी भाव कहीं रहा नहीं। पर्व के पीछे जो मूल दृष्टि-चिन्तन व विचार निहित थे और हैं उन्हें हमने खो दिया है और खोते जा रहे हैं। शिवरात्रि में समायी आत्म निर्माण, आत्म-सुधार एवं आत्म-उत्थान की चेतना आज के दिन मच रहे धूम-धाम, उठे रहे शोर-शराबे, भाग-दौड़कर रही भीड़ के जलसे-जुलूस और कोलाहल में कहीं नजर नहीं आ रही। यह शिव के भक्त की नहीं शिव से विभक्त की पहचान है। सच्चा शिवभक्त तो वह है, जिसकी अन्तर्चेतना में आज कल्याणकारी संकल्प के स्वर मुखर हो। जो आज शिव के मिलन के लिए अपने आत्मसुधार का एक नया पग आगे बढ़ाये। जिसमें पाप-अधर्म, बुराई को छोड़ने की ललक, बेचैनी, दर्द, छटपटाहट की कसक तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो उठे। आज शिवरात्रि के पुण्य पर्व पर शिव स्मरण करते हुए परखे अपनी शिव भक्ति को और कुछ ऐसा कर दिखाए कि औघड़दानी महेश्वर अपने वरदान देने के लिए मचल उठे।


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