विद्याओं में सर्वोपरि अध्यात्म विद्या

March 2002

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‘अध्यात्म’ शब्द बहुप्रचलित एवं बहुप्रचारित है। लेकिन इसके अर्थ में गहनता है, गुह्यता है, रहस्यमयता है। इसे वही जान पाते हैं, जो उच्चतर प्रज्ञा सम्पन्न और कठोर साधना में रत हैं। व्याकरण की दृष्टि से देखें तो आत्मानि-इति विग्रह के द्वारा अव्ययीभाव समास करके ‘अध्यात्मम्’ शब्द की निष्पत्ति होती है। जिसका अर्थ हुआ- आत्मा में स्थित। आत्मन् शब्द की सप्तमी विभक्ति के एक वचन में ‘आत्मनि’ बनता है और अव्यय का ‘इति’ शब्द- ‘अधि’ शब्द के रूप में सामासिक सूत्र में परिवर्तित होता है। इसका स्पष्ट अर्थ होता है- ‘आत्मा में स्थित’। इस तरह ‘अध्यात्म’ शब्द के मूल में आत्मन् शब्द नित्य पुल्लिंग है, जिसका रूप है ‘आत्मा’।

अमरकोष के नानार्थवर्ग में 144वें श्लोक के अनुसार अध्यात्म शब्द का अर्थ सूक्ष्म भी है। यहाँ कहा गया है- ‘सूक्ष्ममध्यात्ममपि’। यह सूक्ष्म शब्द पाणिनि व्याकरणानुसार- ‘सुच पैशून्ये’ धातु से उणादिगण के ‘सूचेः स्मन्’ (सूत्र 4/177) से बनता है। मेदिनी कोष में इसका अर्थ दिया गया है ‘सूक्ष्मं स्यात् कैतवेऽध्यामे’। इस तरह अध्यात्म शब्द सूक्ष्म का पर्यायवाची शब्द है। अतएव इसे रहस्यमय भी कहा जा सकता है। आत्मा और रहस्यमयता अध्यात्म के दोनों ही अर्थ परस्पर घुले-मिले हैं। दोनों ही एक-दूसरे का बोध कराते हैं। और यह बोध व्याकरण के ज्ञान से नहीं तप साधना से ही सम्भव है।

इसके साधन-स्वरूप एवं फल की उच्च स्थिति के कारण ही श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् ने कहा कि ‘अध्यात्म-विद्या विद्यानाँवादः प्रवदतामहम्’ (10/32) अर्थात् विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ और विवादों में यानि कि शास्त्रार्थ में मैं वाद हूँ। भगवान् का बड़ा गम्भीर एवं सारगर्भित वचन है यह। विद्याएँ चौदह हैं और वाद तीन है। प्रथम ‘जल्पवाद’, द्वितीय ‘वितण्डावाद’ और तृतीय केवल ‘वाद’। जल्पवाद में अपनी युक्ति, अपने तर्क से दूसरे पक्ष का खण्डन करके अपने पक्ष को दृढ़ करना होता है। वितण्डावाद में अपना कोई पक्ष नहीं रखकर केवल दूसरे पक्ष का खण्डन ही खण्डन जबर्दस्ती करना है। और ‘वाद’ में बिना किसी पक्ष के तत्त्व निर्णय परस्पर विचार-विनिमय से किया जाता है।

भगवान् श्रीकृष्ण का कथन बड़ा ही अनुभूतिपूर्ण है। वह स्वयं को विद्याओं में अध्यात्म विद्या और तीन वादों में विशुद्ध ‘वाद’ बताकर दोनों की एकरूपता सिद्ध कर देते हैं। उनकी वाणी का सार यही है कि जितनी भी विद्याएँ हैं, उनमें चरम बिन्दु अध्यात्म विद्या है और वादों में अध्यात्मवाद ही तत्त्वज्ञान को देने वाला है। साथ ही ये दोनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक हैं। अध्यात्मवादी ही अध्यात्मविद्या का सच्चा जिज्ञासु होता है। इसी तरह अध्यात्म विद्या का साधक ही अध्यात्मवाद के सूत्रों और निष्कर्षों को जानने में सफल होता है।

‘अध्यात्म’ शब्द की इस शृंखला में एक शब्द और भी हैं- आध्यात्मिक। हालाँकि इसके साथ ही दो शब्द और भी हैं, जो प्रयोग में एक ही साथ लाए जाते हैं- आधिदैविक एवं आधिभौतिक। वस्तुतः इन तीनों शब्दों का प्रयोग एक ही साथ करने का प्रचलन है- आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक। जिन्हें संक्षेप में दैहिक, दैविक एवं भौतिक भी कहा जाता है। इन तीनों शब्दों में आध्यात्मिक शब्द का विश्लेषण कुछ यूँ है। आत्मानम् अधिकृत्य भवम्- आध्यात्मिकम्। अधि उपसर्ग आत्मन् शब्द इज-इकृ प्रत्यय से आध्यात्मिक शब्द बनता है। इसी तरह देव शब्द जोड़कर आधिदैविक और भूत शब्द जोड़कर आधिभौतिक शब्द बनते हैं। दुःखों के ये तीन ही प्रकार हैं। प्रथम आध्यात्मिक दुःख- शारीरिक रोगों से होने वाले और काम, क्रोध आदि मानसिक विकारों से होने वाले। यक्ष, राक्षस, नवग्रह आदि से मिलने वाली पीड़ा को आधिदैविक दुःख कहते हैं। इसी तरह प्राणियों एवं परिस्थितियों से उपजने वाले दुःखों को आधिभौतिक दुःख कहा जाता है। इन्हें ही संक्षेप में दैहिक, दैविक एवं भौतिक ‘त्रिताप’ कहा जाता है। जिनसे समूची मानव प्रजाति संतप्त और संत्रस्त है।

