तप से श्रेष्ठ ओर कुछ नहीं

March 2002

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‘बड़ा दानी बनता है तू, चल मुझे अभी इसी क्षण भोजन करा’ - कटु वचन बोलने वाला वह साधु क्रोध की साकार मूर्ति नजर आ रहा था। परन्तु उसके इस स्वभाव के विपरीत महर्षि मुद्गल शान्ति के स्वरूप थे। वह बड़े ही विनम्र स्वर में बोले- आपका स्वागत है तपस्वी श्रेष्ठ। हालाँकि उसका स्वागत करते हुए वह सोच रहे थे कि उनकी कुटिया पर इस तरह कभी कोई क्रोधित होकर नहीं आया। फिर भी ‘अतिथि देव भव’ के इस श्रुति वाक्य का चिन्तन करते हुए वह आगन्तुक साधु के भोजन उपक्रम में व्यस्त होने लगे।

महर्षि मुद्गल यज्ञ-परायण और वीतराग भाव से अपनी घास-फूस की कुटिया में तप कर रहे थे। जितेन्द्रिय एवं परम तपस्वी महर्षि शिलोञ्छवृत्ति से अपना जीवन यापन करते थे। पत्नी, पुत्र एवं पशु-पक्षियों से युक्त अपने कुटीर में वह अभाव एवं संकट विहीन शान्तिपूर्वक रह रहे थे। संसार की विषय-वासना से कोसों दूर रहने वाला उनका परिवार किसानों के खेत-खलिहानों में चला जाया करता था। और जो अन्न-कण इधर-उधर फैले रहते थे, वह उन्हें इकट्ठा कर लेते। इस वृत्ति से वह केवल उतने ही अन्न का संग्रह करते, जितने से वह अपने परिवार समेत केवल पन्द्रह दिनों तक एक समय पेट भर भोजन पा सके। इसमें भी बची अन्न राशि से वह अतिथि सत्कार कर लिया करते। समस्त प्राणि मात्र के प्रति ईर्ष्या व द्वेष भाव से रहित महर्षि शुक्ल पक्ष में दर्श और पौर्णमास यज्ञ का नियमित अनुष्ठान करते थे। उनके इस यज्ञ में देवराज इन्द्र स्वयं साकार रूप में उपस्थित होकर अपना भाग ग्रहण करते और मुनिवर को प्रणाम-प्रणिपात कर धन्य होते।

महर्षि का तपोलीन जीवन इस भाँति चल रहा था। पौर्णमास यज्ञ करने के बाद वह सभी अतिथियों को भोजन कराते, उसके पश्चात् वह स्वयं भोजन करते। उन पर यह भगवत्कृपा ही थी कि एक द्रोण धान से बने अन्नदान के साथ अतिथियों के आगमन के बावजूद वह अन्न घटता नहीं था। उन्हें कभी अभाव का अनुभव नहीं हुआ। वेदज्ञ ब्राह्मणों, अतिथियों, देवों को भोजन कराने के बाद भी उनके छोटे से परिवार के लिए भोजन बचा ही रह जाता। उनके दान-धर्म एवं तप की अक्षय कीर्ति समूचे भूमण्डल में फैल जाने के बावजूद महर्षि की विनम्रता यथावत बनी रही।

यद्यपि उनकी इस अक्षय कीर्ति से देव और ऋषि भी ईर्ष्या से व्याकुल होने लगे थे। सहज क्रोधी ऋषि दुर्वासा भी इस ईर्ष्या की बयार से अछूते न रहे। उन्हें यह सहन नहीं हो पाया, उनके तप के सामने किसी अन्य ऋषि के तप के महात्म्य की चर्चा हो। महर्षि मुद्गल की यशोगाथा से उद्वेलित उत्तेजित ऋषि दुर्वासा ने सोचा, कि देखता हूँ कौन कितना दान-धर्म व्रती है? अभी लेता हूँ जाकर परीक्षा। बेकार का तपस्वी-दानी होने का ढोंग फैला रखा है। देखते हैं कौन-कितना टिक पाता है मेरे सामने।

महर्षि मुद्गल की साधना में विघ्न डालने की आकाँक्षा से सब कुछ छोड़-छाड़ क्रोध में फुंफकारते दुर्वासा अवधूत वेश में चल पड़े थे। और उन्होंने महर्षि मुद्गल की कुटिया के द्वार पर क्रोधित स्वर में भोजन देने का आग्रह किया। उनकी सोच थी, कि अब तो सारे अतिथि जा चुके हैं और इसके पास अन्न होगा नहीं। ऐसे में यह मुझे कहाँ से भोजन करा पाएँगे। एक पल में धराशायी हो जाएगा दानी होने का ढोंग। ऋषि दुर्वासा अपने ही ख्यालों में डूबे थे।

