युगगीता-31 - यज्ञो में श्रेष्ठतम-ज्ञानयज्ञ

March 2002

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या-तेरहवीं कड़ी)

‘यज्ञ बिना यह लोक नहीं तो परलोक कैसा?’ शीर्षक से विगत अंक की व्याख्या में “नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः” की व्याख्या की गई थी, जो कि चौथे अध्याय के इकतीसवें श्लोक में उद्धृत किया गया है। इसी कड़ी में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एक नेवले की कथा द्वारा ‘महायज्ञ’ की चर्चा भी की गई थी। भगवान् कहते हैं कि यज्ञावशिष्ट परमपुण्यदायी है, यह ‘प्रसाद’ तृप्ति देता है, तुष्टि देता है, वासनाओं का क्षय करके जीवन को शाँति से भर देता है। अंतिम परिणति ऐसे निष्काम यज्ञ की चैतन्य सत्ता से एकाकार होने के रूप में होती है। सभी प्रकार के यज्ञों की व्याख्या के बाद पराकाष्ठा पर पहुँचते ही श्रीकृष्ण कह उठते हैं कि इन यज्ञों को कर्म से जानना चाहिए। (कर्मजान्विद्धि)। कर्म से अर्थात् मन, इंद्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा उत्पन्न। आगे वे यह भी कह जाते हैं कि परमात्मा कर्मादि से परे है। ऐसा जान लेने पर कोई भी दिव्यकर्मी साँसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है (श्लोक 32, अध्याय 4)। भगवान् यज्ञ के दर्शन का यहाँ सार बता जाते हैं। इसके बाद के तैंतीसवें श्लोक की व्याख्या के साथ ज्ञान के महात्म्य को इस अंक में पढ़ें।

द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ ज्ञानयज्ञ

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञानयज्ञः परंतप। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते। -4/33

“ हे परंतप अर्जन ! द्रव्यमययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र संपूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।”

भगवान का कहना है कि सारे यज्ञों में ज्ञानयज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। भगवान का स्पष्ट मत है कि सारे कर्म इसी ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। अज्ञान से मुक्ति ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, सारे कर्मों का कर्म है। जीवनभर अज्ञान से चिपटे रहे, बंधनमुक्त हो नहीं पाए, तो यह जीवन निष्प्रयोजन ही रहा। देवयज्ञ-नृयज्ञ-दानयज्ञ आदि से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति मात्र हो सकती है, परंतु आत्मज्ञान बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसीलिए दैवयज्ञ-द्रव्यमययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ बताया गया है।

ज्ञान ही ऐसी निधि है जो आत्मा के साथ जन्म-जन्माँतरों तक यात्रा करती है। परमपूज्य गुरुदेव ने लेखनी और वाणी दोनों से ज्ञानयज्ञ संपन्न किया एवं लाखों निष्ठावान् प्रज्ञा परिजनों से करवाया। उनका ज्ञानयज्ञ विचारक्राँति का लक्ष्य लिए हुए था, जिसकी अंतिम परिणति होनी है युग परिवर्तन में। शाँतिकुँज हरिद्वार, गायत्री तपोभूमि मथुरा से लेकर सारे भारत व विश्व में फैले प्रायः चार हजार से अधिक प्रज्ञासंस्थानों-प्रज्ञामंडलों, स्वाध्याय मंडलों, साधना प्रशिक्षण केंद्रों तक यही ज्ञानयज्ञ संपन्न होता दिखाई देता है। स्वामी विवेकानंद पत्रावली में से एक पत्र जो उनके द्वारा उनके एक शिष्य को लिखा गया, स्पष्ट होता है कि ज्ञानयज्ञ क्या है? वे अपने एक शिष्य को जिन्हें वह अध्यापक महोदय संबोधन देते है, लिखते हैं, “मैं विचारचक्र का प्रवर्तन कर रहा हूँ, ताकि अच्छे-अच्छे विचार घर-घर पहुँचें। मेरे जीवन की यही महत्त्वाकांक्षा हैं।” यही ज्ञान यज्ञ है, जो स्वामी जी ने जीवन भर किया। लाखों गुलाम भारतीयों के मन में विधेयात्मक उल्लास जगाकर उन्हें अमृतपुत्र संबोधन देकर उन्होंने सभी को उनकी बात सुनने-पढ़ने-समझने के लिए प्रेरित कर दिया, आज सौ वर्ष बाद भी वे कर रहे हैं।

