वैदिक ऋषियों की एक परम पावन देन-गुप्तचर्या

March 2002

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सृष्टि के आरंभ से मानव की जिज्ञासा और आत्मरक्षा की उत्कट भावना ने उसे अपने प्रतिपक्षियों और प्रतिद्वंद्वियों के बारे में विशेष ज्ञान की ओर सदैव उत्सुक रख है। इसी ज्ञान-पिपासा ने उस संस्था को जन्म दिया, जिस ‘गुप्तचर्या’ कहते हैं। अंगरेजी में यह विधा स्पाइंग कहलाती है और इसमें संलग्न लोग ‘स्पाई’। यह शब्द संस्कृत के ‘स्पश’ शब्द के समानार्थी है, जिसका अर्थ होता है, देखने वाला और सतत जागरुक। स्पष्ट है, आज की गुप्तचर व्यवस्था प्राचीन भारत की देन है। तब ऐसे कुछ लोग हुआ करते थे जो हर एक की गतिविधियों और क्रियाकलापों पर निरंतर दृष्टि रखते थे। कालाँतर में यही एक व्यवस्थित और संगठित प्रणाली के रूप में विकसित हुआ और उसने गुप्तचर कला को जन्म दिया।

इसका इतिहास अति प्राचीन है। शायद मानव अवतरण के साथ ही इस विधा का भी आविर्भाव हुआ। आदिमानवों ने जब अपने आप को एकाकी और अरक्षित पाया, तो उन्हें आत्मरक्षा के लिए संघर्ष की आवश्यकता महसूस हुई। कदाचित तभी से अपने विरोधी एवं बैरी के बारे में जानकारी अर्जित करना जीवन की एक महत्वपूर्ण अनिवार्यता बन गई। आगे चलकर यह आवश्यकता समाज-व्यवस्था का एक अविच्छिन्न अंग हो गई। राज्य के रूप में राजनीतिक संगठन के जन्म के साथ ही उस संस्था का सुगठित रूप सामने आया और मनुष्य, समाज तथा राष्ट्र के अप्रतिहत विकास एवं समृद्धि के लिए इसका खुलकर प्रयोग होने लगा। ऋग्वेद काल तक यह तंत्र काफी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण वैदिक ऋचाएं देती है-

सहस्रधारेऽव ते समस्वरन् दिवों नाके मधुजिव्हा असश्चतः। अस्य स्पशो न नि मिषंति भूर्णयः पदे पदे पाशिनः संति सेतवः॥ (ऋग्वेद)

अर्थात् “शीघ्र गमन करने वाले, दुष्टों को बाँधने वाले गुप्तचर (स्पश) स्थान-सान पर हैं। उनकी पलकें कभी नहीं झपकतीं। मधुर जिव्हा वाले, किसी से न मिल जाने वाले वे गुप्तचर राष्ट्र के सहस्रों पुरुषों की सुरक्षा करने वाले हैं और विविध व्यवहार के केंद्रों में दुष्टों को उत्तप्त करते हैं।’

