गुरुसत्ता के आध्यात्मिक जीवन की ज्योति

March 2002

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अखण्ड ज्योति परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जीवन की ज्योति है। उनकी गहन आध्यात्मिक साधनाओं के गर्भ से यह जन्मी है। और उन्हीं के तप का अमृतपान कर इसका विकास हुआ है। वर्ष 1926 ई. की बसन्त पंचमी को हिमालय वासी परमगुरु के दिव्य सान्निध्य में जो अखण्ड दीप जला, उसकी ज्योति दो स्थानों पर एक साथ प्रकट हुई और अखण्ड बनी। अखण्ड दीप की अखण्ड ज्योति का एक प्राकट्य गुरुदेव की पूजा स्थली पर हुआ। जिसके सान्निध्य में 24 लक्ष के 24 गायत्री महामंत्र के महापुरश्चरणों की शृंखलाएँ चलीं। इसी के साथ अखण्ड ज्योति की लौ से अपने सत्शिष्य की आत्म ज्योति को जलाया, जगाया एवं प्रकाशित किया।

अखण्ड ज्योति के ये दोनों दृश्य एवं अदृश्य रूप लगातार 14 वर्षों तक अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को सघन करते रहे। अनेकों दिव्य प्रेरणाएँ इन्हें स्पर्श करती रहीं। अनगिन दिव्य आत्माओं का इन्हें संरक्षण मिलता रहा। 14 वर्षों की यह अवधि गहन तप की अवधि थी। इस अवधि में अनेकों दिव्य अनुभवों-अनुभूतियों की सृष्टि हुई। अविराम साधना के इसी काल में एक दैवी निर्देश का अवतरण हुआ। यह दिव्य निर्देश अखण्ड दीप की अखण्ड ज्योति के सान्निध्य में ध्यानस्थ, साधनारत गुरुदेव की आत्मा में प्रकाशित हो रही अखण्ड ज्योति में अवतरित हुआ। यह अद्भुत निर्देश था- अखण्ड ज्योति के दृश्य एवं अदृश्य इन दोनों रूपों से भिन्न एक तीसरे स्वरूप को प्रकाशित करना था। ऐसा स्वरूप जिसमें पहले के दोनों रूपों की आभा, ऊर्जा एवं प्रकाश समाया हो।

वर्ष 1940 ई. की बसन्त पंचमी को अखण्ड ज्योति का यह अद्भुत स्वरूप अक्षरों एवं शब्दों के रूप में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन परम पूज्य गुरुदेव के लिए एक कठोर साधना से कम न था। अनेकों तप अनुबन्ध इससे जुड़े थे। पहला अनुबन्ध यही कम कठोर न था कि उन दिनों की आर्थिक विपन्नता की स्थिति में बिना किसी धनपति के सहयोग के इसे प्रकाशित करना था। दूसरे अनुबन्ध की कठोरता भी अद्भुत थी। चौबीस महापुरश्चरणों की शृंखला जारी रखते हुए इसका लेखन, संकलन, सम्पादन स्वयं करना था। तीसरे अनुबन्ध के रूप में सब कुछ के साथ स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी करते हुए इसके वितरण की व्यवस्था करनी थी। और चौथे अनुबन्ध के रूप में अखण्ड ज्योति के सदस्यों के साथ भावनात्मक भागीदारी निभानी थी। अपने निजी परिवार के सदस्यों की तरह उनके सुख-दुःख में बराबर की भागीदारी करनी थी। उन्हें आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी देना था।

अखण्ड ज्योति के प्रकाशन के दैवी निर्देश के साथ उपरोक्त सारे कठोर अनुबन्ध जुड़े थे। जिस समय, जिस स्थिति की यह बात है, उस समय इसे सबने असम्भव माना था। और आज भी कोई इसे असम्भव ही कहेगा। परन्तु परम दिव्य गुरुसत्ता को अपने शिष्य की साधना पर विश्वास था। और शिष्य को अपने सद्गुरु की कृपा पर भरोसा था। साधना तीव्र, कठोर एवं एकनिष्ठ हो तो कृपा अवतरित हुए बिना नहीं रहती। इसी तरह सद्गुरु की कृपा हो तो साधना विकसित हुए बिना नहीं रहती। यहाँ पर साधना और कृपा दोनों ही एक दूसरे के सहयोगी थे। और फिर अध्यात्म तो है ही असम्भव को सम्भव करने का विज्ञान। सचमुच ही असम्भव, सम्भव हुआ और अखण्ड ज्योति प्रकाशित होने लगी।

इसकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के साथ इसका स्वरूप भी आध्यात्मिक था, है और आगे भी रहेगा। जिज्ञासुजनों की जिज्ञासा रही है कि ऐसी उच्चस्तरीय पत्रिका के विविध विषयों पर समसामयिक सन्दर्भों के साथ अनगिन लेखों का प्रतिमास लेखन भला किस तरह होता रहा है। फिर इसमें बाहर के विद्वानों, मनीषियों के लेख क्यों नहीं प्रकाशित किए जाते। जिज्ञासा जितनी समुचित है, उसका उत्तर भी उतना ही सटीक है। परम पू. गुरुदेव ज्ञान के अगाध एवं अथाह सागर थे। उनका ज्ञान बौद्धिक होने के साथ अतीन्द्रिय एवं अतिमानसिक भी था। अखण्ड ज्योति के लेखन के लिए वह नियमित अध्ययन के साथ अपनी अन्तःप्रज्ञा एवं दिव्यदृष्टि का भी प्रयोग करते थे। उनकी अपरिमित आध्यात्मिक शक्तियों के कारण विविध विषयों पर लेख लिखना हंसी खेल जैसा था। जहाँ तक बात बाहरी विद्वानों के लेखों को न स्वीकारने की है, तो इसके पीछे भी एक रहस्य है। और वह यह कि इस आध्यात्मिक पत्रिका के लेखन के लिए विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, आध्यात्मिक साधनाओं में निमग्न होना भी अनिवार्य है।