परमपूज्य गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय हमारे परिजनों से चलवाया, ज्ञानरथ को गति दी, विद्या मंदिर बनवाए तथा विद्याविस्तार पटलों की स्थापना की गति दी। प्रायः 23 से अधिक छोटी-बड़ी किताबें लिख डाली, जो एक महापुरुष का एक जन्म से संपन्न किया गया सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। आज तक इसके समकक्ष कोई उदाहरण नहीं मिलता। लक्ष्य एक ही रहा सभी ज्ञान पाएँ, विचारों के पतन को रोकें, आत्मपर्यवेक्षण कर आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ें। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका को भी वे ज्ञान चेतना की, उनकी प्राणचेतना की संवाहिका कह गए हैं। फरवरी 1970 की अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं-

“चिंतन की दिशा बदलना ही युगपरिवर्तन है। यदि चिंतन की धारा उत्कृष्टता की ओर मुड़ जाए, तो व्यक्ति संत, सज्जन, महान, विचारवान, विद्वान एवं परमार्थपरायण बनकर देवत्व की भूमिका संपादन कर सकता है। हमारा ज्ञानयज्ञ इसी प्रयोजन के लिए है।” (पृष्ठ 65)

ज्ञान के विस्तार से विचारक्राँति

व्यक्तित्व का परिष्कार, मानव में देवत्व का उदय ज्ञानयज्ञ की ही परिणति है। यह ज्ञानयज्ञ कैसे होगा? घर-घर ज्ञान चेतना के विस्तार से, श्रेष्ठ साहित्य को जन-जन तक पहुँचाकर। यह कार्य समयदान के बिना नहीं हो सकता। जनसेवा हेतु परिजन समय निकलें, इसके लिए जीवनभर वे लिखते रहे एवं लाखों समयदानियों की फौज खड़ी कर गए। द्रव्यमययज्ञ की तुलना में ज्ञानयज्ञ सर्वोपरि है, यह भगवान कृष्ण जब कहते हैं तब उनका आशय होता है, साधनों की तुलना में साधना, आत्मनिर्माण, लोकनिर्माण, समय का लोकसेवा में नियोजन जरूरी है। साधनदान अंशदान भी जरूरी है, पर सबसे बड़ा है समयदान, जो आज का युगधर्म भी है। ज्ञानयज्ञ पतन निवारण की सेवा है एवं उसके लिए चाहिए लोकहितार्थाय, समयदान-परिव्रज्या धर्म का पालन, ताकि जनमानस का परिष्कार हो सके।

परमपूज्य गुरुदेव क्राँतिधर्मी साहित्य के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तक ‘समयदान ही युगधर्म (1)’ में कहते हैं, “महान् मनीषियों की साधना ‘समय’ की तपशिला पर बैठकर ही संभव हुई है। उन्होंने जो सोचा, जो सृजा है उसके पीछे उनकी तन्मयता भरी साधना ही रही है। वैज्ञानिकों, आविष्कारों ने अपना मानस और समय प्रमुखतापूर्वक निर्धारित लक्ष्य पर केंद्रित किया होता तो सफलता की आशा कहाँ बन पड़ती? लोकसेवियों ने अपना समयदान के सहारे एक-से-एक बड़े कार्य संपन्न कर दिखाए हैं।” इस समय का उपयोग ज्ञान के विस्तार में लगें, यहीं उनका जीवनभर लक्ष्य रहा। वे सितंबर 1969 की अखण्ड ज्योति में लिखते हैं, “जपात्मक और होमात्मक यज्ञ के स्तर का ही हम दूसरा धर्मानुष्ठान “ज्ञानयज्ञ’ चलाते रहे हैं। हमारा जीवनक्रम इन दो पहियों पर ही लुढ़कता आ रहा है। उपासना और साधना यही दो आत्मिक प्रगति के आधार है। साधना का प्रकरण ज्ञानयज्ञ से संबंधित है। यह स्वाध्याय से आरंभ होकर सद्ज्ञान प्रसार के लिए किए जाने वाले प्रबल प्रयत्नों तक फैलता है..... ज्ञान ही है जो पशु को मनुष्य, मनुष्य को देवता और देवता को भगवान बनाने में समर्थ होता है। ज्ञान से ही प्रसुप्त मनुष्यता जागती है और वही आत्मा को अज्ञान के अंधकार में भटकने से उबारकर कल्याणकारी प्रकाश की और उन्मुख करता है।” (पृष्ठ 59)।

