अंतर्चेतना में मने होलिकोत्सव

March 2002

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होली आयी रे! आज होली के दिन यह मस्ती भरी गूँज बाहर चारों ओर है। लेकिन यदि अन्तर्चेतना में भक्ति जाग्रत् हो गयी हो तो अपने हृदय की ब्रजभूमि में भी इसे हर पल अनुभव किया जा सकता है। इसकी अनूठी मस्ती में डूबा जा सकता है। बड़ा मधुर साम्य है, भक्त के जीवन और होली के त्यौहार में। भक्त के जीवन में भी पहले उठती है तप की ऊँची और चमकती ज्वालाएँ। एक पर एक अनगिनत कष्ट आते ही चले जाते हैं। घर-परिवार और समाज के लोग उसे भगवान् की ओर बढ़ते हुए देखकर तरह-तरह की बाधाएँ खड़ी करते हैं। अपने अंतर्मन के कुसंस्कार, जन्म-जन्मांतर के दुष्कर्म, वासनाएँ भी अवरोधों की झड़ी लगा देती है। पर ज्यों-ज्यों अवरोध बढ़ते हैं, त्यों-त्यों भक्त की प्यास बढ़ती है। उसके तप में चमक आती है।

तप की इस प्रचण्ड अग्नि में वासनाओं की होलिका जलती है। कभी न भरने का दावा करने वाली, अपने को अमिट समझने वाली वासनाएँ जल कर राख हो जाती हैं। भक्त की पुकार के सामने अवरोध टिकती नहीं। यह पुकार ही तो भक्त का तप है। अपने प्यारे प्रभु को भक्त पुकारता है। जीवन की हर कठिनाई-वासना के हर भयावह रूप के सामने, कुसंस्कारों के हर बहकावे पर भक्त को एक ही समाधान सूझता है, कि वह अपने आराध्य को पुकार ले। उसकी जिह्वा नहीं, प्राण पुकारते हैं। वह कहता है- प्रभु हम आना चाहें तुम तक तो हम आ भी कैसे सकेंगे? हमारे पाँव बहुत छोटे हैं। तुम ही चले आओ, हे सर्व-समर्थ मेरे आराध्य! इस तरह भक्त अपनी प्यास को, अपनी पुकार को उभारता है। उसकी यह पुकार, उसकी प्यास सघन होती जाती है। एक उत्पन्न अग्नि बन जाती है, विकल प्राणों से उपजी तप की अग्नि।

तप की इस प्रचण्ड अग्नि में वासनाओं की होलिका जलती है, जलकर राख होती है। कुसंस्कारों का घास-फूस, जन्म-जन्मान्तरों का कूड़ा-कचरा जलकर भस्म हो जाता है। रूपांतरित हो जाता है जीवन। नवधा भक्ति की नवरंगी फुहारें उसके हृदय में उठने-उफनने लगती हैं। भक्ति के रंगों की सम्मोहक छटा उसके जीवन में छा जाती है। भक्त को अपने आराध्य की कृपा से एक नयी दृष्टि मिलती है। और उसे होलिकोत्सव के नजारे नजर आने लगते हैं। उसे महसूस होता है- कि होली का त्यौहार वह अकेला नहीं समूची प्रकृति उसके साथ मना रही है।

प्रकृति के समस्त विस्तार में उत्सव ही उत्सव है। नाद ही नाद है। सब तरह के साज बज रहे हैं। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में- सब तरह बहुत-बहुत ढंगों और रूपों में परमात्मा होली खेल रहा है। कितने रंग फेंकता है, कितनी गुलाल बिखेरता है। लेकिन इस अनूठे उत्सव को पाते वही हैं, मनाते वही हैं, जो भक्ति के रस में पगे हैं, जो अपने तप की ज्वालाओं में वासनाओं की होलिका को जला चुके हैं। होलिका दहन के बाद ही तो होली का त्योहार मनाने का विधान है।

भक्त प्रह्लाद ने भी ऐसे ही होली मनायी थी। उनके जीवन में संकट आते गए, वह डरे नहीं इन संकटों से, कष्टों से। बस पुकारते रहे अपने प्रभु को। उनकी पुकार तीव्र होती गयी। उनके प्राणों की प्यास सघन होती गयी। वासनाएँ, कामनाएँ सब एक साथ मिलकर, एक जुट होकर उन्हें जलाने आयीं। उन्हें अपनी अमरता का अभिमान था। उन्हें इस बात का दम्भ था कि वे अमिट हैं, शाश्वत हैं। वासनाओं की होलिका को इस बात का गुमान था कि वे तो स्वयं मानव की देह को जलाती हैं- राख करती हैं, भला उन्हें कौन जला सकेगा। होलिका ने भक्त प्रह्लाद को भी सामान्य मनुष्य समझ लिया था। उसे नहीं मालुम था कि भक्त की मानव देह में स्वयं अविनाशी नारायण रहते हैं। भक्त के प्राणों में तप की ज्वालाएँ दहकती हैं। भला ऐसे सच्चे भक्त को कहीं वासना की होलिका जला सकती है। होलिका को स्वयं जलना पड़ा। वह जली और जलकर राख हो गयी। भक्ति का उत्सव मनाते हुए प्रह्लाद नृत्य करने लगे। उनके प्राणों में गीत उठे- अहो भाव के, कृतज्ञता के।

