निष्काम कर्मयोगी

June 1999

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करीब चार सौ साल पहले ईरान की एक फौज दिल्ली लूटकर वापस लौट रही थी। रास्ता जालंधर होकर था। फौज आयी तो सिपहसलार ने ठहरने का हुक्म दिया। पड़ाव पड़ गये। सैकड़ों खेमे पड़ गये। इसके बाद वे सिपाही जालंधर लूटने निकले। हाथों में नंगी तलवारें, नेजे और आँखों में खुनी प्यास। जहाँ जो मिला लूटा, औरतें बेइज्जत हुई। कुहराम मच गया। कोई त्राता नहीं, कहाँ जाये? किससे कहे?

तब कुछ बड़े-बूढ़ों किसी तरह हिम्मत जुटाकर के सिपहसालार के पास पहुंचे। हाथ जोड़कर उन्होंने दया प्रार्थना की। सिपहसलार गरजा, कल सुबह होने से पहले सवा ग्यारह लाख रुपये हाजिर कर दो, वरना शहर का बच्चा-बच्चा कत्ल करके दरियाए बियास ( व्यास नदी ) में फेंक दिया जायेगा। जिन औरत-मर्दों को हम चाहेंगे ईरान के बाजार में ले जाकर बेच देंगे या उन्हें गुलाम बना लेंगे।

दया की भीख मांगने आये बड़े-बूढ़ों के चेहरे स्याह हो गये। उनमें से एक मुसलमान भी था। पर दुखी दुखी हो वे भी पुकारे भी तो किसे। ईश्वर प्रार्थना भी वे जोर से नहीं कर सकते थे। अंतर में ही उन्होंने प्रभु को पुकारा उस दिन। इतना पैसा किसी के पास नहीं था। कौड़ियां तनख्वाह में मिलती थी, उस वक्त एक रुपये की बड़ी कीमत थी। एक पैसा भी आज के कई रुपये के बराबर था।

सन्नाटा फैल गया। जो भी होना हो, हो। कोई चारा नहीं। आपस में एकता हो, हमदर्दी हो, भाईचारा हो तो मिल−जुलकर बड़ी मुसीबत का भी मुकाबला किया जा सकता, रुपये भी इकट्ठे हो सकते थे। लेकिन अपने अपने जीवन के अलग-अलग बचाव की बात सोचने से यह कहाँ संभव था। हर आदमी अपने को अकेला समझता था। मुसलमान समझते थे की हम तो ईरानियों के हम-मजहब है, धर्म-भाई है, बच जायेंगे। उन्होंने हम-मजहब होने की, दिन दुहाई दी भी। लेकिन बेकार।

कोई भी हो, 'हिंदी हो तुम लोग भी।' कहकर उनके चेहरों पर थूक दिया गया। उन्हें ठोकरें मरी गयी।

सिपहसालार ने सबको कैद करा लिया। महिलायें, बच्चे, बूढ़े और जवान सभी रस्सों से कस दिए गये। खुले मैदान में उन पर फर बैठा दिया गया। कई हजार निरपराध-निर्दोष कैदी थे। हर घर से एक आदमी तो जरूर ही पकड़ा गया। जालंधर मृतप्राय हो गया। सिपहसालार ने प्रभात होने से पूर्व सबको व्यास नदी के तट पर ले जाने का आदेश दिया। नदी किनारे कत्लेआम होगा। कोई नहीं बचेगा। मंदिर वीरान मस्जिदें वीरान।

रत का धूप-अँधेरा फैल गया। जालंधर की वह रात कराहों, सिसकियों और दुखभरी आहों से सिहर उठी थी। इतने में सीमा पर पदचाप सुने पड़ी। पीले कपड़े पहने, दाढ़ी बढ़ाये एक साधू वेशधारी पुरुष नगर में प्रविष्ट हुआ।

वह तीर्थयात्री था। कई महीने हुए, तीर्थाटन पर निकला था। चारों धाम की यात्रा हो चुकी थी। पैदल चलते-चलते शरीर छीज गया था। पैर दुःख रहे थे, छाले पड़ गये थे फिर भी वह खुश था। चारों धाम के दर्शन- बड़ा भाग्यशाली है तभी तो अब शरीर उठ भी जाये, तो क्या चिंता। घर लौटने के आनंद में था वह। किन्तु यह सब उजाड़ क्यों है? उनके द्वार खुले क्यों है? उसका आनंदातिरेक तिरोहित हो गया?

