श्रीरामलीलामृतम्-3 - चेतना की शिखर यात्रा

March 2002

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(परमपूज्य गुरुदेव : एक असमाप्त जीवन गाथा)

यमुना से गंगा तक

अक्टूबर 1915 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी एक्ट पास होने के चार महीने बाद माघ शुक्ल प्रतिपदा को विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। संवत् 1972 (सन् 1916) की उस तिथि को वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज ने शिलान्यास किया। बंगाल के गवर्नर, तीन प्राँतों के उपराज्यपाल, बारह महाराजा और कई विद्वान, जमींदार, साहूकार आदि इस अवसर पर उपस्थित थे। यह विश्वविद्यालय एनी बीसेंट के स्थापित सेंट्रल हिंदू कॉलेज का ही विकसित रूप था। संकल्प करीब पाँच साल पहले लिया गया था। इसके लिए एनी बींसेंट महामना मदनमोहन मालवीय, दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह ने मिलकर काम शुरू कर दिया था। निश्चय किया गया कि बैंक के पचास लाख रुपये जमा हो जाएँ और एक करोड़ रुपये इकट्ठे होने की स्थिति बन जाए तो विश्वविद्यालय की विधिवत् स्थापना हो।

सरकार और कुछ राजा-महाराजा मिलकर भी इतना संचय कर सकते थे, लेकिन महामना मालवीय जी ने समर्थ लोगों के सहयोग के साथ जनसाधारण से दान लेने का प्रस्ताव भी रखा। सामान्य आय की स्थिति के लोगों से चंदा जुटाने का उद्देश्य उनसे आत्मीयता जोड़ना भी था। समर्थ लोगों के विपुल सहयोग के साथ छोटे-छोटे अंशदानों से मार्च 1913 तक इक्कीस लाख रुपये जमा हुए। पचास लाख की अभिलाषिता राशि जुटाने में दो साल और लगे। इतने संचय में बीकानेर, जोधपुर और कश्मीर रियासतों से मिलें वार्षिक अनुदान भी शामिल थे। जनसहयोग जुटाने के लिए पूरे देश के विद्वानों, नेताओं, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और पुरोहितों, उपदेशकों से भी अपील की गई थी। सभी वर्गों के सैकड़ों लोग जुटे और दिन-रात लगे रहे। पाँच वर्ष की अवधि में लक्ष्य का आधे से ज्यादा भाग इकट्ठा हो गया। अंशदान में मुट्ठी अनाज से लेकर एक पैसा, आधार पैसा और आने-दो आने जितनी छोटी रकम भी थी।

व्रज क्षेत्र में जो गिने-चुने लोग काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे, उनमें पंडित रूपकिशोर शर्मा का नाम अन्यतम है। आगरा के पास आँवलखेड़ा गाँव में बसे पंडित रूपकिशोर शर्मा भागवत् के उद्भट विद्वान थे। दूर-दूर वे कथा और धर्मोपदेश करने जाते थे। महामना मदनमोहन मालवीय उनकी व्याख्यान शैली से बहुत प्रभावित थे। कुछ समय तक यों दोनों एक ही गुरुकुल में रहे थे, लेकिन दोनों के स्नेह-संबंधों का आधार भागवत् प्रेम ही था। भागवद् कथा के समय श्रोताओं से सनातन धर्म के लिए सहयोग जुटाने की सीख मालवीय जी ने ही दी थी। लोगों से छोटी-छोटी राशि इकट्ठी करना निश्चित होने के बाद मालवीय जी ने उन्हें कम-से-कम ग्यारह हजार रुपये जुटाने के लिए कहा था। पंडित रूपकिशोर ने अलग-अलग समय पर यह रकम पहुँचाई। किश्तों में भेजी गई इस राशि में भागवत कथा कराने वाले यजमानों का योगदान भी समाहित है। कितनी रकम कहाँ से भेजी गई, इसका पूरा हिसाब नहीं है। एक बड़ा हिस्सा गुप्तदान के रूप में भेजा गया था। पंडित जी के वंशज इस बारे में बताया करते थे।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक पुरोधा होने के नाते उद्घाटन के समय पंडित रूपकिशोर शर्मा भी पहुँचे। व्रज क्षेत्र के कुछ पुरोहित विद्वान भी उनके साथ थे। कुछ स्वजन-संबंधी और परिवार के लोग काशी की यात्रा करने के उद्देश्य से चल पड़े थे। परिवार के साथ ही करीब साढ़े पाँच साल का एक शिशु भी था। शिलान्यास और स्थापना समारोह में पंडित जी अपने दो सहयोगियों को लेकर व्यवस्था का काम देखते रहे। दूसरे लोग काशी में देवदर्शन और गंगा स्नान, अनुष्ठान आदि कृत्यों में व्यस्त हो गए।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय का स्थापना समारोह कई दिन तक चला। विश्वविद्यालय का उद्देश्य विद्यार्थियों को आधुनिक विषय पढ़ाने के साथ सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के मूल तत्व समझाना भी था। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी अधिनियम में ही व्यवस्था थी कि विश्वविद्यालय में हिंदू धर्म-विज्ञान की उच्चस्तरीय शिक्षा का प्रबंध होगा। यहाँ सभी जाति संप्रदाय के छात्र पढ़ सकेंगे। विशेष बात यह थी कि विश्वविद्यालय के प्रबंध और संचालन में हिंदू धर्म मानने वाले को ही दायित्व सौंपने की व्यवस्था की गई। प्रबंध समिति में गैर सरकारी सदस्यों का बाहुल्य होने की व्यवस्था भी अधिनियम में की गई। विश्वविद्यालय का जो स्वरूप उभर रहा था, वह पूरी तरह सनातन धर्म के अनुरूप था।