भौतिक क्षेत्र की सफलता भी ज्ञान के संपादन पर निर्भर

प्रस्तुत श्लोक (33) के मर्म की और अच्छी तरह समझने का प्रयास करें, तो गीताकार द्वारा कहा गया यह कथन स्पष्ट समझ में आता है कि भौतिक-लौकिक क्षेत्र में सफलता-संपदा प्राप्त करने के लिए जो भी सहकारी प्रयास-पुरुषार्थ चाहिए (जिसे हम द्रव्ययज्ञ भी कह सकते है), उसकी सफलता की कुँजी एक ही है, पूरे मनोयोग से एक लक्ष्य पर केंद्रित होकर अंतःप्रेरणा से कार्य करना व उसके प्रति समर्पण की तीव्रता निरंतर बढ़ाते चलना। इसे हम ज्ञानयज्ञ कह सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतःकरण की भावनात्मक स्तर पर तथा मन की बौद्धिक स्तर पर तैयारी, किसी भी शारीरिक क्रिया से अधिक महत्त्व रखती है व ऐसा कार्य जब भी किया जाता है, उसकी परिणति अति पावन होती है। भगवान यह भी कहते हैं कि सभी कर्म (जो व्यक्तित्व कामनाओं से प्रेरित होकर किए जा रहे हैं) अंततः समाप्त ज्ञान में ही होते हैं। (सर्व कर्मखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते) अर्थात् ज्ञान के उद्भव के साथ ही वैयक्तिक स्वार्थ समाप्त हो जाते हैं और पारमार्थिक कार्य होने लगते हैं। यह ज्ञान किस चीज का परमसत्ता का, अपने अस्तित्व का व जीवन के उद्देश्य का।

गीता का यह ज्ञान जिसकी चर्चा की गई है, मात्र मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है। गीता का ज्ञान है, सत्यस्वरूप। श्री अरविंद इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद का उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं यह सत्य, यह सूर्य वही है, जो हमारे अज्ञान-अंधकार के भीतर छिपा पड़ा है और जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है, “तत्सत्यं सूर्य तमसि क्षियन्तम।” चूँकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अंदर कूटस्थ ब्रह्म के स्नातक आत्मज्ञान को हमसे छिपाए रहता है, हम इस सूर्य की आलौकिक आभा को, अक्षरब्रह्म के शाश्वत-सनातन रूप की, ज्ञान के प्रकाशमयस्वरूप को समझ नहीं पते। परंतु जो इस ज्ञान का अनुसंधान लगातार अनवरत करते रहते हैं, उन्हें इसकी प्राप्ति होती है। निम्नगामी जीवन के द्वंद्वों से घिरे आत्मत्व का ज्ञान को सूर्य परमसत्ता के प्रकाश से प्रकाशित कर (आदित्यवत् प्रकाशयति पत्परम्) उसकी लक्ष्य को बोध करा देता है और यहीं उसके सभी कर्म वैयक्तिक न होकर, ज्ञान में समाकर समष्टि के हितार्थाय होने लगते हैं।” (गीता प्रबंध)

