सत्य की किरण भी पर्याप्त है। ग्रन्थों के अम्बार अपनी लाख कोशिशों के बावजूद जो नहीं कर पाते, सत्य की एक झलक आसानी से वह कर दिखाती है। अंधेरे में उजाला करने के लिए प्रकाश के ऊपर लिखे गए बड़े-बड़े ग्रन्थ किसी काम के नहीं, एक मिट्टी का छोटा सा दीया जलाना ही काफी है।
स्वामी विवेकानन्द की वार्ताओं और व्याख्यानों में एक अपढ़ बूढ़ा निरन्तर देखा जाता था। देखने वालों को हैरानी हुई। उनमें से कइयों ने सोचा कि भला एक अपढ़ गरीब वृद्ध व्यक्ति स्वामी जी की गम्भीर वेदान्त चर्चा को भला क्या समझता होगा। एक ने आखिर में उससे पूछ ही लिया- बाबा, तुम्हारी समझ में कुछ आता भी है या फिर यूँ ही अपना समय बर्बाद करते रहते हो?
उस गरीब वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया, वह अद्भुत था। उसने कहा- जो बातें मुझे नहीं समझ में आतीं, अब उनके बारे में मैं क्या बताऊँ। लेकिन एक बात मैं बखूबी समझ गया हूँ और पता नहीं दूसरे लोग उसे समझे भी हैं अथवा नहीं। फिर मैं तो अपढ़-गंवार हूँ, बूढ़ा भी हूँ, मुझे बहुत सारी बातों से प्रयोजन भी क्या? मेरे लिए तो बस वह एक ही बात काफी है। और उस बात ने मेरा सारा जीवन ही बदल दिया है। अब न तो मुझे भय डराता है और न चिन्ताएँ सताती हैं। न तो अतीत की कोई कसक है, न वर्तमान की कोई परेशानी और न ही भविष्य की कोई चिन्ता बची है। बस आनन्द ही आनन्द है।
लोगों की जिज्ञासा बढ़ी- आखिर वह बात है क्या? उस वृद्ध व्यक्ति ने बताया, वह बात है कि मैं भी प्रभु से दूर नहीं हूँ। एक दरिद्र अज्ञानी बूढ़े से भी प्रभु दूर नहीं हैं। प्रभु निकट हैं- निकट ही नहीं स्वयं में हैं- इतने निकट कि हम दोनों बस एक ही हैं। यह छोटा सा सत्य मेरी नजर में आ गया है। और अब मैं नहीं समझता कि इससे भी बड़ा कोई सच हो सकता है।
सच भी यही है, जीवन बहुत तथ्य जानने से नहीं, बल्कि सत्य की एक छोटी सी अनुभूति से ही बदल जाता है। जो बहुत जानने में लगे रहते हैं, वे प्रायः सत्य की उस छोटी सी चिंगारी को गवाँ बैठते हैं, जो प्रकाश और परिवर्तन लाती है। और जिससे जीवन में बोध के नए आयाम खुलते हैं।