शिवत्व की साधना

March 2002

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‘शिव’ का अर्थ कल्याण होता है। जो इस देवता के तत्वदर्शन को समझकर उसके आदर्शों को जीवन में उतार लेता है, उसका अमंगल कभी नहीं होता। वह शनैः-शनैः आत्मोन्नति करता हुआ चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। महाशिवरात्रि पर्व का वास्तविक उद्देश्य यही है।

प्रतिवर्ष यह पर्व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है, इसलिए भारतीय शास्त्रों में यह तिथि विशेष महत्व की है। समझा जाता है कि इस अवसर पर कोई उत्तम कार्य करने से उस पर भगवान शिव की दृष्टि पड़ती है, जो करने वाले के लिए कल्याणकारी सिद्ध होती हैं यह मान्यता कितनी सच है, कहना कठिन है, पर जो शिव के, कल्याण के यथार्थ प्रयोजन को लेकर चलते और जन-जीवन को ऊँचा उठाने में निरत रहते है, उन पर उनकी कृपादृष्टि सदैव बनी रहती है। उनके लिए हर दिन शिवरात्रि जैसा होता है।

शिवजी का स्थान हिंदू धर्म में बहुत ऊँचा है। धर्मशास्त्रों और पुराणों में अन्य सब देवताओं का चरित्र-चित्रण करते हुए उनको स्वार्थ के वशीभूत अथवा वैभव तथा अधिकार का अभिलाषी दिखलाया गया है। एक शिवजी ही ऐसे देवता बतलाए गए हैं, जो संपत्ति और वैभव के बजाय त्याग और अकिंचनता का वरण करते है। वे सर्वशक्तिमान है। उन्हीं के इशारे पर संसार में प्रलय का दृश्य उपस्थित होता है और उनका तीसरा नेत्र बड़ी-से बड़ी शक्ति को जलाकर राख करने की क्षमता रखता है। इतने पर भी वे सदा नंगे, भूखे, दीन-हीन, भूत-प्रेतों के साथी बने रहते है। उन्होंने अमृत का त्याग कर गरल को पिया, हाथी और घोड़े को छोड़कर बैल की सवारी स्वीकार की और हीरा-मोती जैसे रत्नों को त्याग कर सर्प को गले लगाया। इस प्रकार शिवजी का स्वरूप हमें इस बात की शिक्षा देता है कि हमें प्रकृति ने यदि विशेष शक्ति या योग्यता प्रदान की है, तो उसका मतलब यह नहीं कि हम स्वार्थी बन जाएं और अपनी शक्ति का उपयोग अपने निजी सुख और भोगों के लिए ही करें। शिवजी का आदर्श बतलाता है कि जिसको जितनी अधिक शक्ति मिली हैं, उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही महान् है। ऐसी विशेष सामर्थ्य, जो अन्य साधारण लोगों में दिखाई नहीं पड़ती, परमात्मा के वरदानस्वरूप समझनी चाहिए और उसका उपयोग स्वार्थ-साधना जैसे तुच्छ उद्देश्यों में न कर महानता प्रदर्शित करने वाले कार्यों में करना चाहिए। मानव जीवन की सफलता इसी में है कि हम व्यक्तिगत लाभ का विचार छोड़कर अपनी शक्तियों का उपयोग परोपकार के लिए ही करें।

भगवान शिव का दिगंबर रूप अपरिग्रह का प्रतीक है। संसार में भोग-सामग्रियों का कोई अंत नहीं। वह मनुष्य के ज्यों-ज्यों समीप आती चली जाती है, त्यों-त्यों उनकी लालसा भी बढ़ती जाती है। आज संसार में कलह ओर क्लेश को जो परिदृश्य दिखलाई पड़ रहा है, उसके मूल में परिग्रह की यही कामना अंतर्निहित है। भगवान का उक्त स्वरूप हमें अपरिग्रही बनने और सीमित में संतोष करने की प्रेरणा देता है।

वे बाघाँबरधारी हैं और प्रेत-पिशाच के संग रहते हैं। उनकी यह मनोदशा वैराग्य को दर्शाती है। हम अतिशय मोह-माया न पालें और निर्लिप्त भाव से इस संसार में रहें, यही इसके पीछे का भाव है। व्यक्ति मोहग्रस्त होकर अपने परम लक्ष्य से च्युत हो जाता है। फिर वह संसार और साँसारिकता के पीछे भागने लगता है। हम जगत् में रहें और लोगों की सेवा-सहायता कर उनका कल्याण करें यह उचित है, पर जागतिक प्रपंचों में पड़कर अपना मूल उद्देश्य न भुला बैठें, यही शिवजी की वैराग्य-भावना का निहितार्थ है।

‘गायत्री मंजरी’ में शिव-पार्वती संवाद आता है, जिसमें भगवती पूछती है कि हे देव! आप किस योग की उपासना करते है, जिससे आपको परम सिद्धि प्राप्त हुई है? शिव इस संसार में आदि योगी थे, योग के सभी भेदों को मालूम कर चुके थे। उन्होंने उत्तर दिया, “गायत्री ही वेदमाता है और पृथ्वी की सबसे पहली और सबसे बड़ी शक्ति है। वह संसार की माता है, भूलोक की कामधेनु है। इससे सब कुछ प्राप्त होता है। ज्ञानियों ने योग की सभी क्रियाओं के लिए गायत्री को ही आधार माना है।”

इस प्रकार भगवान शंकर हमें गायत्री योग द्वारा आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होने का निर्देश करते हैं इस पर विचार-मंथन करने का उपयुक्त अवसर महाशिवरात्रि पर्व है। वह क्षुद्रता से महानता की ओर ले जाने वाला एक ऐसा तत्वज्ञान है, जिसे अपनाकर हर कोई धन्य अनुभव करता हैं वास्तविक शिव भक्त होने का यही लक्षण और पहचान है।


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