इस त्रिताप से निवारण के लिए अध्यात्म ज्ञान ही एकमात्र कारगर उपाय है। साँख्य तत्त्व कौमुदी में इस सम्बन्ध में कहा गया है-

दुःखत्रयामिद्यातात् जिज्ञासा तद्वद्यातके हेतौ। दृष्ट साऽयार्थाचेत नैकात्तात्यन्तन्तोऽभावात्॥

अर्थात्- दुःखत्रय-तापत्रय के विनाश के लिए उपाय की जिज्ञासा होती है। यदि दृष्ट उपाय से, जो सामान्य लौकिक उपाय हैं। उनके इनका नाश दिखाई भी पड़े, तो भी वह स्थायी नहीं है। ये सभी लौकिक उपाय अस्थायी और क्षणिक हैं। इनके विनाश के लिए अध्यात्म विद्या का ही आश्रय लेना चाहिए। यही वह असरकारक उपाय है, जिससे सभी दुःख हमेशा-हमेशा के लिए छूट जाते हैं और जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।

अध्यात्म और उससे सम्बन्धित शब्दों का विश्लेषण एवं व्याख्या करने के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि उसका व्यावहारिक स्वरूप क्या है? इसे कैसे और किस तरह पाया और अपनाया जा सकता है। अन्यथा वही बात होगी जैसे कोई व्याकरण का पण्डित मिठाई के तीन शब्दों में उलझा रहे, उनकी व्याख्या-मीमाँसा करता रहे और मिठाई के स्वाद से वंचित हो। क्योंकि मिठाई शब्द के अक्षरों एवं मात्राओं को जोड़ घटाव करना एक बात है और आराम से बैठकर मिठाई खाना और उसकी स्वादानुभूति में निमग्न हो जाना सर्वथा अलग सत्य है। ठीक यही बात अध्यात्म शब्द और उससे होने वाली अनुभूति के विषय में है।

अध्यात्म-अनुभूति की यही प्रक्रिया बताते हुए भगवान् श्रीकृष्ण- श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं-

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञ सादोच्यते॥ (2/55)

सभी कामनाओं-वासनाओं एवं इच्छाओं को त्यागकर ‘आत्मा’ में ही आत्मा द्वारा सन्तुष्ट होना स्थित प्रज्ञ है। यह वाक्य जितना लघु है, भाव उतना ही विराट् है। यहाँ आत्मा का अर्थ अपनी अस्तित्त्व-सत्ता है। जो सदा ही अविचल, शाश्वत और अनश्वर है। ऐसी आत्मा-जो परमात्मा ही है में शरीर स्थित आत्मा जो परमात्मा में ही है, उसमें उसी आत्मज्ञान से तृप्त होना ही अध्यात्म की अनुभूति है। यही जीवन का परम लक्ष्य है।

दर्शनशास्त्रों एवं दार्शनिक ग्रन्थों में इस सत्य को महाकाश एवं घटाकाश के उदाहरण से समझाया गया है। आकाश अनन्त है, शून्य ही आकाश है। एक घड़े के अन्दर का शून्य भी आकाश है। हाँ यह सीमित जरूर लगता है। अब यदि इस घड़े को फोड़ दें तो उसके अन्दर का शून्य कहाँ गया? बस वह महाशून्य में विलीन हो गया। पहले भी दरअसल देखने वालों को भ्रम हो रहा था कि घट में आकाश है। सच तो यह था कि आकाश में घट था। हाँ घट के नष्ट होते ही यह भ्रम टूट गया। इसी तरह सर्वव्यापी परमात्मा में हम सब हैं। अपने अहं के कारण ही अलगाव का भ्रम हो रहा है। इस अहं का घट टूटा कि घटाकाश-महाकाश में विलीन हुआ। यही भगवान् के शब्दों में आत्मा में ही आत्मा से सन्तुष्ट होना है।

इसी ज्ञान को इसी बोध को भगवद्गीता में कहा गया है-

‘अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानर्थ दर्शनम्’ (13/11)।

अर्थात्- परमात्म तत्त्व के सिवाय संसार की स्वतंत्र सत्ता-अस्तित्व है ही नहीं। इसी का नित्य मनन करने से तत्त्वज्ञान का दर्शन-अनुभव स्वतः स्फूर्त होता है। इसी रहस्य को आगे श्लोक- ‘ज्ञेयं यत् तत प्रवक्ष्यामि-यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते, अनादिमत्परंब्रह्म न सत तन्नासदुच्यते’ (13/12)। अर्थात्- ज्ञेय है, जानने योग्य है उसे मैं (श्रीकृष्ण) विस्तार से कह रहा हूँ- जिसे (अध्यात्मज्ञान को) जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव करता है। वह न सत् है, न असत् है। इस परमात्मतत्त्व या अध्यात्मतत्त्व में सत्-असत् शब्दों की वाणी की प्रवृत्ति होती ही नहीं है। इसे समझ लेने पर अमृतत्त्व (मोक्ष) प्राप्त होता है। यही है वह गहनता, गुह्यता और रहस्यमयता, जो ‘अध्यात्म’ शब्द में निहित है।


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