श्रद्धा का महत्त्व अत्यधिक है (Kahani)

June 1999

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गुरु द्रोणाचार्य से पांडव धनुर्विद्या सीखने वन में गए हुए थे। उनका कुत्ता लौटा तो देखा की किसी ने उसके होठों को बाणों से सी दिया है .। इस आश्चर्यजनक कला को देखकर पांडव दंग रह गए की सामने से किस प्रकार तीर चले गए की वह अन्यत्र न लग कर केवल होठों में ही लगे, जिससे कुत्ता मर तो नहीं पाया लेकिन भौंकना बंद हो जाए। कुत्ते को लेकर पांडव द्रोणाचार्य के पास पहुंचे की यह कला हमें सिखाये। गुरु ने कहा- यह तो हमें भी नहीं आती। तब यही उचित समझा गया की जिसने बाण चलाये है, उसी की तलाश की जाये! कुत्ते के मुंह से टपकते हुए खून के चिन्ह गुरु के साथ पांडव भी उस व्यक्ति की तलाश में चले। अंत में वहाँ पहुंचे जहां की भील बालक अकेला ही बाण चलने का अभ्यास कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ की उसी ने कुत्ते को तीर मारा था। अब अधिक पूछ-ताछ शुरू हुई। यह विद्या किससे सीखी? तुम्हारा गुरु कौन है? उसने कहा -"द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, उन्होंने मुझे यह विद्या सिखाई है "। द्रोणाचार्य आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कहा मैं तुम्हें जानता तक नहीं फिर बाणविद्या मैंने कैसे सिखाई?"

द्रोणाचार्य को साक्षात् सामने खड़ा देख कर बालक ने उनके चरणों पर मस्तक रखा और कहा - "मैंने मन ही मन में आपको गुरु माना और आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी के सामने अपने आप अभ्यास आरम्भ कर दिया।"

गुरु भाव सच्चा और दृढ़ होने पर गुरु की मिट्टी की मूर्ति भी इतनी शिक्षा दे सकती है, जितनी की वह गुरु शरीर भी नहीं दे सकता। श्रद्धा का महत्त्व अत्यधिक है।


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