पर्व विशेष - भारतीय कला में अभिव्यक्त शिवतत्व

March 2002

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शिव का शिवत्व भारतीय कला का आदर्श है। देवाधिदेव महादेव ही भारत देश की संस्कृति एवं साधना के आधार हैं। कला और विद्या के विविध रूप उन्हीं से उपजते हैं। पौराणिक गाथाएँ इस सत्य की बड़ी मोहक प्रस्तुति करती हैं। शिव कल्याण प्रदाता आशुतोष हैं तो महासंहार के अधिष्ठाता महारुद्र भी। वह काल के भी काल महाकाल हैं। उनके अनन्त एवं विराट् स्वरूप के अनेक पहलू भारतीय कला में अनेक ढंग से उभरे एवं संवरे हैं। कलाकारों ने इतिहास के आदिकाल से उन्हें तरह-तरह से चित्रित किया है। यहाँ तक कि उनका सत्य और शिव स्वरूप ही भारतीय कला में सौंदर्य बनकर प्रकट हुआ है।

भारतीय कला में शिव की उपस्थिति हड़प्पा काल से ही देखने को मिलती है। इतिहासकारों ने पुरातात्त्विक साक्ष्यों के बलबूते यह सिद्ध किया है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के युग में शिव-पूजा जन-समाज में प्रचलित थी। पुरातत्त्ववेत्ताओं को मोहनजोदड़ो में एक ऐसी मुहर मिली है, जिसमें एक देवता योगी के रूप में उसी तरह आसीन हैं, जिस तरह हम शिव को किसी चित्र में आसन लगाए ध्यानस्थ मुद्रा में देखते हैं। इस देवता के तीन सिर और सींग हैं। चेहरे में रौद्र भाव है। हाथ में कई कड़े और गले में कण्ठाहार है। वे हाथी, चीता, गेंडा और महिष से घिरे हुए हैं। पशुओं से घिरे होने के कारण ही उन्हें पशुओं का स्वामी यानि की पशुपति कहा गया है। दरअसल उनका यह स्वरूप हिन्दू धर्म के उत्तरकालीन शिव से साम्य रखता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय कलाकारों ने शिव को यदा-कदा तीन चेहरों में दिखाया है। प्रख्यात् पुरातत्त्ववेत्ता मार्शल ने इस हड़प्पा कालीन देवता को दृढ़तापूर्वक ‘आदिशिव’ माना है। अन्य इतिहासकारों ने भी मार्शल के इस मत को स्वीकार किया है।

शिवभक्तों ने लिंग को शिव का पर्याय माना है। शिव लिंग के रूप में ही सर्वाधिक पूजे जाते हैं। इतिहास में इस सत्य के अनेकों प्रमाण मिलते हैं। कि लिंग पूजा हड़प्पा काल में ही शुरू हो गयी थी। खुदाई के दौरान हड़प्पा से पत्थर के कई लिंग मिले हैं। ऋग्वेद से यह जानकारी मिलती थी कि अनार्यों में लिंग पूजा उन दिनों प्रचलित एवं प्रतिष्ठित थी। सम्भवतः उन दिनों आर्यों में लिंग पूजा का प्रचलन नहीं था। कुछ इसी तरह का विवरण वायु पुराण में भी मिलता है। दक्ष यज्ञ के प्रसंग में मैना एवं दक्ष दोनों ही महादेव की निन्दा करते हुए उन्हें अनार्य देवता ठहराते हैं। दक्ष यज्ञ का यह प्रसंग कुछ संवरे हुए रूप में श्री रामचरित मानस में भी मिलता है।

