जॉन सोवस्की के व्यक्तित्व में अनूठा जादू था। समस्त मानवीय गुण उसके जीवन में अपनी आभा बिखेरते थे। वीरता उसे विरासत में मिली थी, विद्वता एवं विचारशीलता उसने अर्जित की थी। उसका जन्म सन् 1624 में पोलैण्ड के एक प्रतिष्ठित खानदान में हुआ था। यह वही खानदान था, जिसमें कभी एक ऐसा योद्धा पैदा हुआ था, जो रूस के राजा को बन्दी बनाकर वारसा ले आया था। अतः यह स्वाभाविक था कि सोवस्की को वीरता विरासत में मिलती।
सोवस्की जितना बहादुर था, उतना ही अध्ययनप्रिय भी था। प्रचलित साहित्य के अलावा अन्य देशों की ज्ञान सम्पदा भी उसे लुभाती थी। वह कहा करता था कि जो विभिन्न महापुरुषों के चिन्तन के साथ रहते हैं, वे समझो कि उन्हीं के साथ रहते हैं। वह यदा-कदा अपने समवयस्क मित्रों से कहा करता, कि मेरा एक अदृश्य परिवार है। जिज्ञासा करने पर वह स्पष्ट करता कि जिन लोकोत्तर व्यक्तियों के विचारों को मैं पढ़ता हूँ, वे भी मेरे परिवार के सदस्य हैं। मेरे जीवन के अभिन्न अंग हैं। अपने विचारों के रूप में सदा ही मेरे साथ रहते हैं। राह भटकने पर मुझे जीवन का मार्ग दिखाते हैं।
अध्ययनप्रिय सोवस्की सत्संगप्रिय भी था। कैथोलिक साधुओं के प्रति वह अखण्ड श्रद्धा से अभिभूत था। उसकी साधु संगत ने उसे ईश्वर निष्ठ बना दिया था। साधना उसके जीवन का अभिन्न एवं अविभाज्य अंग बन गयी थी। जीवन के सत्य को जानने के लिए वह घण्टों एकान्त में बिताया करता। इस क्रम में उसने अपनी समूची जीवनचर्या को तपश्चर्या बना डाला था। उससे जो भी मिलता, उसके जीवन से प्रभावित हुए बिना न रहता। उसके जीवन में एक ओर सदाशयता, दयालुता एवं करुणा छलकती थी, तो दूसरी ओर उसकी वीरता के प्रचण्ड तेज के सामने दृष्टि ठहर नहीं पाती थी।
वह सत्रहवीं सदी के मध्य का समय था। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी जिसने उसके सुव्यवस्थित जीवन में ज्वार ला दिया। उसकी विचारशीलता उद्वेलित हो उठी और उसकी वीरता की तेज लपटों की चमक ने समूचे यूरोप को प्रकाशित कर दिया। यह वही समय था जब तुर्की के लोग इस्लाम के नाम पर समस्त जन-जीवन को आतंकित करने में जुटे थे। प्रेम और भाई-चारे के धर्म इस्लाम को उन्होंने आतंक एवं बर्बरता का पर्याय बना दिया था। उनके जेहाद के जुनूनी नारे से समूचा यूरोप थर्रा उठा था।
सन् 1672 ई. में तुर्कों ने पोलैण्ड की शासन-सीमा में आने वाले उक्रेन पर हमला कर दिया। यह हमला इतना अचानक एवं भयानक था कि पोलैण्ड वालों से कुछ भी करते न बना। नगर और ग्राम एक साथ चीख उठे। उस समय सोवस्की अपने अध्ययन-चिन्तन एवं साधना में डूबा हुआ था। हालाँकि इन दिनों भी उसके युद्धाभ्यास का सिलसिला यथावत था। और इसी कारण उसे लोग ग्रैंड मार्शल भी कहते थे। ऐसी स्थिति बनने पर सबकी निगाह अपने ग्रैंड मार्शल पर जा टिकी। नगरवासी-ग्रामवासी सभी झुण्ड के झुण्ड उसके पास पहुँचने लगे।