नगर की कुशलक्षेम जानने चला। जानकर एक क्षण अवाक् हुआ, हतप्रभ। फिर विवेक ने झकझोरा, उठा। कई खच्चर बुलाये। लाल रंग के घोरे जैसे ऊँचे- पूरे खच्चर। अपना तहखाना खोला। चंडी के रुपये उन पर लादे जाने लगे। रात की नीरवता उनकी खनखनाहट से भंग होने लगी। सवा ग्यारह लाख रुपये लड़ने में समय लगा।

भोर होने में अभी देर थी। सिपहसालार के शिविर के पास एक मानव छाया आ खड़ी हुई पास ही कुछ और छायाएं भी थी। उनके बड़े-बड़े कण बार-बार चौकन्ने होकर हिल उठते थे। पहरेदार ने पूछा- कौन हो तुम? क्या चाहते हो? आगंतुक मानव छाया ने कहा- सिपहसालार से मिलाना चाहता हूँ।

पहरेदार ने तीखे स्वर में कहा- जा भाग यहाँ से, सिपहसालार नींद टूटने से नाराज होगा। तुझे जहन्नुम भेज देगा। भले ही भेज दे- आने वाले ने कहा। एक बार दरख्वास्त कर दे की एक अदना-सा आदमी आपका दीदार चाहता है।

पहरेदार बूढ़ा आदमी था। सिपहसालार का विश्वासी था। लूट और कत्ल से जहाँ तक हो, वह बूढ़ा ईरानी बचता रहता था। सोचता था, जिन्दगी के आखरी दिन है, जहाँ तक गुनाह करूँ- वही गनीमत। वह सिपहसालार के खेमे में आहट लेने लगा। सिपहसालार जग चूका था। तीन-चार घंटे की नींद उसके लिए काफी होती थी। खरखराती आवाज में पूछा- क्या है शीराज?

हुजूर! एक शख्स दीदार के लिए दरख्वास्त करता खड़ा है।

पेश करो।

पहरेदार उसे ले गया। आगंतुक व्यक्ति ने सिर से लिपटी चादर जरा हटाई और बोला- जनाब के लिए मालिक से रुपये मांगे थे, पेशे खिदमत है।

कैसे रुपये?

पूरा जालंधर सवा ग्यारह लाख रुपये की फिक्र में मुब्तिला है, सुना था आपको ही दरकार है वे रुपये।

जरूर-जरूर, तुम कौन हो अजनबी। कौन है मालिक तुम्हारा?

वही जो सबको जन्म देता है, सबकी परवरिश करता है।

ओह! परवरदिगार की बात करते हो। उसने तुम्हें इतने रुपये बख्श दिए।

बेशक हुजूर! मालिक बड़ा करसाज़ है। राई को पर्वत कर दे, पर्वत को राई में बदल दे। सिपहसालार उस आदमी के सामने खुद को छोटा महसूस करने लगा। खिसियाना-सा उठ खड़ा हुआ, क्रुद्ध हो गया। कहा है रुपये?

आइये चंद कदम मेरे साथ आइये।

दोनों बहार आये। सिपहसालार ने देखा- कई खच्चर लादे-फदे है। अजनबी ने कहा- सवा ग्यारह लाख है, हिसाब चुकता कर दीजिये और........

