पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर (Kahani)

March 2002

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उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम समय था। ठाकुरदास नामक एक वयोवृद्ध कोलकता में रहता था। उसके परिवार में केवल एक बच्चा और पत्नी थी। इस सीमित परिवार का भरण-पोषण भी ठीक प्रकार से न हो पाता।

नियति ने उन्हें मेदिनीपुर जिले के एक गाँव में ला पटका। वहाँ ठाकुरदास को दो रुपये महावार की नौकरी मिली। कालाँतर में उनका देहाँत हो गया। पत्नी के कंधों पर सारे परिवार का दायित्व आया। इसी तरह कई वर्ष बीत गए।

एक दिन रात के समय बेटे ने अपनी माँ के पैर दबाते हुए पूछा, “माँ! मेरी इच्छा है कि मैं पढ़-लिखकर बहुत बड़ा विद्वान बनूँ और तुम्हारी खूब सेवा करूं।”

कैसी सेवा करेगा?” बेटा पढ़ने लगा था, इसलिए कुछ मन बहलाते हुए प्रोत्साहन के स्वरों में माँ ने पूछा।

“माँ तुमने बड़ी तकलीफ में दिन गुजारे हैं। मैं तुम्हें अच्छा-अच्छा खाना खिलाऊँगा और बढ़िया कपड़े लाऊँगा। हाँ तुम्हारे लिए गहने भी बनवाऊँगा।”

“हाँ बेटा, तू जरूर सेवा करेगा मेरी” माँ बोली, “पर गहने मेरी पसंद के ही बनवाना।”

“कौन से गहने माँ?”

“मुझे तीन गहनों की बड़ी चाह है।” माँ ने बताया। “पहला गहना तो यह है कि इस गाँव में कोई अच्छा स्कूल नहीं है। तुम एक स्कूल बनवाया। दवाखाना भी खुलवाना और तीसरा गहना यह है कि गरीब बच्चों के रहने, खाने तथा शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था करना।”

बेटे ने भवाभिभूत होकर माँ के चरणों में सिर रख दिया और तभी से उसे कुछ ऐसी धुन सवार हुई कि उसे अपनी माँ के इन तीन गहनों का सदैव ध्यान रहा। वह बराबर स्कूल, औषधालय तथा सहायता केन्द्र खोलता चला गया।

आगे चलकर स्त्री शिक्षा तथा विधवा के गहने भी अपनी माँ को चढ़ाए। यह महामानव और कोई पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ही थे।


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