आलोचकों ने इसे आरंभ से ही पोंगापंथी, साँप्रदायिक और अनुदार आदि कहना शुरू कर दिया था। कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय के नाम से ‘हिंदू’ शब्द हटाने के लिए दबाव डालने की कोशिश की। आँदोलन तो हाल तक भी चलते रहे हैं। उन दबावों की आरंभ से ही परवाह नहीं की गई। बाद में महात्मा गाँधी ने भी हिंदू शब्द हटाने की माँग करने वालों को गलत ठहराया था। जिस नाम से वह आज प्रसिद्ध है, उसी का समर्थन किया था।

दीक्षागुरु का अपने शिष्य से मिलन

विश्वविद्यालय का स्वरूप हिंदू धर्म-विज्ञान की उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति देने के लिए गठित किया गया था। स्वाभाविक है कि स्थापना समारोह में यज्ञ-याग, प्रवचन, कथा आदि के कार्यक्रम भी रखे जाते। आँवलखेड़ा से गए पंडित रूपकिशोर जी को भी इन कार्यक्रमों का आँशिक दायित्व सौंपा गया। यज्ञ-याग और अन्य धर्म-अनुष्ठानों के लिए आए पुरोहितों को ठहराने, उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखने और नगर-भ्रमण कराने के काम में वे लगे हुए थे। उस अवधि में उन्हें अपने परिजनों की सुध भी नहीं रही। कौन कहाँ ठहरा है, क्या खा रहा है, कहाँ विश्राम कर रहा है, आदि की चिंता करना तो दूर रहा, उन्हें उनका ध्यान भी नहीं रहता था।

समारोह शुरू हुए पाँच दिन बीते होंगे। वसंत पंचमी का दिन था। विद्या की देवी सरस्वती के अवतरण के दिन व्याख्यान, गोष्ठी, अधिकारियों की बैठक आदि नियत क्रम के अनुसार चलते रहे। सरस्वती पूरा उस दिन का विशेष आयोजन था। आम के पत्तों और बौरों से वेदी सजाई गई। साठ-सत्तर विद्यार्थी और अध्यापक वेदी के सामने बैठे। वेदी के सामने ही यज्ञकुँड स्थापित किया गया। मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ आरंभ हुआ। मालवीय जी कर्मकाँडों का संचालन कर रहे थे। इन बच्चों में पंडित रूपकिशोर जी के पुत्र श्रीराम भी थे। उम्र पाँच-छह वर्ष के बीच रही होगी। सामान्यतः यह बालक माँ और परिवार के लोगों के साथ रहता था। उस दिन पंडित जी कुछ सोचकर वहाँ ले आए थे। सरस्वती पूजा में भाग लेने के अलावा कुछ समय मालवीय जी का सान्निध्य-लाभ कराना भी शायद उद्देश्य रहा हो।

पर्व -उत्सव की प्रक्रिया अपने ढंग से चलती रही। छात्र जब मंत्रों का उच्चारण करते या दोहराते तो वातावरण और भी मनोरम हो उठता था। बच्चे ही थे। कहीं-कहीं उच्चारण में दोष आ जाता था, लेकिन उस और ज्यादा लोगों ने ध्यान नहीं दिया। उपस्थित पंडितों और अध्यापकों ने उनका उत्साह बढ़ाना ही श्रेयस्कर समझा। इन बच्चों में सबसे छोटी उम्र के बालक श्रीराम थे। वह जब मंत्रपाठ करते तो मालवीय जी की दृष्टि उनकी और पड़ जाती। इतने छोटे बालक को मंत्रोच्चार करते देख वे अपलक निहारते रह जाते। पर्व देवता का पूजन संपन्न होने और प्रसाद-वितरण के बाद मालवीय जी उस बालक के पास आये। स्नेह से सिर पर हाथ फेरा।

