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March 2002

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प्रेम स्वयं सृजन है। वह जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ देवत्व उत्पन्न करता है और जिस पर उसे प्रयुक्त किया जाता है वह समर्थ बनता है। शर्त इतनी ही है कि प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम होना चाहिए।

-परमपूज्य गुरुदेव


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