तभी उनके कानों में महर्षि मुद्गल की आवाज पड़ी, आइए ऋषिश्रेष्ठ! भोजन तैयार है। यह कहते हुए महर्षि दुर्वासा के चरणों में झुक गए। क्षण भर में उन्होंने आचमनीय अर्घ्य दिया और पूजन की सामग्री दी। फिर अतिथि व्रती महर्षि ने दुर्वासा को भोजन के लिए बिठाया। यज्ञोपरान्त जो कुछ भोजन सामग्री उन्होंने अपने लिए बचाकर रखी थी, वह उन्हें परोस दी। सारा खाना झटपट खत्म करके क्रोधी दुर्वासा ने आँखें तरेरी, अभी मेरी क्षुधा शान्त नहीं हुई है, और भोजन लाओ। धैर्यवान महर्षि ने उन्हें फिर से भोजन परोसा। दुर्वासा ने अपनी जिद के चलते महर्षि के हिस्से का ही नहीं उनकी पत्नी एवं पुत्र के हिस्से का भी भोजन खा लिया। इतना ही नहीं अपनी थाली के अवशिष्ट-उच्छिष्ट को अपनी देह पर मल लिया। और बड़बड़ाते हुए वापस लौट गए।

अतिथि व्रतधारी महर्षि के मन में दुर्वासा के प्रति गहरी श्रद्धा उमड़ आयी। उन्होंने भाव विभोर होकर सोचा, चलो प्रभु की कृपा से अनुष्ठान पूर्ण हुआ। हालाँकि उन्हें अन्नाहार नहीं मिल सका, पूरे परिवार को भी भूखे रहना पड़ा। परन्तु अतिथि की सन्तुष्टि में महर्षि प्रसन्न और सन्तुष्ट थे। इसी आनन्द से भरे उन्होंने और उनकी पत्नी व पुत्र ने यह पर्व व्रत रखकर ही समाप्त किया।

इसके बाद दूसरा पर्व आया। महर्षि मुद्गल की कुटिया फिर से यज्ञीय वैभव से भर गयी। आज पुनः देवों और वेदज्ञ ब्राह्मणों ने भोजन किया। निर्विघ्न यज्ञ पारायण का क्षण आ पहुँचा। महर्षि अपने परिवार के साथ भोजन के लिए बैठने वाले ही थे कि ऋषि दुर्वासा पुनः पिछली बार की तरह आ धमके। फिर से वही कथा दुहराई गयी। महर्षि के बचे हुए सारे भोजन को खाकर-दुर्वासा डकार लेते हुए चले गए।

परम तपस्वी मुद्गल के मुख पर वेदना के धब्बे अभी भी न आए। निराहार रहकर उन महामनस्वी ने पुनः अन्न के दानों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया। अनाहार की पीड़ा उन्हें विचलित न कर पायी। उनकी शान्त अन्तर्चेतना में किसी भी तरह की ईर्ष्या, क्रोध या फिर किसी दूसरे विकार की कोई तरंग न उपजी। वह फिर से अपनी शिलोञ्छवृत्ति पालन में निरत हो गए। लेकिन अभी उनमें अधिक अन्न संग्रह की कोई चाह न जगी। हालाँकि प्रत्येक पर्व पर ऋषि दुर्वासा का आगमन यथावत था। वह महर्षि की परीक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे कि देखें कब तक उनका हृदय विचलित नहीं होता है। अपनी इसी प्रतिबद्धता के साथ वह लगातार छः पर्वों तक आते रहे और महर्षि मुद्गल को सपरिवार निराहार रहना पड़ा। किन्तु उनकी साधना भंग न हुई। दुर्वासा ने उन्हें कभी विकारमय न पाया। निर्मल अन्तःकरण वाले महर्षि बड़े ही विनम्र भाव से दुर्वासा का अतिथि सत्कार करते रहे। उनके कटु-तिरस्कार पूर्ण वचनों को भी उन्होंने अतिथि द्वारा लाई गयी भेंट के रूप में ही उत्साहपूर्वक स्वीकार किया।

