अप्प दीपोभवः

June 1999

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राज्यसभा लगी हुई थी। सहसा एक बौद्ध भिक्षुक ने प्रवेश किया। राजा तथा सभासदों ने खड़े होकर उनका अभिनन्दन किया। राजा के अनुरोध पर भिक्षुक एक उच्चपीठ पर आसीन हुए। कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा- राजन! संसार में तथागत बुद्ध के उपदेशों की बड़ी आवश्यकता है। आप भगवान के उपासक हैं। मैं भी उनका एक भिक्षुक उपासक हूँ, साथ ही मैं उपदेशों का अधिकारी विद्यावान् भी हूँ। आओ उपासक हैं पर उपदेशों की गहराई में अब तक नहीं उतरे हैं। आवश्यकता है, राज्य-सञ्चालन का उत्तरदायित्व ऐसे व्यक्ति पर हो, जो भगवन् बुद्ध के संदेशों को दूर-दूर तक फैलाने के साथ-साथ उनके उनके अनुसार राज्यव्यवस्था को भी चला सके। राजन! आप सोचें, इसके लिए हम दोनों में कौन उपयुक्त रह सकता है? कुछ रुककर राजा ने कहा- भंते! मैं यह अच्छी तरह से जनता हूँ की हम दोनों के बीच आप ही इस कार्य के योग्य हैं। कितना सुन्दर हो, इस दायित्व को आप सँभालें और मैं आपके चरणों में बैठकर भगवान तथागत के वचनों का चिंतन-मनन कर सकूँ। भिक्षुक की आँखों में प्रसन्नता की चमक आ गयी। उन्हें अनुभव हो रहा था की तीर लक्ष्य तक पहुँच चुका है।

कुछ क्षणों तक नीरवता छा रही। सहसा राजा ने मौन भंग किया। उसने कहा- भंते! आपने त्रिपिटकों का गहरा अनुशीलन किया है, इसकी मुझे परम प्रसन्नता है। क्या आप मेरा एक निवेदन स्वीकार करेंगे? उत्सुकतापूर्वक भिक्षुक ने कहा- अवश्य! वह क्या है? शीघ्र कहें।

राजा ने करबद्ध निवेदन किया- भंते! कितना सुन्दर हो, यदि आप एक बार त्रिपिटकों का परायण और कर सकें। भिक्षुक शीघ्रता से बोला- यह तो कोई कठिन कार्य नहीं है। अभी जाता हूँ और कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण त्रिपिटकों का परायण करके वापस आता हूँ।

भिक्षुक विहार में पहुँच गए। एकांत कुटिया में जाकर बैठे। कुछ ही महीनों में अध्ययन-अनुशीलन करके राज्य सभा में पुनः उपस्थित हुए।

राजा ने दृढ़ता के साथ कहा- भंते! आपने बहुत अच्छा किया। इसी एक वाक्य में राजा ने अपना कथन समाप्त कर दिया। भिक्षुक अगले वाक्य की प्रतीक्षा करने लगा जब उस ओर से कुछ नहीं कहा गया तो भिक्षुक ने अपनी ओर से स्पष्ट शब्दों में कहा-राजन! राज्यसत्ता अब मुझे सौंप दें। मैं भगवान की शिक्षाओं के अनुरूप सञ्चालन करूँगा।

राजा ने गहराई से भिक्षुक की ओर देखते हुए कहा- यद्यपि मैं निवेदन करने का अधिकारी तो नहीं हूँ, फिर भी धृष्टता कर रहा हूँ। आप एक बार पुनः त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का कष्ट करें।

भिक्षुक के की आँखों में कुछ रोष उभरा, परन्तु फिर भी उन्होंने एकांत में रहकर पुनः समग्र त्रिपिटकों का पारायण किया। सत्ता-संचालन की उनके मन में व्यग्रता थी। अतः शीघ्रता में सब कुछ किया। कुछ दिनों बाद वे पुनः राजसभा में आये और राजा से सत्ता की बागडोर सौंपने को कहा।

राजा शांत था। उसने भिक्षुक का सम्मान करते हुए पुनः एक बार उससे त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का आग्रह किया। भिक्षुक का चेहरा तमतमाने लगा। उन्होंने रोष भरे शब्दों में कहा, राजन! यदि तुम मुझे राज्य नहीं देना चाहते तो व्यर्थ ही मुझे इतना परेशान क्यों किया?

विनम्रता से राजा बोला- भंते! मैं आपको कतई परेशान नहीं करना चाहता। मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि त्रिपिटकों का परायण सम्यक प्रकार से हो जाए, ताकि अपना सभी कार्य सुगमता पूर्वक हो सके।

भिक्षुक पुनः कुतिया में आये। उनके मन में रोष था, अतः वह गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने लगे। सहसा एक पद आया। "अप्प दीपोभवः।" अपने लिए दीपक बनो। भिक्षुक ने चिंतन को इसे पढ़ने पर केन्द्रित कर दिया। कुछ ही समय में वे अपने लिए दीपक बन गए। उनका चिंतन उभरा, मैंने अपने जीवन में अब तक भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को नहीं उतारा। यदि उतारा होता तो विरक्तभाव में रमण करने वाला क्या मैं पुनः इस संसार में लौटने का प्रयत्न करता?

एक ही पद के चिंतन में लीं भिक्षुक का न मालूम कितना समय व्यतीत हो गया। उन्हें दिन-रत का भान नहीं रहा। जब कई महीने बीत गए और भिक्षुक लौटकर नहीं आए, तो राजा उनकी कुटिया में पहुँचा। भिक्षुक को आत्मलीन देखकर निवेदन किया- भंते! पधारे, सत्ता सँभालकर अनुग्रहीत करें।

भिक्षुक के मुँह से एक ही वाक्य निकला- " राजन! मैंने अपनी सत्ता सँभाल ली है। मुझे अब किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है।


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