और उन हजारों बदनसीबों को बरी कर दीजिये, जो मौत के इंतजार में खड़े हैं। अजनबी के स्वर में जरा भी हिचक नहीं थी, अभीत वाणी।

सिपहसालार को उस निर्भयता ने विश्वास करा दिया की रुपये होंगे और सवा ग्यारह लाख होंगे। तेज़ स्वर में बोला- शीराज।

हुजूर! पहरेदार तो वही खड़ा था। कलम-दवात ले आओ। शीराज खेमे में गया। मशाल जलाई, समान ले आया। तब रिहाई का परवाना लिखा गया। शीराज उसे लेकर व्यास नदी की तरफ बढ़ा। चलता गया।

अजनबी तुम्हारा नाम।

जाँ बख्शी चाहता हूँ। कुछ मुझे भी दीजिये।

सिपहसालार समझा, कुछ रुपये वापस चाहता होगा। बोला- साफ-साफ कहो क्या मंशा है?

बस एक मौका मुझे मिले- हुजूर नाम न पूछे।

मुझे गरज नहीं।

अपना रास्ता लो, बेवकूफ आदमी। क्रूरकर्मा सिपहसालार भन्ना गया और अजनबी अँधेरे में ही गायब हो गया। सिपहसालार बड़बड़ाता रहा, कैसा है यह हिंदी आदमी। जादूगरों को मात करता है। पीर-औलिया को भी मात कर गया। सवा ग्यारह लख देने आया, नाम नहीं बताएगा। हातिमताई का दादा बन गया। कहाँ से ले इतना धन वो भी नहीं मालूम। मालिक का नाम लेता है- परवरदिगार न हुआ इसका खादिम हो गया। हिंदी आदमी। अजीबोगरीब है। इतना पैसा है, फिर भी फौज नहीं बनता। जंग नहीं करता। शर्म की बात। सिपहसालार अपनी झेंप पर अहंकार की परत चढ़ाने लगा। व्यास नदी का पुलिन अश्वातापों से गुंजित हुआ। शीराज पहुंच गया था। प्रमुख प्रहरी को परवाना दिया। सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी, रिहा, बिकुनंद ( सबको रिहा करो )

कैदी मुक्त हो गये। चकित थे। हर्षित थे, कैसे हुआ? किसने मुक्त कराया मौत के चंगुल से? कहीं से कोई ठीक उत्तर नहियो मिलता था और भी बहुत दिन बीत गये।

रहस्य का उत्तर बही-खाते में रहा आक्रामक ईरानी नहीं जान सके थे, उसका नाम। जालंधर के निवासी भी नहीं जान पाए उसे और कितने ही शरद आए-गए। एक बार पतझड़ में जिस तरह तमाम पीले पत्ते झड़े, वह अजनबी भी दुनिया से चुपचाप चल बसा, बिना कुछ बताये। फिर बसंत आया। नए पत्ते, नयी कोंपल। नयी पीढ़ी समय की सीढ़ियां चढ़ने लगी। पिछली पीढ़ी गुजर चुकी थी। एक दिन एक घर में पुराने कागज-पत्र साफ किये जा रहे थे। कूड़ा-करकट जलाया जा रहा था, तभी एक बहीखाता उनके हाथ लगा। उसमें एक वाकया पढ़ कर सब चकरा गए। बड़े–बूढ़ों को दिखाया गया वह। भोजपत्र के एक पृष्ठ पर बीचोंबीच लिखा था-

सवा ग्यारह लाख रुपया व्यास में कैद आदमियों को छुड़ाने वास्ते दिया गया। सही की- सदासुख अरोड़ा।

सदासुख की कृष्णभक्ति से बुजुर्ग परिचित थे। अपनी जिन्दगी में सतत् उन्हें निष्काम कर्म पसंद था। परन्तु निष्काम कर्मयोगी गीता-गायक के रूप में भक्ति की इतनी उच्चकोटि की व्याख्या वे कर जायेंगे, इसका एहसास सभी को उस दिन हुआ। उपस्थितजनों की आंखें भीग गयीं। सभी निष्काम कर्म के सुखद अहसास में डूब गये।


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