मस्तिष्क शरीर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उसके गड़बड़ाने और लड़खड़ाने से व्यक्तित्व की सम्पूर्ण संरचना प्रभावित होती है और मनुष्य कुछ-का-कुछ बनता और कहीं- से- कहीं पहुँच जाता है।
व्यक्ति के उत्थान और पतन में मस्तिष्क का बहुत बड़ा योगदान है। लोभ-मोह, कामना-वासना, त्याग-सेवा, पुण्य-परमार्थ- यह कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी स्तर पर मस्तिष्क से सम्बन्ध है- ऐसा शरीरवेत्ताओं का मत है। उनका कहना है की ऐसा यदि नहीं होता, तो सर्वसाधारण में अपने द्वारा बने पड़े कुकृत्यों का पश्चाताप कभी न उभरता और वे प्रायश्चित कर्म के लिए शायद ही तैयार होते। यह इस बात का प्रमाण है की उनके मस्तिष्क की कामना, वासना, सेवा, त्याग, लोभ, मोह के केंद्र कहीं-न-कहीं अवश्य है। सामान्य स्थिति में यह निष्क्रिय जैसे अवस्था में पड़े रहते है; पर उन्हें उद्दीप्त करने वाले तत्सम्बन्धी कारक जब उनके समक्ष उपस्थित होते है अथवा उनकी ( कारकों की ) बार - बार की स्मृति से जब वे केंद्र विक्षुब्ध होते है, तो व्यक्ति अनपेक्षित रूपों में ऐसे कृत्य कर डालता है, जिनके बुरे होने पर संताप और पश्चाताप होता है अच्छे होने पर संतोष और आनंद।
इसे यों समझो। जब किसी चोर को नोटों की गद्दियाँ कहीं दीख जाती है, तो उसकी लार टपकने लगती है और वे उन्हें येन-केन प्रकारेण प्राप्त करने की कोशिश करने लगता है। ऐसे ही व्यभिचारी को तनिक भी मौका मिलते ही वह अपनी काम-पिपासा को तृप्त करने से नहीं चूकता। चूँकि व्यभिचारी और चौर-वृत्ति उनकी सामान्य प्रवृत्ति बन चुकी होती है और तत्सम्बन्धी मस्तिष्कीय केंद्र सम्पूर्ण रूप से जाग्रत हो चुके होते है, अतः: ऐसे दुरितों के पश्चात उनमें पश्चाताप नहीं उभरते, किन्तु साधारण व्यक्ति में जब परिस्थितिवश, मजबूरी से या अकस्मात रूप से असाधारण कारक के आ उपस्थित होने पर जब उपयुक्त कृत्य बन पड़ते है, तो बाद में इसका भारी दुःख भी उन्हें ही होता है, कारण की तब वे मस्तिष्कीय केन्द्रों की अचानक सक्रियता के कारण इतने अनियंत्रित हो उठते है की उनको भले-बुरे का ज्ञान जाता रहता है, पर उद्दीपक के हटते ही या क्रिया के सम्पन्न हो चुकने के उपरान्त केंद्र जब सामान्य दशा में लौटते है, तो उन्हें अपनी भरी भूल का ज्ञान होता है।
यही बात सेवा और सहयोग के बारे में भी है। कई बार कई व्यक्ति सामान्य जीवन जीवनक्रम में अत्यंत कठोर होते है, सहयोग,सहकार तो उनके स्वभाव में ही नहीं होता, किन्तु राह चलते, सड़क किनारे के फटेहाल लोगों को देखकर अचानक इतने द्रवित हो उठते हैं कि अचंभा होता है कि यह वे ही व्यक्ति है या कोई और? यह सब उद्दीपक की सामर्थ्य पर निर्भर करता है की वह सामने वाले के मस्तिष्कीय केंद्र को किस स्तर तक कितना प्रभावित- उत्तेजित करता है? सेवाभावी लोगों में तत्सम्बन्धी केंद्र अत्यंत सक्रिय अवस्था में होता है अतः: उन्हें सोते-जागते सदा इसी कार्य की चिंता बनी रहती है और उसी में आनंदमग्न होते है। अन्य कार्यों में उन्हें रस आता ही नहीं। यही उनकी पूजा, प्रार्थना तथा भक्ति है।
विवेकानंद ने एक स्थान पर कहा है की चिंतन यदि पवित्र है और भावनाएँ शुद्ध, तो इसका यह अर्थ है की व्यक्ति की समस्त निम्न प्रवृत्तियां उच्चस्तरीय तरंगों में रूपांतरित हो चुकी है। इसका तात्पर्य इतना ही हुआ की मस्तिष्क के वे केंद्र अब परिष्कृत चेतनासंपन्न बन गए।
अब विज्ञान भी इस अवधारण का समर्थन करने लगा है। स्टटगार्ट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने लम्बे काल तक मस्तिष्कीय शोध के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है की व्यक्ति की जब भौतिकवाद से अध्यात्मवाद की ओर, बुराई से अच्छाई, अनुचित से उचित, अनीति से नीति, बेईमानी से ईमानदारी की ओर से अभिरुचि और रुझान होने लगता है, तो उसमें मस्तिष्क की संरचना ( एनोटॉमी ) नहीं, वरन् क्रियापद्धति ( फिजियोलॉजी ) बदलती है। इस प्रकार घृणा का प्रेम में, क्रोध का वात्सल्य में, स्वार्थ का त्याग में एवं मोह का उत्सर्ग में रूपांतरण हो जाता है। इसे आकृति का नहीं, प्रकृति का बदलाव कहना चाहिये। जप, तप,व्रत, अनुष्ठान का सम्पूर्ण तत्वदर्शन इसी निर्मित है की उनसे हमारी मानसिक वृत्तियां पवित्र एवं शुद्ध बने, अपवित्रता का आवरण हटे और व्यक्तित्व इतना प्रखर हो, प्रमाणिक तथा उच्चस्तरीय बने की उसकी उपमा इंसान से नहीं, भगवान से दी जा सके।
मस्तिष्क एक जटिल संरचना है और कार्य प्रणाली वाला अवयव है। पिछले दिनों इस पर काफी अध्ययन और अनुसन्धान हुए है, की मनुष्य उत्कृष्टता की तुलना में निकृष्टता की ओर क्यों इतनी सहजता और सरलता से बहता चला जा रहा है?