निकट आते ही बालक श्रीराम ने उनके चरणों में प्रणाम कर लिया था। दुलारते हुए मालवीय जी ने पूछा, “तुम्हारे पिता कहाँ हैं, वत्स?” बालक श्रीराम कुछ बोलते, इससे पहले ही पंडित रूपकिशोर जी सामने आ गए। मालवीय जी के सामने विनम्र भाव से खड़े हो गए और कहने लगे, “यह आपका ही स्नेह और वात्सल्य है महामना।” मालवीय जी ने बालक के बारे में दो-चार बातें और पूछी। उसे गौर से कुछ देर देखते रहे और पूछा, “उपनयन हो गया है क्या?” पंडित जी ने कहा, “अभी प्रतीक्षित है। आपके हाथों संपन्न हो तो अहो भाग्य!”

मालवीय जी के चेहरे पर स्मिति की रेखा खिंच गई। उनकी सफेद मूँछों के पीछे खिले हुए होंठ स्पष्ट प्रतिभासित हो रहे थे। जैसे कह रहे थे कि पंडित जी आपने मेरे मन की बात अपने मुंह से कह दी। मालवीय जी ने कहा कि मैं मंत्रदीक्षा दूँगा। संकल्प लिया जा चुका है, इसलिए दीक्षित माना जा सकता है। अभी क्रिया संपन्न नहीं हुई, संकल्प हुआ है, इसलिए दीक्षा का आरंभ हुआ मानिए। उपयुक्त समय पर दीक्षा भी संपन्न हो जाएगी। वह उपर्युक्त समय कुछ वर्ष बाद आया। उस दिन परिसर में कार्यक्रम भी थे। एनी बीसेंट का व्याख्यान होना था। मैसूर (अब कर्नाटक) के महाराज कृष्णराज वादियार, डॉ. सुँदरलाल आदि अभिजात्य जनों के साथ भी महामना का अलग-अलग विमर्श चलना था।

स्थापना समारोह विश्वविद्यालय की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण था ही और भी कई घटनाएं थीं, जिन्होंने इतिहास में नए मोड़ लाने वाला आयोजना बना दिया। सनातन धर्म और संस्कृति के नए अनिमेष के साथ विद्या, धन, कला, शक्ति, साधना और शौर्य की सात धाराओं वाली गंगा जैसे वहाँ प्रवाहित हो उठी थी। महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओत-प्रोत भाषण वहीं दिया था, जिसमें प्रतिभाओं को ललकारा गया था। उन्हें अपने कर्त्तव्य से विमुख बताते हुए गाँधी जी ने राजा-महाराजाओं और श्रीमंतों की कड़ी आलोचना कर दी थी।

व्याख्यान में राजा-महाराजा भी उपस्थित थे। गाँधी जी की आलोचना से वे उत्तेजित हो उठे। उन्होंने कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया और उठकर चले गए। विरोध में उठकर जाने वालों में एनी बीसेंट भी थीं। मदनमोहन मालवीय उस आयोजन में शाँत बैठे रहे। उन्होंने लोगों के उठकर जाने की परवाह नहीं की। किसी भी तरह का दबाव माने बिना, सत्य को स्वीकार करने और उसके साथ खड़ा होने के और भी कई प्रसंग हैं, जो उन दिनों घटे और उनके संस्कार वातावरण में घुले-मिले और वहाँ आए लोगों के चित्त में जाने-अनजाने छाए।

महामना के सहयोगी पंडित जी

मालवीय जी के सहयोगियों में आँवलखेड़ा (आगरा) के पंडित रूपकिशोर आदर से याद किया जाने वाला नाम था। राजनीति, शिक्षा, समाज-सुधार और सेवा-कार्यों में निरत रहते हुए भगवत् के कथा प्रसंगों और तत्त्वदर्शन की विवेचना मालवीय जी का प्रिय धर्म-अनुष्ठान था। पंडित रूपकिशोर जी अपने क्षेत्र में भागवत व्यास के रूप में श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाते थे। पंडित रूपकिशोर अपने आपको महामना का विनम्र शिष्य और अनुयायी ही कहते थे। उनका क्षेत्र भी अपेक्षाकृत छोटा था, लेकिन ब्रजमंडल में वे मालवीय जी की कथा शैली के प्रतिनिधि प्रवक्ता कहे जाते थे। उस क्षेत्र के राजा-रजवाड़ों में पंडित जी का बहुत मान-सम्मान था।

