सद्गुरु की महिमा अनंत

March 2002

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जाड़े की ठण्डी हवा दोपहर की धूप में घुलकर थोड़ी कुनकुनी हो गयी थी। बड़ा ही सुखद स्पर्श लग रहा था इस हवा का। उस दिन धूप की छुअन भी काफी नर्म, मुलायम और मखमली लग रही थी। परम पूज्य गुरुदेव अपने ऊपर वाले कमरे से सटे हुए आँगन में टहल रहे थे। इस आँगन के बीचो-बीच उनकी चारपाई पड़ी हुई थी। इस चारपाई का कुछ हिस्सा धूप में था तो कुछ छाया में। आँगन के दूसरे कोने पर एक टाट का टुकड़ा बिछा हुआ था। जिस पर दो छोटी-छोटी चौकियाँ रखीं थी। और इन पर कुछ कागज-किताबें बिखरी हुई थी। दो लोग बैठे हुए यहाँ कुछ पढ़ने-लिखने का काम कर रहे थे। शायद किन्हीं नयी पुस्तकों के प्रकाशन का सरंजाम जुटाया जा रहा था।

टहलते हुए गुरुदेव बीच-बीच में इन काम कर रहे लोगों को कुछ निर्देश दे देते। उनकी भावमुद्रा में एक त्वरा थी, तीव्रता थी। सम्भवतः वह चाहते थे कि जो दैवी विचार प्रवाह उनकी अन्तर्चेतना में अविरल भाव से अवतरित होता है, वह शीघ्र से शीघ्र बहुसंख्यक जनों तक पहुँचने लगे और पहुँचता रहे। अपने विचार चक्र प्रवर्तन को तीव्रतम वेग देने के लिए सतत प्रयासरत रहते थे वह। नए लोगों के लिए लेखन का प्रशिक्षण, सम्पादन की व्यवस्था और स्वयं नित्य-प्रति अनवरत और अविरल लेखन विचार चक्र प्रवर्तन को ही तीव्र से तीव्रतर एवं तीव्रतम करने के लिए ही थे। हालाँकि इस सबके बीच उनकी दिव्य मुस्कान, उन्मुक्त हंसी समूचे वातावरण में अमृत घोलती रहती। और काम करने वालों की थकान दूर करती रहती।

उस दिन टहलते हुए गुरुदेव कुछ पलों के लिए थमे और फिर अपनी चारपाई पर जाकर बैठ गए। अब उनके हाथों में अखबार था, जिसे उन्होंने थोड़ा उलटा-पलटा। ऐसा करते हुए उनकी भावमुद्रा यत्किंचित् परिवर्तित हुई। उनका गौरवर्णीय मुखमण्डल धूप के कारण थोड़ा लाल हो रहा था। उनकी गम्भीर भावमुद्रा इस लालिमा से मिलकर और अधिक तेजस्वी हो गयी। उन क्षणों में ऐसा लगने लगा मानों स्वयं सूर्य देव दुनिया को एक नयी सुबह का सन्देश देने के लिए शरीर धारण करके धरती पर उतर आए हों। एक क्षण के लिए चारपाई पर बैठे हुए गुरुदेव फिर से खड़े हो गए। और हल्के पाँवों से चलते हुए वह आँगन के कोने के पास आ गए, जहाँ टाट पर बैठे हुए दो लोग काम कर रहे थे।

उनमें से एक को सम्बोधित करते हुए बोले- लड़के, देख बेटा आज के अखबार में निकला है ओजोन परत फट रही है, इससे ग्लेशियर पिघल जाएँगे और दुनिया डूब जाएगी, खत्म हो जाएगी। इसमें पर्यावरण के खतरे से चिन्तित वैज्ञानिकों की बातें छपी हैं कि दुनिया को अब कोई नहीं बचा सकता। कुछ ज्योतिषी भी विश्वयुद्ध की संभावनाएं बताकर, ग्रहों के जोड़-तोड़ की गणित लगाकर कह रहे हैं कि दुनिया अब बचने वाली नहीं है। अखबार में उस दिन छपे हुए वैज्ञानिकों एवं ज्योतिष विज्ञानियों के भविष्य कथन का सार बताकर गुरुदेव निर्देश देते हुए बोले- ऐसा कर इस पर तू एक लेख लिख दे कि तमाम खतरों के बावजूद ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। दुनिया बचेगी, रहेगी। आज छाया हुआ अंधेरा मिटेगा और दुनिया बड़े ही शानदार ढंग से उज्ज्वल भविष्य का सवेरा देखेगी।

जिसे यह निर्देश दिया जा रहा था, वह उनकी बातों को बड़े ही मौन भाव से सुनता रहा। जब वह अपनी बात पूरी कर चुके, तो वह अपनी अज्ञानमिश्रित आशंकाओं को उनके सामने रखता हुआ बोला, गुरुजी, ये बातें तो वैज्ञानिक एवं ज्योतिषी कह रहे हैं, क्या वे पूरी तरह से गलत हैं। पूछने वाले के अज्ञान पर वह हंस पड़े। बड़ी ही निश्छल एवं निर्दोष हंसी का झरना फूट पड़ा। इसके निर्मल प्रवाह में उनकी गम्भीरता पता नहीं कहाँ और कब बह गयी। अब वह हंसी के मूड में थे। ऐसे में वह मजाक करते हुए बोले- क्या तू यह कहना चाहता है कि मैं वैज्ञानिकों और ज्योतिषी नहीं हूँ। तब भला इनकी बातें मुझे कैसे समझ में आएँगी? फिर दूसरे ही पल उनकी हंसी में हल्का सा विराम लगा और वह कहने लगे- चल अच्छा तुझे आज सच्ची बात बता ही देता हूँ।