साधक-साधु और वीर सोवस्की करुणा और क्रोध से भर उठा। उसे आश्चर्य हुआ मजहब की इस जुनूनी व्याख्या पर, जो तुर्की के लोग कर रहे थे। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि समूचे विश्व में यदि इस्लाम का प्रचार करना है, तो इसमें तलवार की क्या जरूरत है। भला कैसे कोई उस मजहब को मानने के लिए तैयार होगा, जिसके अनुयायी आतंकवादी और बर्बर हो। जो औरतों को विधवा बनाने, बच्चों को अनाथ करने, मजलूमों को सताने और निर्दोषों को मारने में यकीन रखते हों। वह सोचने लगा कि अरे इस्लाम का ही प्रचार करना है तो प्रेम और भाईचारा फैलाओ। पहले अपने खुद के जीवन में पैगम्बर मोहम्मद की शिक्षाओं को अपनाओ, फिर उन बातों को दूसरे भी मानेंगे। पर दूसरे ही पल उसके दिमाग में आया कि आतंकवादियों को भला मजहब की इन बारीक बातों की समझ कहाँ? वे तो सिर्फ तलवार की धारदार भाषा ही समझते हैं।
अपने इसी सोच-विचार और निश्चय के साथ जान सोवस्की ने आनन-फानन फौजें संगठित की। और तुर्कों का मुकाबला करने के लिए चल पड़ा। तब तक तुर्क उक्रेन पर अधिकार जमा चुके थे। अब तुर्क फौज पोलैण्ड की राजधानी की ओर बढ़ रही थी। सोवस्की ने उसे रास्ते में रोका। घमासान लड़ाई हुई, लेकिन जीत किसी की भी नहीं हुई। न तो तुर्क आगे बढ़कर अपना झण्डा पोलैण्ड की राजधानी में फहरा सके और न सोवस्की उक्रेन को मुक्त करा सका। परन्तु उसके हौसले अडिग थे। उसने घोषणा की- यह युद्ध मानवता के प्रेमियों और आतंकवादी बर्बरता के बीच है। इसे निर्णायक होना ही है। और जब तक आतंकवादियों के हौसले पस्त नहीं हो जाते मैं इसी तरह युद्ध के मैदान में डटा रहूँगा।
दृढ़ प्रतिज्ञ सोवस्की पाँव अड़ाकर उक्रेन की सीमा पर डट गया और समय तथा अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। कभी छुट-पुट तो कभी तेज संघर्ष चलता रहा। ऐसे ही एक वर्ष बीत गया। एक वर्ष बाद उसे मौका मिला। और उसने तुर्कों से उक्रेन को मुक्त करा दिया। तुर्क शान्ति-सन्धि पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर हुए। पोलैण्ड में चारों ओर इस मुक्तिदाता की जय-जयकार गूँज उठी। देशवासियों ने इस वीर को अपने सर-आँखों पर बिठा लिया और उसे अपना राजा चुना। शानदार समारोह के साथ उसकी ताजपोशी हुई। अगले दस वर्षों तक सोवस्की शान्तिपूर्वक अपने देश के विकास कार्यों में जुटा रहा। तुर्क भी जैसे-तैसे अपनी सन्धि की शर्तों का पालन करते रहे। हालाँकि उनकी नीति और नियति दोनों ही सुधरी न थी।
