एक ही सूत्र-भ्रातृत्व भाव का विस्तार

March 2002

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भ्रातृत्व भावना मानवता का उज्ज्वल एवं दिव्य सत्य है। यह वह सूत्र है जिससे व्यक्ति-व्यक्ति से, परिवार-परिवार से, समाज एवं संसार से जुड़ते-बंधते चले जाते हैं। यही सहयोग, सहकार एवं सेवा का मूलाधार है। इस भाव के सजल स्पर्श से व्यक्ति के अन्दर पुलकन होती है तथा वातावरण में प्रेम एवं सद्भाव की दिव्यता छलकने लगती है। इसके अभाव में वैमनस्य, विघटन, अलगाव एवं अविश्वास का माहौल विनिर्मित होता है तथा सर्वत्र कुविचारों एवं दुर्भावनाओं की विषैली कड़वाहट घुलने लगती है। इसका एकमात्र समाधान है भ्रातृत्व भावना का विकास है।

भाईचारे के उदात्त एवं पावन धरातल पर इस्लाम धर्म का विराट् भवन टिका हुआ है। इस धर्म में कट्टरता एवं क्रूरता का स्थान नहीं है वरन् भ्रातृत्व भावना से ओतप्रोत है। ईसा ने एक दूसरे से प्रेमपूर्वक एवं मित्रतापूर्वक रहते हुए सेवा करने की सीख दी है। गुरुभक्ति का पर्याय सिक्ख धर्म भी ईश्वर के सभी बन्दों के प्रति सहिष्णुता एवं सहानुभूति का संदेश देता है। यह सद्भाव के होने पर ही सम्भव है। सनातन धर्म में भ्रातृत्व भाव को सृष्टि व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। राम एवं लक्ष्मण का भ्रातृत्व सर्वविदित है। भरत तो इसकी जीवन्त मिसाल हैं। जिन्होंने अपने अग्रज के खड़ाऊं को चौदह वर्षों तक सिंहासन पर आसीन किया। और स्वयं निर्लेप भाव से अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहे।

भाईचारे की यह भावना मन को मन से व हृदय से हृदय को जोड़ती है। परिवार एवं समाज इसी की बुनियाद पर खड़े हैं। परिवार में सरसता एवं सभ्य समाज इसी के परिणाम हैं। जहाँ पर भ्रातृत्व भाव होता है वहाँ सुख शान्ति एवं प्रसन्नता छलकती रहती है। सभी मिल-जुलकर प्रेम पूर्वक रहें, यह उपनिषद् की दिव्य वाणी है। एकाकी जीवन और अलगाव में न सुख है और न शान्ति। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से दूर एकाकी जीवन नहीं व्यतीत कर सकता। उसको जीवन निर्वाह के लिए समाज के सौहार्द्रपूर्ण वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। एकाकी रहना एक दण्ड है। यह हर एक के लिए असह्य एवं कठोर यंत्रणा के समान होता है। अतः समाज में रहने का न्यूनतम मानदण्ड एवं मापदण्ड एक ही है। भ्रातृत्व भावना का होना।

इस गुण को विकसित करने वाला अपने आप ही समाज की एक अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण ईकाई बन जाता है। एकाकीपन की कठोर यातना से बचने के लिए भ्रातृत्व का भाव विकसित करना आवश्यक है। इसके बिना कोई भी जीवन को टूटने एवं बिखरने से बचा नहीं सकता। इस असह्य अलगाव से अच्छा है आपस में हल्का-फुल्का मनमुटाव या कहा सुनी का हो जाना। समूह में रहने के लिए इतना तो झेला ही जा सकता है। यह सामूहिक प्रयोग किसी भी निष्क्रिय जड़ता से तो हजार गुना अच्छा है। यदि मन में श्रेष्ठ विचार हों एवं हृदय में उदात्त भावना हो तो आपस में उठने वाली सभी विसंगतियों एवं समस्याओं से सरलतापूर्वक निजात पायी जा सकती है। हमें हाथ की पाँचों अंगुलियों के समान मिल-जुलकर रहना चाहिए। जिस प्रकार ये अंगुलियाँ हाथ के प्रत्येक कार्य के लिए मिल-जुलकर अपना योगदान देती हैं। उसी तरह हम सभी को विश्व मानव के कल्याण के लिए एकजुट एवं प्रतिबद्ध होना चाहिए।

वस्तुतः हम सब एक हैं। हमारी आन्तरिक प्रकृति एक समान है। सभी में भ्रातृत्व की भावना किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। हाँ यह किसी में थोड़ा कम और किसी में थोड़ा अधिक हो सकती है। पर सभी इसे विकसित एवं पल्लवित कर स्वयं को, विश्व वसुँधरा को एवं समस्त मानवता को धन्य कर सकते हैं। जरूरत है तो केवल आपसी प्रेम एवं भाईचारे की। भाईचारे का सिद्धान्त है स्वयं के अन्दर दबी पड़ी इंसानियत को जगाना। मनुष्यता के बिना मनुष्य की कल्पना सम्भव नहीं। जैसे सूरज की उष्णता चन्द्रमा की शीतलता, जल की तरलता एवं दीपक का प्रकाश ही सच्ची विशेषता है। उसी प्रकार मनुष्यता मनुष्य का गुण धर्म है। भ्रातृत्व भाव इस गुण का अभिवर्द्धन है।

