मनोव्यथायें न पाले, आँसू बहा लें

June 1999

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यों तो आँसू मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक दशा के द्योतक है, इतने पर भी यह कहना की आँख की हर बूंद पीड़ा का परिणाम है, उचित न होगा। यह हर्ष की परिणति है, वियोग का नतीजा और दुःख का प्रतीक भी- यह सब उसके रासायनिक विश्लेषण से स्पष्ट हो चुका है।

अब तक की मान्यता थी की अश्रु चाहे किसी भी मनोकायिक अवस्था की फलश्रुति क्यों न हो, उसकी बनावट सदा एक-सी होती है; पर पिछले दिनों हुए अध्ययनों से इस अवधारणा को आघात पहुँचा है। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है की रासायनिक दृष्टि से प्रसन्नता के आँसू विषाद से भिन्न होते है एवं विछोह की पीड़ा से जो दृगजल निस्सृत होता है, उसमें प्रेम के उद्रेक से प्रवाहित होने वाले नीर के तत्व नहीं होते।

वियना यूनिवर्सिटी के रसायनज्ञ सी. फ्रीडमैन ने इसके लिए लोगों के तीन वर्ग बनाये। प्रथम में उन्हें रखा गया, जो असह्य कायिक कष्ट झेल रहे थे। दूसरी श्रेणी उनकी बनायीं गई, जो भीषण मानसिक संत्रास से गुजर रहे थे। तीसरा समूह उन व्यक्तियों का था जो प्रेम में उन्मत्त थे और जिनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं। इन तीनों अवस्थाओं के आँसू एकत्रित किये गये और उनके रासायनिक गुणों का अध्ययन किया गया। डॉ. फ्रीडमैन का कथन है उनमें स्पष्ट अंतर दृष्टिगोचर हुआ। उनके अनुसार सबकी मूल संरचना तो एक ही थी; पर दशांतर का स्फुट प्रभाव उनके रसायनशास्त्र में परिलक्षित हुआ। प्रसन्नता के आँसू में स्वास्थ्यवर्धक कुछ ऐसे रसायन पाए गए, जिनकी उपस्थिति आरोग्यशास्त्र की दृष्टि से अच्छी मणि जाती है। दूसरी ओर शारीरिक और मानसिक व्यथा वाले अश्रु में ऐसे तत्वों की प्रधानता थी, जिन्हें स्वास्थ्य की दृष्टि से अहितकर माना गया और जो देह के लिए विषतुल्य साबित होते है। इन्हें शरीर से बाहर निकाल देना हर प्रकार से लाभकारी होता है- ऐसा चिकित्साविज्ञानियों का मत है। इसका एकमात्र उपाय रोना है इसलिए अब रोने को भी हँसने की तरह एक स्वास्थ्य टानिक बताया जाता है। दोनों के प्रयोजन लगभग एक-से है। हँसने से अंतर के समस्त अंगों का व्यायाम और स्वास्थ्य में सुधार होता है, जबकि रोने से अश्रुधारा के साथ उन शरीरगत विषों का निर्गमन होता है, जो घनीभूत पीड़ा के दौरान बनते और बढ़ते रहते है।

अक्सर ऐसा कहते सुना जाता है की रो लेने से मन हल्का हो गया-यह केवल लोकोक्ति भर नहीं, वरन् एक वैज्ञानिक सच्चाई है। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है की व्यक्ति जब निषेधात्मक चिंतन में डूबा रहता अथवा दारुण दुःख से आकुल-व्याकुल हो रहा होता है, जो मन मस्तिष्क पर बोझ की तरह लद जाते है। इनका शरीर-मन पर द्विविध प्रभाव पड़ता है। काया में सुस्ती, आलस्य लगती है और मन अवसादग्रस्त, अस्त−व्यस्त, उत्साहहीन तथा भारभूत-सा प्रतीत होने लगता है। इस दौरान जब व्यक्ति दहाड़ मर कर रोता है, तो अश्रुधारा के साथ वो तत्व बाहर निकल जाते है, जो मन को अन्यमनस्क और शरीर को अस्वस्थ जैसी स्थिति में निरंतर बनाये रहते है। इससे शरीर-मन हल्का हो जाता है। इसलिए मनोवैज्ञानिकों की यह सलाह है की जब हंसी का अवसर आये तो उन्मुक्त हंसी हंस लेनी चाहिए और विषादपूर्ण स्थिति को मन में दबाये नहीं रखना चाहिए। उसे भी रोकर निकाल देना चाहिए।

वह अवस्था कितनी दुखद होगी, जिसमें व्यक्ति को न रोने की छुट हो, न हंसने की स्वतंत्रता। परिणाम पागलपन होगा, कारण की मानसिक संवेग, आवेग और उद्वेग को नियंत्रित और निरस्त करने के दो ही मार्ग है- हँसना और रोना। जब यह दोनों ही बंद हो जाये, तो नतीजा अत्यंत दुखदायी होता है। यही कारण है की विक्षिप्त लोग निरर्थक हँसते और निरुद्देश्य रोते रहते है। इनका निमित्त समझाते हुए मनोवेत्ता कहते है की मन की यह आदत है की वह स्वयं को दबाव-मुक्त रखना चाहता है, जबकि आदमी उसके इस स्वभाव पर अंकुश लगा देता और अगणित मनोव्यथाएं अपने अंदर पलता रहता है। पनपने और निकलने की उभयपक्षीय प्रक्रिया चलती रहे, तो मन सहज स्थिति में बना रहता है, किन्तु जब बहिर्गमन का पथ अवरुद्ध हो जाता है, तो अनवरत रूप से एकत्रित होते असह्य बोझ को झेल पाने में मन असमर्थ होता है, जिसकी फलश्रुति पागलपन के रूप में सामने आती है। इस दशा में मनुष्य का सजग नियंत्रण उस पर से हट जाता है, तो मन उस वजन को अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया द्वारा हंस-रोकर उतरने लगता है, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है। इतने मात्र से विक्षिप्तता दूर नहीं होती। उसके लिए अतिरिक्त उपचार की आवश्यकता पड़ती है।

अतएव आज के जटिल समय में आंसुओं की महत्ता, उपयोगिता और अनिवार्यता को समझते हुए किसी को भी इसमें कोताही नहीं बरतना चाहिए- ऐसा मनःशास्त्रियों का मत है और स्वस्थता की मांग भी।


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