परम पूज्य गुरुदेव स्वयं गहन साधनाओं के साथ लेखन कार्य करते थे। और जब वह नहीं हैं तो सम्पादक की लेखनी उनके दिशा-निर्देशों के अनुरूप ही चलती है। आज भी लिखने वाला केवल यंत्र की भूमिका निभाता है। इस लेखक कहे जाने वाले, सम्पादक कहे जाने वाले यंत्र के नियंत्रक एवं नियामक आज भी वही होते हैं। अखण्ड ज्योति के सुदीर्घ भविष्य के लिए नीति वह स्वयं ही तैयार करके गए हैं। जिन विषयों पर लिखा जा रहा है अथवा भविष्य में लिखा जाना है, उसके संकेत उन्होंने स्वयं ही अपने शरीर को छोड़ने से पूर्व लिखवाए थे, बताए थे। इस सबके अलावा उनके हाथों से स्वयं लिखा हुआ अप्रकाशित साहित्य अभी भी प्रचुर मात्रा में है। जो अखण्ड ज्योति के पृष्ठो पर प्रतिमास प्रकाशित होता है। सम्पादक की लेखनी तो इसमें गुरुदेव के निर्देशों के अनुसार केवल समीचीन सन्दर्भों को जोड़ इसे सजाती संवारती और सामयिक अभिव्यक्ति देती है। यही वह कारण है, जिसकी वजह से अखण्ड ज्योति में आज भी बाहर के लेख न तो आमंत्रित किए जाते हैं और न ही स्वीकारे जाते हैं।

अपने प्रारम्भ की शुभ घड़ी से लेकर आज तक अखण्ड ज्योति के दृश्य स्वरूप का संचालन, संरक्षण अनगिनत दिव्य शक्तियाँ करती रही हैं। इसके प्रकाशन, सम्पादन, लेखन के अनेकों रहस्यमय पहलू हैं, इसमें निहित परम पूज्य गुरुदेव के अनेकों जीवन प्रसंग हैं, जिन्हें आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य को उजागर करना, उद्घाटित करना, प्रकाशित करना शोधकर्त्ताओं का कार्य है। अखण्ड ज्योति का प्रकाश गुरुदेव की आध्यात्मिक चेतना से उपजता है। उन्हीं की आध्यात्मिक सामर्थ्य इसे ऊर्जावान बनाती है। शोध-अनुसंधान की प्रवृत्ति रखने वाले वरिष्ठ एवं विशेषज्ञ प्रारम्भ से ही इसे अपनी शोध का विषय बनाने के इच्छुक रहे हैं।

अभी पिछले दिनों हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. भगवान देव पाण्डेय ने इस दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण पग बढ़ाया है। डॉ. भगवान देव पाण्डेय गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं। उनके अनुसार अखण्ड ज्योति के आध्यात्मिक एवं साहित्यिक पहलुओं को उजागर करना आज की सामयिक आवश्यकता है। आज जबकि हिन्दी पत्रकारिता एक खोखला व्यवसाय बनकर रह गई है। ऐसे में अखण्ड ज्योति किस तरह से अपना आध्यात्मिक प्रकाश फैला रही है, यह एक शोध का विषय है। इस शोध से अनेकों ऐसे पहलू प्रकट होंगे, जो हिन्दी पत्रकारिता की दशा को सुधारने और उसकी दिशा को सही करने में अपना सार्थक योगदान देंगे।

‘हिन्दी की आध्यात्मिक पत्रकारिता में अखण्ड ज्योति’, यही वह शोध है, जिस पर डॉ. भगवान देव पाण्डेय अपने निर्देशन में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के सहयोग से शोध कार्य कर रहे हैं। इस शोध कार्य के महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्न है- 1. विषय प्रवर्तन, 2. अखण्ड ज्योति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि, 3. अखण्ड ज्योति का प्रकाशन, 4. अखण्ड ज्योति के सम्पादक, 5. अखण्ड ज्योति की विषय वस्तु, 6. अखण्ड ज्योति में साहित्य शिल्प, 7. अखण्ड ज्योति का सम्पादन वैशिष्ट्य एवं 8. उपसंहार। अपनी ही एक परिजन अंजली सिंह इस कार्य को कर रही है। अखण्ड ज्योति का प्रत्येक आयाम हिन्दी साहित्य एवं शोध जगत् के लिए आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है। हो भी क्यों नहीं, सत्य एवं संवेदना इसके प्रत्येक शब्द से झर-झर झरती है। देश-विदेश के असंख्य पाठक एवं परिजन इससे प्रेरणा पाते हैं। अब तो यह शोध सत्य भी है कि अखण्ड ज्योति को पढ़ना परम पूज्य गुरुदेव की आध्यात्मिक चेतना में निमग्न होना है। और उन अनुभूतियों में अनायास भागीदार होना है, जो गुरुदेव ने अपनी दीर्घावधि साधना में पायी। इसको स्वयं पढ़ने और अधिकाधिक लोगों को पढ़ाने से बड़ी न तो कोई जनसेवा है और न ही आध्यात्मिक साधना।


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