मनुष्य हरे-भरे वृक्ष की एक टहनी के समान है। इसका अस्तित्व तभी एक है जब तक वृक्ष विद्यमान है।शैशवावस्था माता-पिता के आश्रय में पलती है। किशोरावस्था अध्यापकों के सृजनशील संरक्षण में विकसित होती है। इसी तरह जीवन के हर मोड़ पर किसी न किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। सहयोग-सहकार की यह वृत्ति तभी सम्भव है जब भाई चारे का उदात्त दृष्टिकोण हो।

एक पुष्प की माला नहीं बनती है। इसके लिए अनेक पुष्पों की आवश्यकता होती है। ये आपस में गूँथकर ही माला की कल्पना को साकार करते हैं। माला स्वयं में कुछ नहीं है यह तो क्रमबद्ध एवं शृंखलाबद्ध पुष्पों का सुन्दर सुनियोजन है। उनतीस हजार फुट ऊँचा माउण्ट एवरेस्ट धरती के वैभव का प्रतीक है। परन्तु इसकी यह वैभव एवं महानता उन छोटी बड़ी चोटियों की शृंखला पर आधारित है जो इसके पीछे मजबूत इरादे से दृढ़ता प्रदान करने के लिए खड़ी हैं। एकाकी एवं एकल प्रयास की महत्ता एवं सार्थकता तभी बन पड़ती है जब इसके लिए अनेकों का योगदान होता है। इसी तरह मानवता की एक अटूट शृंखला है जो प्रत्येक मनुष्य के सहयोग-सहकार से विकसित होती है। इसके लिए भाईचारे की अनिवार्य आवश्यकता है अन्यथा इन सबकी कल्पना नहीं की जा सकती।

हम सभी पर्वतमाला के एक छोटे-छोटे शिखर के समान हैं। सभी के त्याग एवं बलिदान से ही मानवता रूपी एक दिव्य एवं भव्य शिखर का निर्माण होता है। इसमें सभी का छोटा-बड़ा योगदान होता है। इनके जुड़ने में अभिनव निर्माण है तथा बिखरने में महाविनाश। निर्माण की इस प्रक्रिया को महास्वार्थ कहा जा सकता है। क्योंकि इसमें सबके कल्याण का भाव है अपना अहं गलता है। आत्म सत्ता संकीर्ण एवं सीमित दायरे को तोड़कर अपना विस्तार करती है ऐसा न हो तो मनुष्य अपनी ही सीमाओं की क्षुद्रता में कटता-पिटता रहता है। भ्रातृत्व का यह भाव महास्वार्थ का पुजारी है। जब व्यक्ति अपनी संकीर्णता के घेरे को तोड़कर बाहर निकलता है, तो वह अपने सुख-दुःख को बाहर भी घटित होते देखता है। ऐसे में उसका मन एवं भावनाएँ द्रवित हो उठती हैं। उसमें संवेदनशीलता एवं सजलता का प्रादुर्भाव होता है। वह दूसरों की हानि में दुःख और लाभ में सुख का अनुभव करता है। औरों में अपना ही भाव छलकने लगता है। परिणामस्वरूप सभी उसके भाई, बंधु, सखा एवं सहचर बन जाते हैं। वह सभी से अपनों जैसा प्रेम पूर्ण बर्ताव करता है।

जब ऐसी पुण्य भावना का उदय हो तो समझा जाना चाहिए कि हम सच्चे अर्थों में भ्रातृत्व भाव के लायक बन सके हैं। ऐसा पावन भाव जब सहयोग के लिए आगे बढ़ता है, तो अनगिन लोग उसका साथ देने आगे आते हैं। भाई-चारा उस दीपक के समान है जो जलते ही असंख्य बुझे दीयों को ज्योतिर्मय कर देता है। बर्फानी हिमालय को गलने की देरी है उसके पिघलते ही गंगा-यमुना जैसी अनेक नदियाँ बहने के लिए खड़ी रहती हैं। ऐसी ही भाई चारे की भावना है। इसकी बयार जब चलने लगता है तो इंसानियत के आसमान में प्रेम के बादल उमड़ने-घुमड़ने लग जाते हैं और सहयोग-सहकार के रूप में बरसे बिना चैन नहीं लेते।

इसके लिए तो बस एक ही संकल्प की जरूरत है कि मैं औरों के प्रति सदैव अच्छे विचार एवं भाव रखूँगा तथा अपनी सामर्थ्य के अनुरूप सहयोग करता रहूँगा। यह संकल्प भ्रातृत्व भाव का मूल मंत्र है। यदि सभी इस मंत्र को अपने जीवन में उतार लें तो सर्वत्र प्रेम एवं सौहार्द्रपूर्ण वातावरण विनिर्मित हो जाएगा। कहीं भी द्वेष, बैर एवं वैमनस्यता पाँव पसार नहीं पाएँगी। सभी ओर शान्ति एवं प्रसन्नता बिखरती दिखायी देगी। भाईचारे के इस भाव को अपनाकर ही हम सब उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित संकल्पना को साकार कर सकेंगे। अतः हम सबको इस भावना का विकास कर स्वयं की उन्नति तथा समाज की प्रगति का पथ प्रशस्त करना चाहिए।


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