इससे स्पष्ट होता है कि सुव्यवस्था, सुरक्षा ओर प्रगति संबंधी यह तंत्र वैदिक काल में अस्तित्व में आ चुका था। आर्षग्रंथों के अध्ययन से इस बात के पक्के सबूत मिलते है कि उक्त काल में राज्य का स्परुप विकसित हो चुका था। इसलिए उसमें शाँति-सुव्यवस्था के लिए यदि गुप्तचर्या जैसी कोई प्रणाली थी, तो इसमें आश्चर्य नहीं। आर्ष वाङ्मय में वरुण के स्वरूप में जिस आदि सम्राट का वर्णन मिलता है, उससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि समय के साथ-साथ वैदिक राजा ने वरुण के स्वरूप, गुण एवं अधिकारों का ही वरण नहीं किया, अपितु असामाजिक तत्वों की गतिविधियों पर ध्यान रखने और उनको दंडित करने के अधिकार को भी ग्रहण किया। वैदिक संहिताओं में समाज की असुरक्षित स्थिति का विशद वर्णन मिलाता है, जिसके लिए देवकुल से प्रार्थना की गई है कि वे केवल प्राकृतिक प्रकोपों एवं दुर्घटनाओं से ही आर्य समाज की रक्षा न करें, अपितु दस्युओं, अनार्यों एवं अराजक तत्वों से भी सुरक्षा प्रदान करें। पूर्व और उत्तर वैदिक काल में विकसित नगर प्रणाली के साथ-साथ आर्यों को असाँस्कृतिक, अर्द्धसभ्य एवं दुर्दांत जनजातियों से आशंका उत्पन्न हो गई थी। उनके निरंतर दबाव से पारंपरिक समाज विश्रृंखलित हो रहा था। समा, संपत्ति और जीवन के प्रति अपराधों के बढ़ जाने के कारण वैदिक जन भयग्रस्त और अशाँत जीवन व्यतीत करने लगे थे। ऐसी स्थिति में भारतीय मनीषा ने एक ऐसा तंत्र विकसित करने का निर्णय लिया, जो न सिर्फ ऐसे तत्वों से मनुष्यों और समाज की रक्षा कर सके, अपितु उनके उत्कर्ष में भी बहुमूल्य योगदान दे सके। इसके लिए राज्य में विभिन्न स्तर के स्पशों (जासूसों) की नियुक्ति का प्रावधान था। तदनुसार उनके कार्य और अधिकार में भी अन्तर था। कार्यभेद के हिसाब से उनके लिए अलग-अलग पारिभाषिक शब्द गढ़े गए, जिनका उल्लेख महाभारत, रामायण, मनुस्मृति, कामंदक एवं शुक्रनीति, किरातार्जुनीयम, मुद्राराक्षस, उत्तर रामचरित नाटक, मुक्ति कल्पतरु, कौटिल्य अर्थशास्त्र प्रभृति ग्रंथों एवं स्मृति साहित्य में यत्र-तत्र मिला है। गुप्तचर्या के संदर्भ में इनमें जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे हैं चर, प्रणिधि, प्रहित, अपसर्प, संचर, पुरुष, गूढ़पुरुष, आण्त, प्रत्यायित, पथिक, उत्पथिक, उपनिषद्, उभयवेतन, कापटिक, उदास्थित, गहपतिक, वैदेहक, पापस, सत्रिन, तीक्ष्ण, रसद, भिक्षुकी, कर्णेजक, सूचक, दात्र, किरात, यमपट्ठिक, अहितुण्डिक, शैंडिक, शौभिक, पाटच्चर, विट, विदूषक, पीठमर्द, वैतालिक,गणक, शकुनिक, भिषग, नैमित्तिक, सूद, अरालिक, संवाहक, जड़ आदि।

पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ में गुप्तचरों का संदर्भ यह प्रमाणित करता है कि यह संस्था कौटिल्य से पूर्व ही प्रशासन के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। कौटिल्य ने इस बिखरे ज्ञान को सिर्फ सुव्यवस्थित ओर सुसंगठित भर किया है। अतः कौटिल्य को इस कला का प्रवर्तक और प्रतिष्ठापक मानना गलत होगा। यह विधा किसी एक व्यक्ति या युग की खोज नहीं, वरन् अनेक युगों की परिणति है। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में उसके बिखरे मोतियों को सूत्रबद्ध भर किया है और प्रस्तुत विषय की पूर्व प्रवहमान अजस्र धारा को एक विकसित एवं परिमार्जित रूप दिया है। इसके प्रभूत प्रमाण परवर्ती शताब्दियों तथा पुराण, भास, कालिदास, माघ, बाणभट्ट और दक्षिण के संगम में साहित्य से भी मिलते है। इस कार्य में कौटिल्य को अपरिमित सफलता मिली। उनके ‘अर्थशास्त्र’ की दूरदृष्टि और समस्याओं की आकलन शक्ति निश्चित रूप से विस्मयकारी है। इसकी प्रायोगिक उपयोगिता और चिरंतन ओर सूक्ष्मतम विधाओं की स्पष्टता अभूतपूर्व हैं जनमत धारा को अपने पक्ष में प्रवाहित करने और मित्र-मंडल में भेद उत्पन्न करने के संबंध में कौटिल्य प्रणीत प्रक्रियाएं आधुनिक गुप्तचर संगठन को दो सहस्र वर्ष से भी अधिक पीछे ले जाती हैं विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा के संबंध में कौटिल्य ने जिन निर्देशक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, वे समग्रता में इतने सफल है कि आज भी हम उनमें कोई सुधार नहीं कर पाए है। इतने पर भी दुःख की बात यह है कि हम उनके इस निर्विवाद ज्ञान और उक्त क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान का सही मूल्यांकन करने में संकोच अनुभव करते हैं, वहीं पाश्चात्य विद्वान चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के एक चीनी संत सुज्जू को गुप्तचर व्यवस्था का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला पहला विद्वान मानते है। ‘हिस्ट्री ऑफ दि चाइनीज सीक्रेट सर्विसेज’ नामक ग्रंथ में ग्रंथकार रिचर्ड डीकन यद्यपि साधिकारिक रूप से यह कह सकने में विफल रहे हैं कि संसार में गुप्तचर्या की औपचारिक व्यवस्था को कब ओर किसने जन्म दिया, फिर भी उनका विश्वास है कि एक बौद्धिक क्रियाकलाप के रूप में इस कला की संपूर्ण व्यवस्था का पहला अध्येता, विश्लेषक, मूल सिद्धाँतों का प्रवर्तक एवं समग्र व्यवस्था के प्रारूप को विकसित कर योजनाबद्ध रूप से प्रस्तुत करने वाला विद्वान सुज्जू ही है, जिसने ‘पिंग ता’ अर्थात् युद्धकला नामक पुस्तक की रचना की। युद्धकला एवं गुप्तचर सेवाओं के संगठन पर यह प्राचीनतम ग्रंथ है, इस विचार की पुष्टि डेविड वायज एवं टामस रोज ने भी अपनी कृति ‘दि ऐस्पिआनिज एस्टेब्लिशमेंट’ में की है। संभव है उक्त लेखकद्वय और पाश्चात्य विद्वानों को भारतीय आर्ष साहित्य में वर्णित इस ज्ञान का भान न हो, अन्यथा वे इतने अधिकारपूर्ण ढंग से अपने विचार व्यक्त करने से बचते।