शिक्षा व विद्या में अंतर

ज्ञान शब्द हमारे शस्त्र ग्रंथों में इसी परम आत्मज्ञान के अर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ हैं। ज्ञान वह ज्योति है जिसके द्वारा हम सत्य को जान पाते हैं, उस में स्वयं को स्थापित कर पाते हैं, यह वह चीज नहीं, जिससे हमारी जानकारी बढ़ती हो, हमारी बौद्धिक संपत्ति अर्जित होती हो। यह भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान या जागतिक ज्ञान नहीं है। यह सभी तो ‘शिक्षा’ की परिधि में आते है। इन जानकारियों से मदद अवश्य मिलती है, पर हमारी आँतरिक प्रगति अंतःसत्ता के विकास हेतु तो विद्या की, विशुद्ध ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। यह यौगिक ज्ञान है, जिससे हम परमात्मा, आत्मा, भगवान को जान पाते हैं। शिक्षा की समस्त विधाएँ सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती है, पर्यायवाची नहीं वास्तविक ज्ञान वहीं है, जो मन के लिए अगोचर है, मन जिसका मात्र आभास ही पा सकता है, वह तो और भी गहरे आत्मा में विराजमान होता है।

इसीलिए उपनिषद्कार कहता है-

विद्याँ चाविद्याँ च यस्तद्वेदोभ्यँ सह। अविद्यत्य मृत्युँ तीत्वाँ विद्ययामृतमश्नुते॥ 11/ईशवास्योपरिषद्

“विद्या और अविद्या (विद्या और शिक्षा) दोनों को एक साथ जानो। इनमें से अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या द्वारा अमरत्व की प्राप्ति की जा सकती है।”

अब प्रश्न यह उठता है कि यह ज्ञान कैसे किया किया जाए, क्योंकि परमसत्ता को, परमसत्य का यह ज्ञान (ज्ञान) हममें से प्रत्येक के लिए अत्यंत महत्व का है। यह ज्ञान केवल ऐसा गुरु ही दे सकता है, जो आचार्य की तरह जीवन जी रहा हो, स्वयं उस ज्ञान को आचरण में उतार रहा हो। यदि शिष्य भाव से इस गुरु के साथ ताल−मेल स्थापित कर हम ज्ञानचक्षु जगा सकें व जान सकें कि वह कैसे इस नित्य परिवर्तनशील संसार में रहता है, अनुभव करता है, कर्म करता है, तो हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। गीताकार कहता है, पहले इस ज्ञान को प्राप्त करने हेतु तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होगी। उनसे नहीं जो तत्त्वज्ञान को वेवल बुद्धि से जानते हैं, बल्कि उन ज्ञानियों से जिनने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है, (ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः)। यह बात श्रीकृष्ण अगले श्लोक (34वें) में कहते हैं।

तद्धिद्धि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेंक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ -4/34

“उस ज्ञान की तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ उनकी भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाली ज्ञानी-महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे।”

गुरु बिन ज्ञान नहीं रे, नहीं रे

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ज्ञानप्राप्ति का राजमार्ग यह हैं। वह अर्जुन से कहते है कि यह ज्ञान वहाँ मिलेगा जहाँ ज्ञानाग्नि जल रही होगी। कबीरदास जी कह गए हैं, “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सा पंडित होय।” कबीरदास जी की भाषा में यदि हम समझ सकें तो पढ़े-लिखे, शिक्षित, विद्वान पंडित नहीं हैं, बल्कि वे है जिनने वैसा जीवन जिया है, आत्मीयता प्रेम को जीवन में आत्मसात किया है। हर श्वास में जिनने परमात्मा को जिया है। कबीर अनपढ़ थे, रज्ज्ब-रैदास अनपढ़ थे, पर इन लोगों ने वह जीवन जिया है, जिसकी ओर संकेत श्रीकृष्ण कर गए है। अंतर्ज्ञान अक्षरज्ञान का मोहताज नहीं हैं। जिस ज्ञान की अग्नि में सभी कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं, इस ज्ञान को पाना है, तो उन परमात्मा के गुणों से युक्त आचार्यों, गुरुजनों के पास जाकर उन्हें तत्त्वरूप में समझना चाहिए, अपना अहं भूलकर उन्हें दंडवत् प्रणाम कर, अपने कपट के भाव को एक तरफ रखकर जिज्ञासा प्रकट कर ज्ञान की चाह रखनी चाहिए। कई लोग ज्ञान की परीक्षा लेने, महात्माओं के प्रति आदरभाव न रख कपट भाव से प्रश्न पूछने जाते हैं। इनसे इस भाव से नहीं, निष्कपट भाव से, सेवा भाव से जाने से, ज्ञान की जिज्ञासा प्रकट करने से निश्चित ही वह ज्ञान उपलब्ध होगा जो आत्मसत्ता को सूर्यवत् प्रकाशित करेगा। सेवा करने का मतलब हाथ-पाँव दबाना नहीं, शरीर की मालिश करना नहीं, अपितु उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को आगे बढ़ाकर उनके निर्देशानुसार अपना जीवन समर्पित करने से है। ज्ञान इससे कम में किसी महापुरुष से, उनके सद्ग्रंथों से प्राप्त नहीं होगा। यदि हम सुपात्र हैं तो हमें निश्चित ही वह ज्ञान मिलेगा। पात्रता के विकास के अनुसार ही हमें परखा जाता है विद्वत्जनों द्वारा। जब वे हमारी जिज्ञासा का उत्तर दे तो हमारी अभीप्सा बढ़नी चाहिए और अधिक बढ़ जानी चाहिए भगवान को पाने की इच्छा। उसी अनुपात में हमारी विनम्रतापूर्वक की गई सेवा निष्ठा और बढ़नी चाहिए।