इतिहासकारों का मानना है कि ईस्वी युग शुरू होने के साथ ही शिव की लिंग रूप की पूजा हिन्दु धर्म में सम्मिलित हो गयी थी। गुप्त काल और इसके बाद इसे पर्याप्त लोकप्रियता मिली। हालाँकि महाभारत के अनुशासन पर्व एवं अन्य पुराणों में लिंग पूजा का उल्लेख है, लेकिन इसका स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण (गुप्त काल) में मिलता है। इतिहासकार मानते हैं कि मौर्योत्तर काल तक शिव की उपासना उतनी लोकप्रियता नहीं पा सकी थी। बाद में शैव मत को गुप्त, चोल और चालुक्य एवं राष्ट्रकूट शासकों ने खूब संरक्षण प्रदान किया। हालाँकि गुप्त शासक वैष्णव थे, परन्तु उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण शैव धर्म का खूब विकास हुआ। और इसका असर कला पर भी पड़ा।

शिव की उपासना-मानवाकृति एवं लिंगाकृति इन दो रूपों में करने का प्रचलन रहा है। प्रारम्भ में शिव के इन रूपों को मन्दिरों के मुख्य गर्भगृह में स्थापित किया जाता था। लेकिन बाद में मन्दिर में सिर्फ लिंग को ही स्थापित करने की प्रथा विकसित हुई। अभी भी शिवपूजा ज्यादातर लिंग रूप में ही होती है। मद्रास के निकट ऐनीगुँटा लिंग कलात्मक कौशल का अद्भुत उदाहरण है। इस लिंग की ऊँचाई पाँच फुट है। लिंग पर द्विबाहु शिव की मूर्ति चित्रित की गई है, जो एक कुबड़े बौने के कन्धे पर खड़े हैं। शिव ने एक हाथ में मेढ़ा और दूसरे हाथ में युद्ध का फरसा थाम रखा है। नागोद में मिली एकलिंग मुखमूर्ति भी उल्लेखनीय है। इस लिंग के ऊपर सिर की आकृति रत्नजटित मुकुट से सजी हुई है।

दूसरी या तीसरी शताब्दी के एक लिंग पर शिव को चतुर्भुज आकृति में दिखाया गया है। शिव के दो हाथ उनकी जटा पर है। मथुरा में एक अन्य पूर्व गुप्तकालीन चतुर्मुख लिंग मिला है। शिव के ये मुख अलग-अलग पट्टियों पर बने हैं। शिव लिंग के ऊपर पाँचवा मुख भी है, जो आसानी से दिखाई नहीं देता। मथुरा में और भी कई शिवलिंग पाए गए हैं। अजमेर संग्रहालय का चतुर्भुज लिंग भी काफी आकर्षक है।

भारतीय कला में शिव का चित्रण सिक्के में भी किया गया है। इंडो सीथियन, इंडोपार्थियन और कुषाण शासकों ने अपने सिक्के में शिव को जगह दी। इन सिक्कों में शिव को मानवीय रूप में चित्रित किया गया है। इनमें शिव को नन्दी बैल के साथ दिखाया गया है। कुषाणकालीन सिक्कों में भगवान् शिव-माता पार्वती के साथ नजर आते हैं। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासक बाइमाकेइफिसस शिव का उपासक था।

पुरातत्त्वविदों को मानवाकार रूप में लिंग की कई मूर्तियाँ मिली हैं। सारनाथ संग्रहालय में लोकेश्वर शिव का सिर कलात्मक कौशल का नमूना है। गुप्तकाल में अर्द्धनारीश्वर की मूर्तियाँ भी बनायी गयीं। गुप्तकालीन त्रिमूर्ति-ब्रह्म, विष्णु और महेश के समन्वय को दर्शाती है। इतिहासकारों ने ऐसी मूर्तियों का भी पाया जाना स्वीकारा है, जिनमें शिव और विष्णु साथ-साथ हैं।