मानव सभ्यता के आदि ग्रंथ ऋग्वेद में इस बात के अकाट्य तथ्य उपलब्ध है कि गुप्तचर व्यवस्था आर्य ऋषियों की देन है। उक्त ग्रंथ में इंद्र एवं वरुण द्वारा अपने सर्वव्यापी दूतों अथवा ‘स्पशों’ का उपयोग करने एवं ‘सरमा’ द्वारा अपराधियों की खोज करने का स्पष्ट उल्लेख मिला है। इसके बाद भी इसे सुज्जू जैसे चीनी नीतिशास्त्री की उपलब्धि कहना भूल होगी। सच तो यह है कि दोनों के काल में बहुत अधिक अंतर न होने पर भी गुप्तचर्या संबंधी दोनों की व्याख्या-विवेचना में भारी अंतर है। सुज्जू के ग्रंथ से प्राप्त अल्प सामग्री कौटिल्य जैसे महान राजनीतिक चिंतक द्वारा संपादित, सुव्यवस्थित एवं प्रतिपादित नियमों, सिद्धांतों, मतों और विवेचनाओं के समक्ष कहीं नहीं टिकती। कौटिल्य ने राज्य व्यवस्था, कूटनीति, युद्ध एवं गुप्तचर्या के संबंध में जो कुछ लिखा, वह व्यापक ही नहीं, सर्वकालिक भी है। गुप्तचर्या एवं युद्ध विद्या से संबंधित ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है, जो इस कुशल नीतिशास्त्री की पैनी दृष्टि से अछूता रहा हो। आज इस विद्या के संबंध में जो कुछ भी नीति-नियम प्रचलित है, उन्हें कौटिल्य का ही परिवर्द्धित ओर परिवर्तित संस्करण कहना चाहिए। वर्तमान में तो इस क्षेत्र में परिष्कृत यंत्र-उपकरणों का भी सहारा लिया जा रहा है, पर तब केवल बुद्धि-चातुर्य के आधार पर ही सब कुछ संपादित किया जाता था। इसे उस युग की विशिष्टता और वरिष्ठता ही कहनी चाहिए।