सन् 1683 के बसन्त के मौसम की सुबह अचानक यह खबर फैली कि दो लाख की खूँख्वार फौज के साथ तुर्क फिर से समूचे यूरोप में इस्लाम का प्रचार करने चल पड़े हैं। जब तक लोग इस खबर की सच्चाई का पता करें और सावधान हों, तुर्क सैनिक तूफान की तरह बढ़ते हुए यूरोप में घुस आए। गाजर-मूली की तरह लोगों को काटते, घरों को फूँकते, फसलों को रौंदते और जेहादी नारे लगाते हुए तुर्क सैनिक वियाना तक आ धमके। और देखते ही देखते इस्लाम का झण्डा गाड़ दिया। समूचे आस्ट्रिया पर आतंकवादी हुकूमत छाने लगी। रोज नए-नए फतवे और फरमान जारी होने लगे।
उस समय पूरे यूरोप में ईसाई धर्म का बोलबाला था। तुर्क सैनिकों के इस मजहबी उन्माद से पूरा यूरोप और ईसाई जगत् काँप उठा। ईसाई धर्म के सर्वेसर्वा पोप की घबराहट बढ़ गयी। उसकी नींद गायब हो गयी, बेचैनी बढ़ गयी। उसने राजाओं और क्षत्रपों का आह्वान किया- इस्लाम की तलवार का मुकाबला तलवार से करो....., वीर सपूतों आगे आओ और ईसाइयत की रक्षा करो। परन्तु पोप की इस छटपटाहट भरी पुकार सभी ने सुनी-अनसुनी कर दी। कोई भी आगे न आया।
विचारशील सोवस्की की समूची स्थिति पर नजर थी। वह जानता था कि धर्म तो शाश्वत है, इसे भला कौन नष्ट करेगा। इस्लाम बनाम ईसाइयत की बात भी उसे हास्यास्पद लगी। क्योंकि वह जानता था कि जो मौलिक तत्त्व ईसाइयत में है, पैगम्बर मोहम्मद ने भी इस्लाम में उन्हीं मौलिक तत्त्वों का उपदेश अपनी परिस्थितियों के अनुरूप अपनी भाषा में दिया है। उसे मालूम था कि झगड़ते धर्म नहीं बल्कि मनुष्य के अहंकार और दुर्बलताएँ ही आपस में टकराती रहती हैं। परन्तु अभी तो प्रश्न आतंकवादी बर्बरता से मानवता और मानवीय मूल्यों की रक्षा का था। इस प्रश्न के समाधान के लिए सोवस्की ने केवल अठारह हजार जाँबाज सैनिकों की फौज ली। और तुर्कों की विशाल सेना का मुकाबला करने के लिए बढ़ चला। सोवस्की के सामने तुर्क ठहर नहीं सके। उन्हें वियाना से भागना पड़ा। वियाना की यह मुक्ति पूरे यूरोप के लिए मुक्तिदायी संजीवनी साबित हुई। उसी के साथ सोवस्की पूरे यूरोप का वीर शिरोमणि बन गया।
सम्मान और सत्ता के शीर्ष पर पहुँच कर भी सोवस्की की साधुता और साधना यथावत बनी रही। वह सच्चा साधक था। उसके हृदय में सत्य की सच्ची लगन थी। वह अपनी अनुभूति को शब्द देते हुए कहता- धर्म ईसाई हो अथवा इस्लाम या फिर कोई और, वह वस्तुतः प्रेम, त्याग और सेवा के तीन शब्दों में सिमटा है। इन तीन के अलावा जहाँ कोई अन्य विरोधी भाव हैं, वहाँ न तो धर्म रह सकता है और नहीं धार्मिकता पनप सकती है। धर्म साधना के इस सच्चे साधक की मृत्यु भी बड़े ही धार्मिक ढंग से हुई। वह आराम कुर्सी पर निश्चिन्त लेटा हुआ प्रभु से प्रार्थना करने में लीन था। उसकी आँखें दीवार पर लटके ईसा के क्रास पर लगी थी। प्रार्थना में इस तरह लीन सोवस्की की चेतना सदा के लिए अपने प्रभु में लीन हो गयी। आरामकुर्सी पर बस उसका शरीर पड़ा रहा। उस दिन सन् 1696 का ईस्टर था- ईसाइयों का पवित्र दिन।