कथा-उपदेश वाणी की कला नहीं है। अपनी बात कहने का ढंग आना चाहिए। उसका प्रभाव पड़ता है, लेकिन जो कहा जा रहा है, उसके पीछे आस्था का बल भी होना चाहिए। यह बल उपदेशों को पहले अपने जीवन में उतारने से आता है, जो भागवत करुणा और भक्ति का शास्त्र है, वह प्रेत-पिशाचों को भी कषाय-कल्मषों से मुक्त करता है। धुँघकारी प्रेत की कथा भागवत कथा के समय माहात्म्य प्रसंग में हर बार सुनाई जाती है। करुणा और भक्ति के तत्त्व पंडित जी के जीवन में पूरी आभा के साथ प्रकट हुए थे। उनके संपर्क में आकर बहुत लोगों ने अपनी बुराइयाँ छोड़ी। छोटे-मोटे दोष-विकारों से मुँह मोड़ने की सैकड़ों घटनाएँ है। एक अवसर ऐसा भी आया जब पंडित जी के निवास से कुछ दूर जंगल में रहने वाले धाँधू नामक डकैत ने लूटमार करना छोड़ दिया। इलाके में उसका आतंक था। उसका अपना कोई गिरोह नहीं था, लेकिन वह खुद बहुत बलवान था। उसमें 25-30 लोगों से जूझने की सामर्थ्य थी।

पंडित जी कथा कहने के लिए जा रहे थे कि रास्ते में धाँधू से मुलाकात हो गई। कहने लगा-आप ब्राह्मण देवता हैं, आपका अनादर तो नहीं करूंगा, लेकिन मैं दस्यु हूँ। लूटना छोड़ दूँ तो अपना और आश्रितों का निर्वाह कैसे करूंगा? इसलिए आपके साथ बलप्रयोग नहीं करूंगा। सिर्फ यही चाहूँगा कि आपके पास जो कुछ भी है, वह चुपचाप रख दें।

धाँधू ने पूरे वेग से कहा था। सामान्य मनःस्थिति का व्यक्ति धाँधू के दमखम, बुलंद आवाज और डपट से काँपने लगता। पंडित जी पर उसके डरावने व्यक्तित्व का कोई असर नहीं हुआ। जिस निश्चित भाव से वे जा रहे थे, उसी निर्द्वंद्व भाव से खड़े हो गए और धाँधू को निहारने लगे। अपनी धमकी का कोई असर होता न देख डाकू अचरज में पड़ गया। उसने कहा, पंडित जी मैंने जो कहा, वह आपने सुन लिया है न। पंडित जी ने कहा- सुन लिया है, पर मैं अभी तुम्हें कानी कौड़ी भी नहीं दूँगा। अगर कथा सुनने चलते हो तो वचन देता हूँ कि वहाँ जो भी दान-दक्षिणा आएगी सब तुम्हें सौंप दूँगा। धाँधू की आँखें चौड़ी हो गईं। पहले अचरज से बड़ा अचरज सामने आ गया था।

दोनों में कुछ देर संवाद हुआ। पता नहीं पंडित जी की किस बात का असर हुआ कि धाँधू कथा सुनने के लिए राजी हो गया। वह साथ चल पड़ा। भागवत सप्ताह की पूरी अवधि में उसने ध्यान से कथा सुनी, पुराने संस्कार बीच-बीच में जोर मारते। वह लोगों को डराने-धमकाने लगता, लेकिन यह देर तक नहीं चला। भागवत सप्ताह पूरा होने के बाद पंडित जी ने दान-दक्षिणा समेटकर धाँधू के हाथ में सौंपी। रुपये, पैसे, आभूषण और मेवों आदि से गठरी बँध गई थी। डाकू ने गठरी उठाई, सिर पर रखी और कह उठा-आदेश करें प्रभु जी किधर चलना है। पंडित जी ने कहा- जहाँ तुम ले जाना चाहते हो ले जाओ, मैंने अपना वचन पूरा कर दिया। घाँधू ने गठरी उतारकर एक तरफ रखी और पंडित जी के चरणों में लोट गया। जोर-जोर से रोते हुए वह कहा रहा था- मुझे राह मिल गई भगवन् क्षमा करें। मैं मेहनत और ईमानदारी की कमाई ही खाऊँगा। उसी से परिवार का गुजारा चलाऊँगा। अनुमय-विनय कर वह बोझ पंडित जी के घर तक छोड़ने गया। जिसने भी देखा उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि यह धाँधु डाकू है। (क्रमशः)


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