गुप्तचर व्यवस्था की मूल अवधारणा शाँति, सुव्यवस्था एवं प्रगति का पोषक तथा पूर्णरूपेण निर्दोष है। इसमें किसी सीधे-सच्चे को दंडित या प्रताड़ित करने का कोई प्रावधान नहीं है। प्राचीन भारत में इस संस्था का गठन दमन-चक्र चलाने या शासक वर्ग के हितों की अभिवृद्धि के लिए नहीं किया गया था, अपितु नैतिक और धार्मिक व्यवस्था के लिए इसका नियोजन किया गया था। तब धर्म का प्रयोग साँप्रदायिक अर्थ में नहीं किया जाता था।, वरन् यह एक पूर्णतः धर्म निरपेक्ष आचार संहिता थी और इसका प्रयोजन लोकहित के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। ‘पिंग ता’ और ‘अर्थशास्त्र’ के दृष्टिकोण में यही मौलिक अंतर है। कौटिल्य द्वारा प्रस्तावित व्यवस्था में राजा की स्थिति को सुदृढ़ करने एवं राज्य की अखंडता बनाए रखने के पीछे उसका चरम लक्ष्य ‘जन कल्याण’ की भावना थी, उबकि सुज्जू प्रणीत सिद्धाँतों में ऐसे किसी भी उच्चादर्श को आधारभूत नहीं माना गया। इसे भारतीय चिंतन और दर्शन की सर्वोपरि विशेषता कहनी चाहिए कि उसमें कोई भी सार्वजनिक व्यवस्था सदैव जनहित के प्रति समर्पित रही है। भारतीय गुप्तचर प्रणाली इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जबकि दूसरे देशों और संस्कृतियों के समक्ष प्रणालियों में ऐसी सोच और भावना का स्पष्ट अभाव झलकता है। पिछले 13 दिसंबर को संसद भवन पर ओर इससे पूर्व जम्मू-कश्मीर विधान सभा में हुए आत्मघाती हमले को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह विदेशी गुप्तचर तंत्र की विध्वंसकारी सोच को ही परिलक्षित करता है। इन दिनों विश्वभर में कई ऐसी गुप्तचर व्यवस्थाएं है, जो अपने जन्मकाल से ही विनाश और जनहानि में संलग्न रही है। वे इस कला की मूल भावना से सर्वथा विपरीत है। इसका वास्तविक उद्देश्य सुरक्षा ओर विकास है। प्रतिद्वंद्वी के प्रगति-रहस्य को जानकर और अपनी उन्नति के संदर्भ में उसके घात-प्रतिघात को विफल कर अपनी विकास यात्रा को निरंतर बनाए रखना ही इस विद्या का निहितार्थ था। आज वह अपने केंद्रीय प्रयोजन से पृथक होकर विनाश के सरंजाम जुटाने में संलग्न है। इससे बड़ा अपमान इसका और क्या हो सकता है? मनु, शुक्र, याज्ञवल्क्य, कामंदक, सोमदेव, कौटिल्य तथा मेधातिथि जैसे आचार्यों और उनके पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य ने जब पहली बार इस विद्या का अनुसंधान और प्रकाशन कर विश्व के समक्ष रखा, तो उन्होंने स्वप्न में भी यह कल्पना नहीं की होगी कि बाद में इस कला का दुरुपयोग विनाशलीलाएं रचने और कुचक्र चलाने में किया जाएगा। इसे इसका दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जो तंत्र मनुष्य और समाज के उत्कर्ष में सहायक हो सकता था, वह अब अपकर्ष की भूमिका में निरत होकर अव्यवस्था और अराजकता के ताने-बाने बुन रहा है।

कोई भी कला स्वयं में न अच्छी होती है, न बुरी। यह तो कर्ता पर निर्भर है कि वह विष को अमृत बन ले या अमृत को घातक कालकूट में परिवर्तित कर दे। यह पूर्णतः उसके चिंतन, व्यवहार और कर्तव्य पर अवलंबित है। असुरता जहाँ कहीं भी रहेगी, वहाँ अस्थिरता और अशाँति ही पैदा करेगी और सदाशयता का गला घोटती रहेगी। इसके विपरीत देवत्व बुराई में भी अच्छाई का संधान कर लेता है। द्रोणाचार्य ने दुर्योधन की परीक्षा के निमित्त जब उसे किसी अच्छे इंसान को ढूंढ़ लाने को कहा, तो लाख कोशिश करने के बावजूद भी उसे कोई अच्छा आदमी न मिला, सब उसे बुरे ही दीखते रहे। फिर युधिष्ठिर से किसी बुरे मनुष्य को तलाश लाने को कहा। वह यत्र-तत्र घूमते रहे, फिर भी उन्हें कोई खराब व्यक्ति न मिला, सब में उन्हें नेक इंसान दिखाई दिया। यह कथानक वास्तव में दो विपरीत चिंतन शैलियों और दृष्टिकोणों को दर्शाता और बताता है कि व्यक्ति की निजी सोच ही किसी वस्तु, व्यक्ति या विधा के भली-बुरी होने के पीछे जिम्मेदारी है। गुप्तचर्या आज इसी दुश्चिंतन के कारण कलंकित हो रही है।

गुप्त रूप से जानकारी प्राप्त करने की पद्धति के कारण ही इसे ‘गुप्तचर्या’ कहते है। यह एक पवित्र संस्था है और इसकी शुचिता को सदा बनाए रखने में ही मनुष्य का कल्याण है। गोपनीय ढंग से प्राप्त किसी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की सूचना को सिर्फ उन्नति-प्रगति के क्षेत्र में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए, अन्यथा यदि इसका प्रयोग घृणा और विद्वेषजन्य प्रतिकार के रूप में हुआ, तो सर्वत्र हानि और हाहाकार की अनुगूँज ही सुनाई पड़ेगी।


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