कुछ ऐसी ही होली खेली मीरा ने अपने कान्हा के संग। लेकिन होली का फाग गाने के पहले मीरा को तपना पड़ा। बड़ा कठोर तप किया भक्तिमती मीरा ने।अनगिन अवरोध आए उसके सामने- कभी साँप का पिटारा, तो कभी विषय का प्याला। न जाने कितने षडयन्त्र, कुचक्र उसने सहे, झेले। पर वह डिगी नहीं, पुकारती रही, अपने साँवरे को। विरह की मारी- बन-बन डोलती रही। वह विरह ही तो भक्त का तप है। सभी जानते हैं, गरमी के बाद वर्षा होती है। ग्रीष्म के बाद आकाश में बादल छाते हैं, मेघ घिरते हैं। ये मेघ ग्रीष्म के बाद इसलिए घिरते हैं क्योंकि घने ताप के कारण, जलते हुए सूरज के कारण, वायु विरल हो जाती हैं। वायु में शून्य पैदा हो जाता है। और शून्यता में प्रबल आकर्षण है। शून्य खींच लेता है, बादल भागे चले आते हैं।

ऐसी ही घटना भक्त के अन्तरतम में घटती है। भक्त की प्यास जब प्रज्वलित हो जाती है, प्राण जब प्रभु की आकाँक्षा-अभीप्सा से आतुर-आकुल हो उठते हैं, विरह की अग्नि जब जलती है, तो भीतर एक शून्य पैदा होता है। और भगवान् भक्त से मिलने के लिए भागे- दौड़े चले आते हैं। मीरा के साथ भी यही हुआ। पहले तो मीरा के जीवन में तप की ज्वालाएँ जली। वासना की होलिका राख हुई। फिर फाग की मस्ती छाई। मीरा के प्राणों में गीत गूँजे। होली के गीत, फाग के गीत, अपने कान्हा से मिलने के गीत। हृदय की व्रजभूमि में साँवरे के संग रचाए जा रहे रास के गीत।

मीरा के ये गीत अनूठे हैं। ये गीत कविता की तरह नहीं लिखे गए हैं। ये पैदा हुए हैं। हृदय में खेली जा रही होली की किसी धुन में, नाचते-नाचते अनायास...। मीरा के द्वारा गाया गया होली का फाग मीरा की ही भाँति अनोखा है। उनकी कविता तो ऐसी है, जैसे कोई राह पर चले और पाँवों के निशान धूल में बन जाएँ। इनका कोई प्रयोजन नहीं था, इनके लिए कोई चेष्टा नहीं की गयी थी। सब कुछ अनायास हो गया। मीरा तो बस अपने कन्हैया के संग नाची थी। वह नाचती चली। ये पगचिह्न बन गए। इन पगचिह्नों में अगर कोई प्रेम से उतरे, तो उसे मीरा के पाँव नहीं, मीरा के पैरों के भीतर जो नाच रहा है, उसकी भी भनक मिलेगी।

मीरा ने जो फाग गाया है, उसमें मीरा के ही शब्द नहीं, मीरा के हृदय में जो विराजमान हो गया है उसका स्वर भी लिपटा है। यह फाग तो मीरा ने तब गाया था, जब वह अपने हृदय की व्रजभूमि में अपने कन्हैया के साथ नाची थी। ये गीत तब पनपे थे, जब कान्हा ने अपनी शाश्वत सखी मीरा के ऊपर भक्ति के नवरंगों से भरी हुई पिचकारी मारी थी। और मीरा ने अपने साँवरे पर श्रद्धा एवं प्रेम का गुलाल उड़ेला था। आज होली के अवसर पर तनिक डूब लें मीरा की मस्ती में- थोड़ा गुनगुना लें मीरा के साथ-

होली खेलत है गिरधारी।

मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुवति ब्रजनारी। चंदर केसर छिड़कत मोहन, अपने हाथ बिहारी।

भरि-भरि मूठि गुलाल लाल चहुं देत सवन पै डारी। छैल-छबीले नवल कान्ह, संग स्यामा प्राणन प्यारी। गावत चार घमार राग तंह दै दै कल करतारी। फाग जु खेलत रसिक साँवरो बाढ्यो ब्रज रस भारी। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मोहन लाल बिहारी।

ये स्वर कहीं बाहर नहीं, हृदय की ब्रजभूमि में गूँजे हैं। इनकी अनुभूति भी वहीं हो सकती है। पर यह अनुभूति होती तभी जब हृदय में भक्ति की प्यास जगे, प्राणों में तप की ज्वालाएँ चमके, वासना की होलिका राख हो। और तब अपनी अन्तर्चेतना में होलिकोत्सव की जो अनुभूति होगी, वह किसी खास दिन के लिए वरन् देश-काल से परे शाश्वत होगी।


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