सहनशीलता से परिपूर्ण, ईश्वर भक्ति से ओत-प्रोत चित्त महान् से महान् आपदाओं पर विजय पा लेता है। ऐसा ही कुछ महर्षि के साथ हुआ। उनके व्यवहार ने क्रोध की साकार मूर्ति दुर्वासा के पाषाण हृदय को भी पिघला दिया। सहिष्णुता की विजय हुई, दुर्वासा दयार्द्र हो उठे। उन्होंने महर्षि से दया भरे वचनों से कहा- महर्षि तुम्हारे समान ईर्ष्या रहित दानी इस धरती पर कोई अन्य नहीं हो सकता। भूख बड़े से बड़े धर्मज्ञानियों के ज्ञान का हरण कर लेती है। उनका धैर्य चुक जाता है। फिर परिश्रम से उपार्जित धन और अन्न का दान कर पाना अति कठिन होता है। किन्तु तुमने यह कठिन कार्य बड़े ही सहज भाव से कर दिखाया है। अपने धैर्य, शुद्ध आचरण एवं श्रेष्ठतम कर्मों से तुमने समस्त पुण्य लोकों को जीत लिया है। अपने श्रेष्ठ तप से तुम स्वर्ग के शाश्वत अधिकारी हो। मेरा आशीर्वाद है, कि तुम सशरीर स्वर्ग जाओगे।

विस्मय से भरे महर्षि मुद्गल दुर्वासा की इस वाणी को सुनते रहे। और सचमुच ही थोड़े ही क्षणों के पश्चात् देवों के प्रभाव से सभी के देखते-देखते कुछ देवदूत विमान सहित वहाँ उपस्थित हो गए। यह दिव्य विमान विलक्षण था। धरती पर देवों के इस अद्भुत विमान को उतरते हुए देख कर सभी चकित थे। देवदूतों ने महर्षि से कहा- हे तपस्वी श्रेष्ठ! आपने अपने कठोर तप से इच्छाधारी इस विमान को प्राप्त कर लिया है। आपने अपने अद्भुत तप और दान से परम गति प्राप्त कर ली है और इसलिए आप इसी शरीर से स्वर्ग में प्रवेश करने के अधिकारी हैं।

किन्तु परम तपस्वी निराभिमानी महर्षि देवदूत के इन वचनों को सुनकर वैसे ही संयत रहे। उन्होंने देवदूत का श्रद्धाभाव भरा स्वागत किया और विनम्र वाणी में पूछा- ‘भद्र, मैं स्वर्ग में रहने वालों की तपस्या, स्वर्ग के सुख और स्वर्ग में रहने से कौन-कौन से दोष होते हैं? इन सबके बारे में ज्ञान प्राप्त करके ही मैं यह निर्णय कर सकूँगा कि स्वर्ग जाऊँ या नहीं? क्योंकि तपस्या की इस कर्मभूमि धरती को मैं स्वर्ग-सुख की लालसा में क्षण भर के निश्चय से नहीं त्याग सकता।’

देवदूत हैरान थे। उन्हें अचरज हो रहा था कि सभी जीव जिस स्वर्ग के एक क्षण भर के सुख को पाने के लिए अनगिन यत्न करते हैं। उसी स्वर्ग का आग्रह पूर्ण निमन्त्रण मिलने पर भी ये महर्षि कोई उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। विवश देवदूतों ने अन्ततः महर्षि का आग्रह स्वीकार करके उन्हें स्वर्ग के बारे में बताना शुरू किया-

हे तपोधन! जिसे स्वर्ग लोक कहा जाता है वह यहाँ से पर्याप्त दूर ऊपर की ओर है। वहाँ तक जाने का समूचा रास्ता अति उत्तम है। हे ऋषिश्रेष्ठ! जिन्होंने उत्तम कोटि की तपस्या नहीं की, जिन्होंने महायज्ञों का आयोजन नहीं किया, जो नास्तिक एवं ईश्वर विमुख हैं, वे इस पुण्य लोक में प्रवेश नहीं पा सकते। हे दिव्यात्मा! आपकी भाँति धर्मात्मा, मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले, शान्त, संयमी, दान एवं धर्म में निरत लोग वहाँ प्रवेश पाते हैं। उस स्वर्ग लोक में ही देव, सिद्ध, विश्वदेव, गंधर्व तथा अप्सराओं के अलग-अलग लोक हैं। ये सभी लोक तेजोमय एवं मंगलकारी हैं।