वह कुछ विशेष बताने जा रहे हैं, यह सोचकर सुनने वाला कानों से नहीं प्राणों से सुनने की कोशिश करने लगा। वह कह रहे थे- बेटा, ये वैज्ञानिक भी सही हैं और ज्योतिषी भी ठीक कह रहे हैं। दोनों ही अपने विज्ञान और अपनी विद्या के अनुसार सच्चाई बताने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इन दोनों से ऊपर भी कुछ है। और वह इतना समर्थ एवं सक्षम है, जो सम्भावित घटना क्रमों को मोड़ने-मरोड़ने की ताकत रखता है।

बात को आगे बढ़ाते हुए वह बोले- हिमालय के गुप्त और दिव्य क्षेत्रों में कुछ विशेष लोग रहते हैं। ये महान् तपस्वी और अद्भुत शक्तिशाली हैं। तुम लोग इनकी शक्ति का अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। इनका भगवान् से सीधा संपर्क है। उन्हीं की इच्छा के अनुसार ये उनके विश्व उद्यान को सजाते संवारते रहते हैं। सम्भावित विपदाओं को हटाते-भगाते और अच्छी परिस्थितियों को जन्म देते हैं। बेटा, भगवान् का और इन महान् आत्माओं का निश्चय है कि दुनिया अभी नष्ट नहीं होगी। आज के सम्भावित खतरे कितने ही सच क्यों न हो, पर ये मिटेंगे। अंधेरा उजाले में बदलेगा।

धीमे कदमों से चल रहे गुरुदेव थोड़ा ठिठके। परन्तु उनके इस तरह रुकने से उनकी वाणी का प्रवाह नहीं रुका। वह बोल रहे थे- तुम लोग देखते हो कि दो देश झगड़ा करने के लिए आमने-सामने आ जाते हैं। ऐसा लगता है कि अब सब कुछ समाप्त हो जाएगा। पर अचानक ठीक समय में परिस्थितियाँ नया मोड़ ले लेती हैं और सब कुछ बदल जाता है। हिमालयवासी ये महान् आत्माएँ ही ऐसा करती हैं। उनके तप से ही परिस्थितियों में ऐसे आश्चर्यजनक और अद्भुत मोड़ आते हैं। फिर बड़ी ही सहज रीति से, पर थोड़ा धीमे स्वर में अपनी बातों में एक नया वाक्य जोड़ते हुए बोले- मैं उनके सतत संपर्क में रहता हूँ, उन्हीं का काम करता हूँ और उन्हीं में से एक हूँ। इसलिए मुझे सब कुछ पता है।

सुनने वाले का हृदय श्रद्धा और भक्ति से उफन उठा। वह सोचने लगा- कितनी अनन्त और असीम है उनके सद्गुरु की महिमा। कितना सौभाग्यशाली है वह, जो उनका इस तरह दर्शन कर पा रहा है, उनकी वाणी सुन रहा है। वह अपने सौभाग्य की सराहना में मन ही मन लीन था और उसका सौभाग्य आज उस पर अपनी अजस्र कृपावृष्टि करने में जुटा था। गुरुदेव उसके मन के किसी कोने में छुपे हुए भावों को पहचानते हुए और उसके मन के उलझे हुए धागों को सुलझाते हुए कह रहे थे- तू यही सोच रहा है न, कि इतने समर्थ ऋषिगण दुनिया को एकदम से ठीक क्यों नहीं कर देते?

सचमुच ही यही प्रश्न था उसका, जिसका कि वह जवाब दे रहे थे- समस्त सृष्टि एक विधि-व्यवस्था के तहत चलती है, जिसे कर्मफल विधान कहते हैं। मनुष्य ने कर्म तो ऐसे कर रखे हैं कि दुनिया में अनगिन बार प्रलय हो। वैज्ञानिक और ज्योतिषी संकेत भी कुछ ऐसे ही कर रहे हैं। पर नहीं, भगवान् की कृपा, हम सब का तप ऐसा होने नहीं देगा। बस विपदाओं की चिह्न पूजा भर होगी। इतने भर से काम चला लिया जाएगा। हाँ इतना जरूर है कि दुनिया में सुख-शान्ति स्थायी रहे, आने वाला उज्ज्वल भविष्य टिकाऊ रहे, इसके लिए इन्सान को, समाज को, देश को और समूची दुनिया को अपनी जीवन शैली बदलनी होगी।

गुरुदेव गम्भीर हो गए और थोड़ा चिन्तामग्न भी। वह कह रहे थे- यही सब बताने, यही सब सिखाने तो मैं संसार में आया हूँ। नहीं तो क्या जरूरत पड़ी थी मुझे यहाँ आने की। जितनी जल्दी आदमी इस सच्चाई को समझ जाए, उतना ही अच्छा। उनकी इस गम्भीरता में उनकी करुणा अजस्र भाव से झर रही थी। उनकी बातें सुनने वाले को लग रहा था जैसे करुणामय परमेश्वर ही उसके सद्गुरु का स्वरूप धारण करके समूचे विश्व को उज्ज्वल भविष्य का वरदान देने के लिए आए हैं। ज्ञानियों का सच कुछ भी हो, पर उसके हृदय का सच इतना ही था- सद्गुरु की महिमा अनन्त, अनन्त उसका विस्तार।


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