गुरुजनों ने भाँति-भाँति की परीक्षाएँ ली हैं अपने शिष्यों को ज्ञान देने के पूर्व। शिवाजी की परीक्षा ली गई समर्थ रामदास द्वारा सिंहनी का दूध मँगाकर। अपनी योगमाया से रची हुई सिंहनी का दूध उन्होंने माँगा और शिवाजी उसे लेकर आए सुपात्र बनकर सेवा भाव से, तब ही वे भवानी तलवार को पाने के, गुरु का अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन सके। गुर्जिएफ अपने शिष्यों को गाली देते थे। खूब डाँट लगाते थे। एक शिष्य आँस्पेंस्की उन्हीं में से निकला जो सहन करते हुए उनसे सेवाभाव से सब कुछ प्राप्त कर सका। महर्षि दयानंद जी को विरजानंद जी चिमटे से मारते थे, बड़ी कड़ाई से पेश आते, तभी एक प्रखर योद्धा पाखंड खंडिनी पताका फहराने वाला आर्य समाज का संस्थापक जन्मा। स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु का अतिशय प्रेम पाया, पर सारी शक्ति को धारण करने के बाद जो जीवन जिया उसने शरीर को सुखा डाला। 1886-87 में शक्तिपात पाने वाला यह युवा संन्यासी मात्र पंद्रह वर्ष ओर जी सका। चैन से कभी सो न सका, गुरु के कार्यों को विश्वभर में पहुँचाकर अत्यल्प आयु में कष्ट सहता हुआ शरीर छोड़कर चला गया। पात्रता विकसित करने के लिए सब कुछ झोंक देना पड़ता है, तब गुरु, विद्वान, आचार्य, पंडितगण भी अपने को खाली कर देते है।

बड़ी विलक्षण बात है। गीताकार यहाँ इस चौंतीसवें श्लोक में कहते हैं कि यह ज्ञान तो उनसे मिलेगा जिनके इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है, (ज्ञानिनः तत्त्वदर्शनः) परंतु इसी के चार श्लोक बाद अड़तीसवें में कह जाते हैं, “योग के द्वारा संसिद्धि को प्राप्त मनुष्य उसको अपने आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पाता है (तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति)।” तो फिर सत्य क्या है? दोनों- यह ज्ञान शिष्य भाव से प्रयास करने वाले हर उस मनुष्य में संवर्द्धित होता रहता है और ज्यों-ज्यों वह निष्काम भाव से समता-भगवद्भक्ति में गहराई बढ़ाता जाता है, त्यों-त्यों ज्ञान भी बढ़ता जाता है। इसी ज्ञान के विषय में और भी अधिक विस्तार से चर्चा-पापों का नाश करने वाली उसकी भूमिका सहित पैंतीसवें व अगले श्लोकों की व्याख्या के साथ अगले अंक में। क्रमशः


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