हे तपस्वी श्रेष्ठ मुद्गल! स्वर्ग में भूख, प्यास, ग्लानि, शीत, उष्णता, भय तथा शोक आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं है। वीभत्स, अशुभ एवं अमंगल की वहाँ छाया तक नहीं है। हे महर्षि! जो अपने सत्कर्मों से स्वर्ग पर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ अति सुखपूर्वक निवास करते हैं। सभी तरह की चिन्ताओं, परेशानियों एवं दुःखों से सर्वथा मुक्त होता है उनका जीवन। यहीं अन्य सभी देव लोकों से ऊपर ब्रह्मलोक भी है, जो अत्यन्त तेजोमय एवं मंगलकारी है। इस लोक में अपने शुभकर्मों से शान्तात्मा ऋषि-मुनि जाते हैं। यहीं देवों के आराध्य ऋभुगण रहते हैं। स्वर्ग के देवता भी इन ऋभुगणों की परमगति की कामना करते हैं। यह परमसिद्धि की अवस्था है, जो परम दुर्लभ है। आपने अपने तप और दान से इसे प्राप्त किया है। अब आप वहाँ चलकर इसका उपयोग करें।

विचारमग्न महर्षि ने उस देवदूत को टोकते हुए कहा- भद्र अभी तक आपने स्वर्ग के सुख-संसाधनों का वर्णन किया है, इसके अवगुणों की ओर भी संकेत करें। मुझे यह भी बताएँ कि क्या यहाँ कठोर एवं उग्र तपस्या सम्भव है अथवा नहीं।

महर्षि आपका प्रश्न सर्वथा उचित है। यह सत्य है कि स्वर्ग में दोष भी है। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! यहाँ केवल जीवात्म अपने श्रेष्ठ कर्मों को भोगता है। यहाँ उसे किसी भी नए कर्म करने का अवकाश नहीं है। अपने पुण्यों को गंवाकर ही कोई स्वर्ग का सुख पाता है। पुण्यों के समाप्त होने पर उसे पुनः धरती पर वापस लौटना पड़ता है। पुण्य क्षीण लोगों के स्वर्ग भ्रष्ट होने पर उनकी चेतना लुप्त होने लगती है। स्वर्ग के सभी लोकों का सबसे बड़ा दोष यही है कि यहाँ कोई हमेशा-हमेशा नहीं रह पाता। स्वर्ग में तप करना सम्भव नहीं है महर्षि। तपोभूमि एवं कर्मभूमि तो यह धरती ही है। और यही स्वर्ग फलभूमि भी है।

देवदूतों की ये बातें सुनकर महर्षि कुछ पलों के लिए अपने गहन विचारों में निमग्न हो गए। और फिर देवदूत को प्रणाम करते हुए उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- हे महाभाग! मैं आपको भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ। अब आप सुखपूर्वक लौट जाएँ। मुझे स्वर्ग की कोई कामना नहीं है।

महर्षि के इन वचनों को सुनकर हतप्रभ देवदूतों ने कहा- क्यों ऋषिश्रेष्ठ? मैंने तो आपकी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के बारे में सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है। देवदूतों की आशंका को निरस्त करते हुए महर्षि कहने लगे- तुम्हारा कोई दोष नहीं है। परन्तु मैं ऐसी किसी भी जगह नहीं जाना चाहता, जहाँ पर तप करना सम्भव नहीं है। मुझे महान् दोषों से भरे हुए स्वर्ग का एक क्षण भी स्वीकार नहीं है।

विनम्र भाव से देवदूतों को वापस कर महर्षि पुनः कठोर तप करते हुए उस मार्ग पर चल पड़े, जो सनातन और अविनाशी प्रभु का धाम है। जहाँ न शोक है, न पीड़ा और नहीं पतन का भय। जहाँ सत्-चित्-आनन्द की शाश्वत चेतना आलोकित है। समत्व बुद्धि से भरे महर्षि का जीवन और भी अधिक प्रखर तप से प्रकाशित हो उठा। निन्दा-स्तुति में समान महर्षि के लिए स्वर्ग और धूलिकणों में कोई अन्तर न था। अन्ततः तपोनिष्ठ महर्षि ने देवों को भी दुर्लभ ईश्वरभक्ति एवं मोक्ष की परमोच्च अवस्था की प्राप्ति की। उनकी कथा गाथा आज भी सभी लोकों में संव्याप्त होकर इस सत्य का उद्घोष करती है- कि तप ही श्रेष्ठ है! तप ही श्रेष्ठ है!! तप ही श्रेष्ठ है!!! तप से श्रेष्ठ और कहीं कुछ भी नहीं।


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