अध्यात्मशास्त्रों में शिव को ज्ञान-योग एवं नृत्य का महान् ज्ञाता माना जाता है। कहते हैं शिव ने दक्षिणाभिमुख रूप में यह ज्ञान अपने भक्तों के बीच बाँटा। इसी कारण शिव को महान् ज्ञानी के रूप में चित्रित करने वाली मूर्तियों को ‘दक्षिणामूर्ति’ कहा जाता है। एक ‘दक्षिणामूर्ति’ में शिव एक सार्वभौम शिक्षक प्रतीत होते हैं। उनका एक पाँव जमीन पर है और दूसरा सिंहासन पर। एक हाथ इस प्रकार उठा हुआ है, मानों वह किसी चीज की व्याख्या कर रहे हैं। शिव की ‘संहार मूर्तियाँ’ और ‘अनुग्रह मूर्तियाँ’ भी उल्लेखनीय है। संहारमूर्तियों में शिव को काल, काम, त्रिपुरासुर आदि का संहार करते हुए दिखाया गया है। जबकि अनुग्रह मूर्तियों में उन्हें भक्तों पर कृपा करते हुए दर्शाया गया है।

भारतीय कला में शिव को नटराज अर्थात् नृत्य का सम्राट माना गया है। कहते हैं कि उन्होंने 108 प्रकार के नृत्यों की रचना की। इनमें से ताण्डव नृत्य सबसे ज्यादा चर्चित है। इस ताण्डव नृत्य को दिखाने वाली कई मूर्तियाँ बनी हैं। शिव ने अपने शिष्य तुण्ड को यह नृत्य सिखलाया था। इसीलिए इसका नाम ताण्डव पड़ गया। कलाकारों ने नृत्य मुद्रा में नटराज शिव की मूर्तियाँ गढ़ने में जिस कौशल का परिचय दिया है वह अद्भुत है। खासकर चोलकाल में काँसे की जो मूर्तियाँ बनीं, उन्हें नटराज शिव की श्रेष्ठतम मूर्तियाँ माना गया। कलाकारों ने नटराज शिव की कई तरह की मूर्तियाँ बनायी। कभी उन्हें दो हाथ वाले, तो कभी चार हाथ वाले और कभी बारह हाथ वाले नटराज के रूप में दिखाया गया है। इनमें चार हाथ वाले नटराज की मूर्ति सबसे ज्यादा लोक प्रचलित हुई है। नटराज शिव की ये मूर्तियाँ भारत और विश्व के अनेक संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

मूर्तियों के अलावा मन्दिरों के रूप में भी शिवतत्त्व भारतीय कला में अभिव्यक्त हुआ। ऐसे शिव मन्दिरों में ऐलोरा का कैलाश मन्दिर, तंजौर का शिव मन्दिर, काँची का कैलाशनाथ मन्दिर, खजुराहो का कण्डारिया महादेव मन्दिर दर्शनीय है। इनमें भी ऐलोरा का कैलाश मन्दिर अद्भुत है।

सातवाहनों के शासनकाल में चट्टानों को काटकर निर्माण की जो कलाशैली विकसित हुई, कैलाश मन्दिर उसकी पराकाष्ठा है। निर्माण कार्य आमतौर पर पहले नींव से शुरू होता है। लेकिन कैलाश मन्दिर का निर्माण कार्य पहले शिखर से शुरू हुआ। इस मन्दिर का प्राँगण 300 फुट लम्बा और 200 फुट चौड़ा है। इसका विमान लगभग 100 फुट ऊँचा है। मन्दिर का परिसर हाथी सिंह जैसे पौराणिक पशुओं पर टिका है। यह मन्दिर रावण द्वारा कैलाश पर्वत के उठाए जाने की कथा पर आधारित है। एक ही चट्टान को काटकर बनाए गए इस मन्दिर में कला की जो विलक्षणता है, उसकी मिसाल पूरे विश्व में कहीं नहीं है। इसे राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम ने बनवाया था। इतिहासकारों के अनुसार मन्दिर का निर्माण कार्य आठवीं- नौवीं शताब्दी में हुआ। इतिहासकार इस सत्य से सहमत और प्रायः एकमत है कि प्रत्येक युग में शिवतत्त्व की अभिव्यक्ति भारतीय कला में होती रही है। आगे भी इसके विविध रूप- सत्यं शिवं सुन्दरम् का गौरव गान करते रहेंगे।


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